प्रेम गली अति साँकरी - 145 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 145

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उस रात जैसे बाहर के सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट से मन के भीतर की खड़खड़ाहट संवाद करती रही और मैं एक बेभान सी स्थति में मन के एक कोने से दूसरे में चहलकदमी करती रही | सारे आलम में दूर देश में, वो भी अस्पताल में, डॉक्टर्स-नर्स की सख्त निगरानी में लेटे पापा का आध्यात्मिक चिंतन इतना प्रबल, प्रबुद्ध था जो ज़िंदगी भर साथ रहने के उपरांत भी समझ में नहीं आया था | अब इतनी दूर से बातों की क्लेरिटी हो रही थी | 

सारी बातों की एक बात थी, सारे चिंतन का एक समग्र परिणाम था कि जो कुछ भी है जगत में अथवा जगत से जुड़ा, वह एक दूसरे के सहारे ही चलता है | अब वह बात और है कि आप उस ऊर्जा को बिलोकर उसमें से नवनीत निकालते हैं, दही या छाछ को उपयोग में लेते हैं ! अथवा उस छाछ को भी सड़ाकर उसे बाहर फेंक देते हैँ या फिर किसी गली के जानवर के सामने डाल देते हैँ जिसे गली के आवारा जानवर भी मुँह लगाकर छोड़ जाते हैं पापा जो भी बोलते रहे थे बड़े आश्वस्ति भरे शब्दों में मुझसे बात करते रहे थे | बहुत-बहुत अजीब लगा था मुझे लेकिन सच तो यही था और मैं मेघों से आच्छादित ऐसे बादल के टुकड़ों के बीच से गुजरती रही जहाँ सुकून के दो पल थे तो भय की एक सिहरन भी !

ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन हो रहा था, हुआ था | साथ ही ऐसा भी महसूस हो रहा था कि जिन सब बातों को हम छिपाने की कोशिश कर रहे हैँ, वे सब ही तो जानते हैँ तो फिर किससे क्या छिपा रहे हैं?

अगले दिन सुबह मेरे लिए बड़ी कठिन थी, पापा से हुई बात किसी को बताना संभव नहीं था, क्या फायदा होता बताने से | भाई को उत्पल के बारे में जैसे सब कुछ पता था, वह बार-बार मुझे कहता कि उत्पल को किसी भी तरह बुला लूँ, वह होगा तो सब कुछ ठीक हो जाएगा | 

“क्यों पीछे पड़े हो उसके? यह उसको सोचना चाहिए था कि हमें ऐसी स्थिति में छोड़कर कैसे गायब हो गया!”

“तुम्हारी या हमारी कोई गलती नहीं थी क्या?”अमोल ने ठीक बात तो पूछी थी | 

मनुष्य की आदत होती है कि वह अपने ऊपर कोई बात लेना ही नहीं चाहता | दूसरों के कंधों पर डालकर स्वयं को मुक्त रखकर बड़ा उदात्त और महान समझना चाहता है | हम सबने भी तो यही किया था, उसकी एक बात भी सुनने की, समझने की कोशिश कहाँ की थी हमने और मैं---मैं तो न जाने कितनी महान थी कि उस युवा के जीवन में मेरे आने से उत्पल का जीवन पूरी तरह तहस-नहस हो जाएगा, समाज में क्या संदेश दूँगी? ऐसी बातों से डरी, सहमी मैं किस स्थिति में प्रमेश से शादी का निर्णय ले सकी होऊँगी?

“अमी ! एक बार खुलकर बोलती तो सही---” एक दिन अमोल ने बातों बातों में शिकायत की | 

“क्या बोलती भाई ?” मेरा दिल बुरी तरह धड़क उठा | क्या इसे सब पता है? मैं शर्म से लाल होने लगी थी | 

“अपने प्रेम के बारे में और क्या---”भाई सच में नाराज़ था | 

“क्या होता उससे ?” मैंने साहस करके पूछ ही लिया | 

“जो अब हो रहा है न, वो न होता और एक छोटी सी बात के पीछे ऐसे पूरा ‘मैस’ न होता | न तुम दोनों के प्रेम का और न ही----”वह चुप हो गया बीच में ही | मुझे लगा मैं कहाँ अपना मुँह छिपाकर भाग जाऊँ? भाई के सामने मेरे कई दशकों के बीच पनपने वाले प्रेम की धज्जियाँ उड़ गईं थीं | मैं समझ सकती थी कि प्रेम को छिपाना इतना आसान भी तो नहीं है, कहीं से भी झाँककर एक रोशनी की गुनगुनाहट छोड़ जाता है | फिर कितना भी उसकी ओर से आँखें बंद कर लें, वह दिल के रास्ते भीतर समाया ही रहता है | 

“क्या तुम जानते थे ?”मैं शर्म से मरी जा रही थी, क्या सोचेगा भाई मेरे बारे में लेकिन मुझे उससे पूछना पड़ा | 

“अमी ! प्रेम एक नेचुरल भावना है, तुम्हें क्या लगता है कि इसे छिपाया जा सकता है? तुम सबको कैसे मेरे प्रेम के बारे में पता चल गया था जब कि मैं तो तुमसे कितने हज़ार मीलों दूर था | इश्क और मुश्क छिपाए कहाँ छिपते हैं ? दादी के टाइम से हम सब सुनते आ रहे हैं | ”भाई ने कहा | 

“तुम्हारी बात अलग है—” मैं उदास थी | काश! दादी होतीं ! मैंने एक लंबी सी साँस भरी थी | 

“वो कैसे ? तुम लोगों को मेरे और एमिली के बीच की उम्र का डिफरेंस नहीं पता था?”अमोल ने पूछा | 

ओह ! हम तो सच ही भूल गए थे और हमारे परिवार के अलावा किसी से भी इस बात की चर्चा तक नहीं की गई  थी कि अमोल और एमिली में पंद्रह साल का फ़र्क था | एमिली अमोल से पंद्रह वर्ष बड़ी थी | लेकिन मेरे और उत्पल का फ़र्क???? सोचकर ही मुझे घबराहट शुरू हो जाती थी | यह तो अब भाई के याद दिलाने से याद आया, इतने लंबे वर्षों में अमोल और एमिली की शादी के बीच के अंतराल को किसने याद किया था??

“अमी! जीवन में यही होता है, किसके पास इतना टाइम होता है कि वह दूसरों की कहानियों में खुद को इतना इनवॉल्व करे | यह समय की बात होती है---बस, इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं | ”

“फिर भी भाई आपने विदेशी लड़की से शादी की थी और आपको रहना भी विदेश में ही था---”मैं किसी न किसी तरह अपनी बात को छोटी नहीं होना देना चाहती थी | 

“वैसे, मैं अब बहस नहीं करूँगा लेकिन यूँ सच को छिपाना और उसको समाज के डर से अपने ऊपर हावी होने देना, किसी के लिए भी इंसाफ़ तो हो नहीं सकता अमी---लोग एक मूर्ख भीड़ की तरह होते हैं, एक तरफ़ चलते हुए कब उनके सामने दूसरी बड़ी भीड़ सिमटकर ठहाके लगाने लगें, और फिर से अपने स्वार्थ व दूसरे जो मज़ाक समझकर वे कब फिर से उसी ओर मुड़ जाएँ जिधर से आए थे, उन्हें पता भी नहीं चलता | ये सब थाली के बैगन होते हैं अमी, क्या हमें अपने जीवन को इनके साथ लुढ़कने देना चाहिए? हम सब जानते हैँ मनुष्य- जीवन बड़ी मुश्किल से मिलता है | ” भाई को मेरे लिए बहुत दुख था इससे भी ज़्यादा दुख था कि हम दोनों इतने अच्छे दोस्त थे फिर भी मैंने उससे अपनी सबसे कीमती ईश्वरीय सौगात प्रेम के बारे में कुछ भी साझा नहीं किया था | 

यानि भाई को पता था तो शायद एमिली को भी मालूम ही होगा | यानि यह जो कुछ भी था वह सब कुछ मूर्खतापूर्ण रवैये के कारण ही न ?

सी.आई.डी एजेंसी का काम भी जैसे स्लो मोशन में चल रहा था | जितनी बात पापा से उनकी अनुपस्थिति के बावज़ूद भी सुनी थी, उसका सार-संभार आसान नहीं था | 

रात भर झटोकों में इतना सब कुछ बीत जाने  के बाद, अब नींद में थी कि कुछ समझ नहीं आ रहा था | भाई का फ़ोन बंद होते ही मैं न जाने कब ऊबड़-खाबड़ सी अपने पलंग पर जाकर अजीब सी स्थिति में पड़ गई |