पहला प्यार - भाग 5 Kripa Dhaani द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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पहला प्यार - भाग 5

बेला ने राज के लिए छोड़े कागज़ के पुर्ज़े में कब्रिस्तान का पता देते हुए लिखा था – ‘उस कब्र पर चले आना, जिस पर सफेद गुलाब रखा हो।‘ अब उस कब्र के सामने खड़े होकर राज यादों की कड़ियों को एक बार फिर जोड़ रहा था।

बेला के उस ख़त का जवाब उसने कुछ यूं दिया था -

'अगर मुझे प्यार करने की हिम्मत होगी, तो प्यार हासिल करने की भी। वैसे मेरा परिवार सपोर्टिव है, इसलिए बग़ावत की ज़रूरत मुझे कभी नहीं होगी। वैसे वे सपोर्टिव इसलिए भी है, क्योंकि जानते हैं कि मैं कभी उनके ख़िलाफ़ नहीं जाऊंगा और इंपॉर्टेंट बात ये है कि तुम इसाबेला नहीं, बेला हो। इससे भी इंपॉर्टेंट बात ये है कि मुझे फ़र्ज़ करने की ज़रूरत नहीं, मुझे सच में तुमसे प्यार हो गया है।

हाँ बेला! तुम्हें देखे बिना ही मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ। तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो, ये पूछने के पहले मैं तुम्हें अपनी फोटो भेज रहा हूँ। जानता हूँ तुम लड़की हो, ख़त में मेरे ऐसे किसी भी सवाल का जवाब देना तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा। पर अगर तुम्हें मैं पसंद हूँ, तो जवाब में अपनी फोटो भेज देना। मैं समझ जाऊंगा और तुम्हारा हाथ मांगने माँ-बाबा को तुम्हारे घर भेज दूंगा।‘

ख़त भेजने के बाद वह बेचैनी से बेला के जवाब का इंतज़ार करने लगा। इस बार इंतज़ार बहुत मुश्किल था। उसका जन्मदिन नज़दीक था और वह चाहता था कि उपहार में उसे बेला की तस्वीर मिल जाये। वह मनचाहे उपहार की उम्मीद तो लगा बैठा था, मगर मज़े की बात ये थी कि उसने अपने जन्मदिन की तारीख उसे बताई ही नहीं थी। खैर जन्मदिन पर तो नहीं, पर उसके कुछ दिनों बाद उसे बेला का ख़त मिला और ख़त के साथ उसकी फोटो भी।

राज उस दिन बहुत ख़ुश था। जाने कितनी बार उसने बेला की फोटो को निहारा। उसकी कल्पना में बेला परियों की शहजादी थी। दूध सी उजली रंगत लिए नीली आँखों और सुनहरे बालों वाली खूबसूरत शहजादी। पर कल्पना और हक़ीकत में फ़र्क होता है और हक़ीकत उस वक़्त बेला की तस्वीर के रूप में उसके हाथ में थी। परियों की शहजादी नहीं थी बेला, पर वह राज के दिल की शहजादी पहले ही बन चुकी थी। इसलिए सांवली-सलोनी सादगी भरी बेला उसे बहुत प्यारी लगी। नीली नहीं, काली गहरी आँखें थीं उसकी, जो बोलती सी लग रही थी। उसे यूं लगा मानो, वो उससे कह रही हो – ‘राज! मुझे भी आपसे प्यार है।‘ और वो दीवाना हो गया। सिरहाने पर उसकी फोटो रखकर वह सारी रात उसके ख़यालों में खोया रहा।

अगले दिन ही उसने अपने माँ-बाबा से बेला का ज़िक्र छेड़ दिया और कुछ दिनों बाद उसके माँ-बाबा बेला के घर रिश्ता लेकर चले गये। उन दोनों की शादी तय हो गई। जल्द ही बेला दुल्हन बनकर राज के घर आ गई।

बेला अच्छी पत्नी साबित हुई। वह हर तरह से राज का ख़याल रखती। राज उसके साथ बहुत ख़ुश था, बस एक बात उसे खटकती थी कि शादी के बाद वो दोस्ती कहीं गुम हो गई थी, जो ख़तों के ज़रिये उनमें हुई थी। वह सोचता, ऐसा शायद इसलिए है कि अब उनका रिश्ता दोस्ती का नहीं रहा, अब वे पति-पत्नी हैं।

बेला हमेशा खोई-खोई सी रहती। उसकी ख़ूबसूरत गहरी आँखों में एक ख़ामोशी सी पसरी रहती। जाने ऐसा क्यों था?

राज कई बार उससे पूछता, "बेला ख़ुश तो हो न मेरे साथ?"
और वह ख़ामोशी से सिर हिला देती।

कई बार वह उसे अपने पास बिठाकर कहता, "बेला! कुछ कहो ना! मैं तुम्हारी बातें सुनना चाहता हूँ।"

बड़े शांत लहज़े में वह जवाब देती, "मैं क्या बोलूं? आप कहिए, मैं सुनती हूँ।"

राज बेला से उस तरह बातें करना चाहता था, जैसे वे ख़तों में किया करते थे। इसलिए कई बार वह ये भी कहता, "ठीक है! यदि बोलना न चाहो, तो वैसे ही ख़त में लिख दिया करो, जैसे लिखा करती थी।"

"धत्त! आपके साथ एक छत के नीचे रहकर खत लिखूंगी। आप भी ना!" कहकर वह टाल जाती।

राज बस मुस्कुराकर रह जाता। वह दोस्त के रूप में बेला को मिस करता, पर पत्नी के रूप में उसे पाकर वह संतुष्ट था। उससे ज्यादा ख़याल रखने वाली और ख़ामोशी से प्यार करने वाली पत्नी उसे ढूंढे से भी न मिलती। सुबह उसे देखे बिना उसे चैन ही न आता था। शायद इसलिए आज वह बेचैन सा था। बेला को वह सुबह से देखना चाह रहा था और अब भी जाने वो कहाँ थी।

"बेला कहाँ हो तुम?" राज बुदबुदाया, "यहाँ तुमने मुझे क्यों बुलाया है? क्या उपहार देना चाहती हो तुम मुझे? वो भी इस जगह?"

क्रमश:

राज को कब्रिस्तान में बुलाकर बेला कहां चली गई है? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।

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