एक देशभक्त सन्यासी - 5 संदीप सिंह (ईशू) द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक देशभक्त सन्यासी - 5

....... उनके अनुसार, “यदि शिक्षा का अर्थ सूचनाओं से होता, तो पुस्तकालय संसार के सर्वश्रेष्ठ संत होते तथा विश्वकोष ऋषि बन जाते।”


उनके अनुसार, “शिक्षा उस सन्निहित पूर्णता का प्रकाश है, जो मनुष्य में पहले से ही विद्यमान है। “

स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन के पण्डित और अद्वैत वेदान्त के पोषक थे। ये वेदान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए प्रसिद्ध हैं।
स्वामी जी अपने देशवासियों की अज्ञानता और निर्धनता, इन दो से बहुत चिन्तित थे और इन्हें दूर करने के लिए इन्होंने शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया था।


ये अपने और अपने साथियों को केवल वेदान्त के प्रचार में ही नहीं लगाए रहे, इन्होंने जन शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार में भी बड़ा योगदान दिया है।

भारतीय शिक्षा को भारतीय स्वरूप प्रदान करने के लिए ये सदैव स्मरण किये जायेंगे। स्वामी विवेकानन्द मैकॉले द्वारा प्रचारित तत्कालीन अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को सही नहीं मानते थे क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य मात्र बाबुओं की संख्या बढ़ाना था।


स्वामी जी भारत में ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे व्यक्ति चरित्रवान बने, साथ में आत्म-निर्भर भी बने।


उन्हीं के शब्दों में, “हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है।”


स्वामी जी सैद्धान्तिक शिक्षा की तुलना में व्यावहारिक शिक्षा पर बल देते थे।


उन्हीं के शब्दों में, “तुमको कार्य के सब क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों में सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है। '’

स्वामी विवेकानन्द जी के शिक्षा के उद्देश्य की परिकल्पना

स्वामी विवेकानन्द मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों रूपों को वास्तविक मानते थे, सत्य मानते थे। इसलिए मनुष्य के दोनों पक्षों के विकास पर बल देते थे।

स्वामी जी ने शिक्षा के जिन उद्देश्यों पर बल दिया है उन्हें हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-

1. शारीरिक विकास-

स्वामी जी भौतिक जीवन की रक्षा एवं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्मानुभूति दोनों के लिए स्वस्थ शरीर की आवश्यकता समझते थे। इनकी दृष्टि से शिक्षा द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य का शारीरिक विकास ही किया जाना चाहिए।

2. मानसिक एवं बौद्धिक विकास-

स्वामी जी ने भारत के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण उसके बौद्धिक पिछड़ेपन को बताया और इस बात पर बल दिया है कि हमें अपने बच्चों का मानसिक एवं बौद्धिक विकास करना चाहिए और इसके लिए उन्हें आधुनिक संसार के ज्ञान-विज्ञान से परिचित कराना चाहिए, जहाँ से जो भी अच्छा ज्ञान एवं कौशल मिले उसे प्राप्त कराना चाहिए और उन्हें संसार में आत्मविश्वास के साथ खड़े होने की सामर्थ्य प्रदान करनी चाहिए।

3. समाज सेवा की भावना का विकास-

स्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पढ़-लिखने का अर्थ यह नहीं कि अपना ही भला किया जाए, मनुष्य को पढ़-लिखने के बाद मनुष्य मात्र की भलाई करनी चाहिए। ये चाहते थे कि पढ़े-लिखे और सम्पन्न लोग दीन-हीनों की सेवा करें, उन्हें ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्न करें, समाज सेवा करें।

समाज सेवा से इनका तात्पर्य दया या दान से नहीं था, समाज सेवा से इनका तात्पर्य दीन-हीनों के उत्थान में सहयोग करने से था, उठेंगे तो वे स्वयं ही। ये मनुष्य को ईश्वर का मन्दिर मानते थे और उसकी सेवा को ईश्वर की सेवा मानते थे।

4. नैतिक एवं चारित्रिक विकास- स्वामी जी ने यह बात अनुभव की कि शरीर से स्वस्थ, बुद्धि से विकसित और अर्थ से सम्पन्न होने के साथ-साथ मनुष्य को चरित्रवान भी होना चाहिए। चरित्र ही मनुष्य को सत्यनिष्ठ बनाता है, कर्तव्यनिष्ठ बनाता है।

इसलिए इन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्य के नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर भी बल दिया। नैतिकता से इनका तात्पर्य सामाजिक नैतिकता और धार्मिक नैतिकता दोनों से था और चारित्रिक विकास से तात्पर्य ऐसे आत्मबल के विकास से था।


इनका विश्वास था कि ऐसे नैतिक एवं चरित्रवान मनुष्यों से ही कोई समाज अथवा राष्ट्र आगे बढ़ सकता है, ऊँचा उठ सकता है।

5. व्यावसायिक विकास-

कोरे आध्यात्मिक सिद्धान्तों से जीवन नहीं चल सकता, हमें कर्म के हर क्षेत्र में आगे आना चाहिए। इसके लिए इन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्यों को उत्पादन एवं उद्योग कार्यों तथा अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षित करने पर बल दिया।

6. राष्ट्रीय एकता एवं विश्वबन्धुत्व का विकास-
परतन्त्रता हीनता को जन्म देती है और हीनता हमारे सारे दुःखों का सबसे बड़ा कारण है।


अतः जब ये अमरीका से भारत लौटे तो इन्होंने भारत की भूमि पर पैर रखते ही युवकों का आह्वान किया- ‘तुम्हारा सबसे पहला कार्य देश को स्वतन्त्र कराना होना चाहिए और इसके लिए जो भी बलिदान करना पड़े, उसके लिए तैयार होना चाहिए।


इन्होंने उस समय ऐसी शिक्षा की व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया जो देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करे, उन्हें संगठित होकर देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत करे।

7. धार्मिक शिक्षा एवं आध्यात्मिक विकास-

स्वामी जी शिक्षा द्वारा मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्षों के विकास पर समान बल देते थे।

इनका स्पष्ट मत था कि मनुष्य का भौतिक विकास आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि में होना चाहिए और उसका आध्यात्मिक विकास भौतिक विकास के आधार पर होना चाहिए और ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य धर्म का पालन करे।


इनकी दृष्टि से धर्म वह है जो हमें प्रेम सिखाता है और द्वेष से बचाता है, हमें मानवमात्र की सेवा में प्रवृत्त करता है और मानव के शोषण से बचाता है और हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास में सहायक होता है।


अतः हमें प्रारम्भ से ही उसकी शिक्षा देनी चाहिए। साथ ही बच्चों को जीवन के अन्तिम उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रारम्भ से ही ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग अथवा राज योग की ओर उन्मुख करना चाहिए।


इनकी दृष्टि से वास्तविक शिक्षा वही है जो मनुष्य को भौतिक जीवन जीने के लिए और आध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करने के लिए तैयार करती हैं।

(समाप्त)

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-संदीप सिंह ' ईशू'