प्रेम गली अति साँकरी - 142 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 142

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संस्थान में तो सब ठीक-ठाक चल रहा था जैसे अम्मा के अनुसार हमेशा चलता रहा था | सब कर्मचारी वर्षों से अपने काम में इतने माहिर हो चुके थे कि उन्हें किसी विशेष काम के लिए ही कुछ कहने या पूछने की ज़रूरत होती वरना सब काम अपनी गति से चलते रहते | इस प्रकार बहुत कम स्थानों पर हो पाता है वर्ना आध्यात्म के आश्रमों में तक कुछ न कुछ गड़बड़ी होती ही रहती हैं | 

“स्वार्थ ही सबसे बड़ी परेशानी लेकर आता है बेटा, नि:स्वार्थ भाव सबसे बड़ी कसौटी है!”हमारी दादी! सच में कमाल ही थीं | हर बात को एक संतुलित पलड़े पर तोलने वाली दादी से हम सबने क्या नहीं सीखा था ? ? 

वैसे यह बात कुछ समझ में आई तो नहीं थी कि संस्थान में मच्छर हो सकते हैं क्योंकि यहाँ हमेशा से ही सप्ताहांत में सभी कीटाणुनाशक दवाइयों के साथ सफ़ाई की जाती थी फिर भी मैंने शीला दीदी से चर्चा करके इस सप्ताहांत ‘पेस्ट-कंट्रोल’ के लिए भी कहलवा दिया था | उनके पति प्रमोद मार्केटिंग भी देख रहे थे और उनका सबसे कॉन्टेक्ट था | 

“वैसे, मुझे पता है कि इसकी कोई खास ज़रूरत नहीं है फिर भी अगर हो जाए तो हर्ज़ भी क्या है ? ”मैंने मीटिंग से पहले आज कहा तो सबकी सहमति होनी ही थी | 

“जी, दीदी ठीक है, कोई हर्ज़ भी नहीं है | अच्छा है हो जाए तो---मैं कर लेता हूँ कॉन्टेक्ट--”प्रमोद ने कहा | 

आज फिर दीदी जी पधार गईं, अपने साथ न जाने कहाँ का प्रसाद लेकर आई थीं | कभी भी किसी न किसी बहाने से संस्थान में पहुँच जाने वाली हमारी सबसे बड़ी परेशानी बनी हुई थीं वह!

“अमी !बहूत चिंता है, आज कालिका देबी जी के मंदिर में जाकर आई हूँ | देबी माँ तुम लोगों की सब चिंता दूर करें---“वे ऐसी चिंता में थीं मानो पूरे संसार की चिंता में घुल रही हों और उन्हें हमारे लिए असह्य वेदना हो | 

“आप किस बात की और क्यों चिंता करती हैं? मैं किसी चिंता में नहीं हूँ और न ही यहाँ कोई परेशानी है | ”मैंने उनसे पीछा छुड़ाने के लिए खीजकर कहा और देखा कि उनके पीछे टोकरी में प्रसाद लिए मंगला खड़ी है | 

“अपना लोक ही चिंता करता है, कोई दूसरा क्यों करेगा ? ”उन्होंने बड़ी लापरवाही से कहा | 

आज मेन गेट पर पुराना गार्ड नहीं था और नए के लिए ये अतिथि महिला इस संस्थान की समधिन व आदरणीय थीं | वहाँ से कोई सूचना नहीं आई थी और वे सीधे मेरे चैंबर में पधार गई थीं जब कि अभी मेरी ‘अंदर-बाहर’ दोनों जगह की टीम्स के आने का समय शुरु होने ही वाला था | इस चालाक लोमड़ी को तो वैसे ही न जाने क्या और कितना कुछ मालूम है, इसने सबको एकसाथ देख लिया तो न जाने---वैसे मैं जानती थी कि उसे तो बहुत कुछ मालूम है ही, उस सबको कैसे उसके दिमाग से खरोंचकर फेंका जा सकता है? 

मेरे मन ने उनका सम्मान करने से तो बहुत पहले ही नकार दिया था अब तो ‘आदरसूचक शब्द’मन में भी सोचना या कहना मन पर भारी पड़ रहा था | खैर, यह बहुत पहले से हो चुका था लेकिन अब तो----नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं---इसे उठाकर बाहर फिकवा देना चाहिए, मन विद्रोही था | 

“कैसे हैं बाऊदी---”यह पगली लड़की मेरी ओर बढ़ आई और मैं न जाने क्यों मोम सी हो आई | 

“लाओ, मंगला, बाऊदी को प्रसाद दो--” जैसे अचानक डंक में शहद घुल गया हो? 

जितनी देर मैं उस औरत के घर में रही थी मैंने कभी उसे अपने सहायकों के साथ मधुरता से तो क्या सहजता से भी बात करते नहीं देखा था, उसके शब्दों से एक अभिमान फूटता दिखाई देता, मंगला से इतना मीठे स्वर में बोलना!अच्छा लगा मुझे | 

मंगला ने आकर मुझे प्रणाम किया और मेरे हाथ में प्रसाद की सुंदर सी टोकरी थमा दी जिसे मैंने सामने की कॉन्फ्रेंस-टेबल पर रख दिया था | न जाने किस भावातिरेक में आकर मैंने उसे अपने गले से लगा लिया | मुझे लगा, उसने कोई कागज़ की छोटी सी पर्ची मेरी पीठ में ब्लाउज़ के पीछे गले में डाली है, चुप रहना था सो कुछ अजीब सा महसूसते हुए भी चुप रही | एक बार दृष्टि उससे मिली और हम दोनों अलग हो गए | 

“आज मंगला संस्थान में आई, अच्छा लगा---”मैंने कहा जबकि जानती थी सामने क्या प्रभाव पड़ेगा | 

न जाने ऐसा क्यों होता था कि मैं जब भी उसे देखती एक स्नेह की कोपल सी मन में हरी होने लगती | जानती थी, उसकी मालकिन को मेरा व्यवहार बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन मैंने न तो वहाँ परवाह की थी और न आज ही!

“मेरी मीटिंग शुरू होने वाली है | ”शीला दीदी ने पहुँचकर अचानक ‘विश’ किया | वे सबको देखकर कुछ चौंक सी गईं | शायद उन्हें यह भी महसूस हुआ कि कहीं अभी सब लोग एक साथ न पहुँच जाएं | 

“अमी ! आप लोग अपनी मीटिंग करो | हम अभी चलता है, फिर आएगा | चालो मंगला---”वे दो कदम दरवाज़े की ओर बढ़ीं और फिर ठिठक गईं | 

“अरे मंगला ! प्रसाद तो खिला दो, देबी माँ का----खोलो, खोलो---”मंगला को प्रसाद की टोकरी खोलने का आदेश देकर, वे जल्दी से हमें खिला देना चाहती थीं | 

“आपने इतनी चिंता की, थैंक्स----”मैंने न चाहते हुए भी उनकी ओर हाथ जोड़ दिए फिर मंगला की ओर मुड़कर कहा;

“सबको आने दो, हम सब ले लेंगे प्रसाद | ”मैंने कहा और उसका इशारा भी समझ लिया कि उसने जो चुपके से मेरे ब्लाउज़ के पीछे के गले से मुझ तक पहुँचाया है, वह पढ़ लूँ | 

“नहीं, पहले प्रसाद खा लो –”वह ऐसे बोलीं जैसे नहीं खाएंगे तो कुछ कहर हो जाएगा, शायद उनके लिए कुछ ऐसा ही हो, यही तो हो रहा था | वे दरवाज़े पर फिर ठिठककर मंगला के प्रसाद खोलने की प्रतीक्षा में अटक गई | 

बेचारी मंगला पशोपेश में, क्या करे ? वह अपना काम कर चुकी थी लेकिन मैं समझी थी या नहीं ? उसके मुँह पर हवाइयाँ उड़ने लगीं और उस बेचारी को जाते-जाते फिर ठिठकना पड़ा क्योंकि उसकी मालकिन का आदेश था कि वह टोकरी में से प्रसाद निकालकर मुझे खिलाए | 

“गेट पर कमिश्नर साहाब हैं ? ” शीला दीदी ने बजता हुआ इंटरकॉम उठाकर मुझे बताया | 

“इस टाइम ? कमिश्नर साहब ? क्या हुआ होगा ? ”मैंने कुछ चिंता दिखाई | 

“मुझसे बात करनी होगी, अरे हाँ, भाई ने भेजा होगा | इमरजेंसी होगी, चलिए उन्हें बाहर के गैस्टरूम में बैठाइए | मैं आती हूँ | ”मैंने अपनी साड़ी पीछे से कमर पर लपेट ली जिससे जो कुछ मुझ तक पहुंचाया गया है, वह कहीं निकल न जाए और मंगला को इशारा करती हुई शीला दीदी के पीछे निकल गई | अब दीदी महारानी के पास भी वहाँ से उड़नछू होने के अलावा कोई चारा नहीं था | मुझे मंगला से बात करनी थी लेकिन अभी नहीं कर सकती थी | 

हम सभी एक के बाद एक बाहर निकल गए | सामने पापा के दोस्त और हम सबके बचपन के अंकल कमिश्नर सिंह थे | 

“नमस्कार अंकल, आइए---”बाहर वाले गैस्ट-रूम में शीला दीदी जा चुकी थीं | 

अंकल उधर बढ़ ही रहे थे कि उनकी नज़र दीदी जी पर पड़ी | 

“नमस्कार---इफ आइ एम नॉट रॉग। प्रमेश जी की दीदी ? कैसे हैं आप? ”वे उनके पास अटक गए, शायद जानबूझकर !या फिर? 

दीदी जी की शायद टाँगें काँप रही होंगी | 

“नमस्कार कमिश्नर साहब, सब भालो? ”उनके मुँह से कांपते हुए निकल ही तो गया | 

“जी, सब अच्छा, वो हमारा दोस्त बीमार हो गया न, सोचा ज़रा अमी बिटिया से मिलकर आऊँ | ”

“आइए, कुछ देर बैठते हैं—” उन्होंने तेज़ी से बाहर की ओर जाती हुई प्रमेश कि बहन को बैठने के लिए कहा | 

ये सिंह अंकल भी, मैंने सोचा | जगन के टाइम में शीला दीदी के रिश्तेदारों की ऐसी की तैसी कर दी थी | ज़रूर अमोल से इनकी कुछ बात तो हुई है | 

“आप लोग बैठिए, अभी चलते हैं—”कहकर वे मंगला को साइड में करके निकल गईं | 

जब सिंह अंकल के जाने के बाद हम लौटकर अपने मीटिंग-रूम में आए तब वहाँ प्रसाद की टोकरी नहीं थी | मेरे ब्लाऊज के गले में फँसी एक छोटी पर्ची निकली थी जिस पर लिखा था | 

‘इस प्रसाद को कोई भी मत खाना’ स्पष्ट लिखा था | यानि कि यह औरत अपने क्रिया-कलापों में रुकने वाली नहीं थी | अगर रुक जाती तो अपने काम कैसे पूरे करती?