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ब्रम्हशिर - पार्ट 3

कालः द्वापरयुग

जब पितामह ब्रह्मा ने सृष्टि का निर्माण किया तब ब्रह्मा जी ने मृत्यु का प्रावधान नहीं किया था परिणाम स्वरूप सृष्टि का विस्तार होता गया क्योंकि इस संसार में जिसने जन्म लिया उसकी मृत्यु नहीं हुई। जिससे पृथ्वी पर प्राणियों की संख्या बढ़ती गई और पृथ्वी पर भार बढ़ता गया जब पृथ्वी को यह भार असहनीय होने लगा तब पृथ्वी देवताओं को साथ लेकर महादेव जी के पास गईं और महादेव जी उनको साथ लेकर पितामह ब्रह्मा जी के पास गए और महादेव जी ने ब्रह्मा जी से कहा

त्वद्भव हि जगन्नाथ एतत स्थावरजड. गम।
प्रसाद्यत्वा महादेव याचाम्यावृत्तिजाः प्रज्ञा।।
-शांति पर्व 257/12

अर्थात-

हे जगन्नाथ यह समस्त चराचर जगत आपसे ही उत्प्न हुआ है अतः मैं आपको प्रसन्न करके यह याचना करता हूं कि ये सारी प्रजा पुनरावर्तनशील हो-मरकर पुनः जन्म धारण करें।

ततोडग्रिमुसगृह्मा मगवाल्लेकपूजिताः।
प्रवृत्ति च निवृत्ति च कल्पयाभास वै प्रभुः ।।
-शांति पर्व 257/14

तब लोकपूजित ब्रह्मा जी ने प्रजा के लिए जन्म और मृत्यु की व्यवस्था की। अपने वंशजों, सैनिको इत्यादि का अंतिम संस्कार करके दुखी मन से पांडव शमशान भूमि को प्रणाम करके वापस इंद्रप्रस्थ को प्रस्थान करने वाले थे। श्रीकृष्ण सब कुछ स्थिर मन से देख रहे थे, उन्हें भान था कि अभी भी बहुत कुछ कार्य शेष था, संस्कारों के पूर्ण होने के बाद धृतराष्ट्र,गांधारी इत्यादि से भेंट करनी थी। सायं काल का समय हो रहा था और सूर्य अस्ताचल में जा रहे थे तभी अर्जुन ने पूर्व दिशा में देखा, एक तेजोमय प्रकाश उन सबकी तरफ बढ़ रहा था। उस प्रकाश का तेज अतुलनीय था, मानो सूर्य अस्त होकर 10 गुना बढ़कर उनकी ओर बढ़ रहा हो, किसी के कुछ समझ आ पाने के पहले श्रीकृष्ण का गंभीर स्वर गूंज उठा,

"सावधान,

अपमानित होकर अश्वत्थामा की अवस्था घायल सिंह के जैसी हो गई है, और उसने आप सबके समूल नाश के लिए ब्रह्मदंड अस्त्र का प्रयोग किया है।" सारे पांडव सतर्क हो उठे, पल भर में पांडवों ने अपने अस्त्र शस्त्र संभाल लिए थे और उस अस्त्र के समीप आते आते पांचो पांडवों के तरकश से अस्त्र निकल चुके थे, परंतु उस महाभयंकर अस्त्र के सामने वो अस्त्र जलकर भस्म हो गए मानो भीषण दावानल में छोटा पेड़ जल गया हो, मात्र अर्जुन को छोड़कर सबके हाथ से धनुष छूट गया, स्वेद धारा बह चली थी, सबके मुख पर काल का भय मंडरा रहा था पर धर्नुविद्या के परम पुजारी धनुर्वेद के चर्मोत्कर्ष पर पहुँचे अर्जुन इतनी जल्दी हार मानने वाले नही थे, अर्जुन ने गांडीव उठा रखा था, उस तेजोमय अस्त्र पर वे अंधाधुंध अपने दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते चले गए, पर उनके भी आश्चर्य की सीमा ना रही कि वह महान अस्त्र धीमा अवश्य हो रहा था परंतु रुक नहीं रहा था, तब अर्जुन ने स्थिर होकर आंखें बंद करके उस दिव्य अस्त्र का स्मरण किया, अपने रथ पर ही खड़े खड़े अर्जुन ने भगवान शिव के दिये अमोघ पाशुपत अस्त्र का आह्वाहन आरम्भ किया,

ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपन्चनयनाय नानारुपाव नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगडरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशान बेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन रताय सर्वसिध्दिप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिध्दाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभन्जनाय सूर्यसोमाग्नित्राय विष्णु कवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलज्जिहाय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय कारिणे ।

अमोघ दिव्य मंत्र के स्मरण मात्र से अर्जुन के गांडीव पर भगवान पुरारी का पाशुपत अस्त्र आ चुका था, उस दिव्य अस्त्र के प्रकट होने मात्र से सृष्टि में -हलचल होने लगी थी, आकाश में बिजलियाँ कड़कने लगी थी, समुद्रों में ज्वार आने लगा, उल्का पिंड विभिन्न स्थानों पर गिरने लगे थे, इससे पहले अर्जुन पाशुपत का संधान कर पाते, वहाँ श्रीकृष्ण की आवाज़ गूंजी,"पार्थ, पाशुपत संधान मत करना, सृष्टि का सर्वनाश हो जाएगा, इतनी ऊर्जा संभाल सकने की शक्ति वसुंधरा में नहीं है!" अर्जुन कुछ कर पाते इसके पहले श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र सहस्त्रो सूर्यो के समान तेजोमय घूमता हुआ ब्रम्हशिर अस्त्र के तेज के सामने आ खड़ा हुआ, और धीरे धीरे ही बढ़ते हुए ब्रम्हशिर अस्त्र की गति पर विराम लग गया, इतनी प्रचंड रोशनी हुई कि किसी को कुछ भी दिखना बंद हो गया, अर्जुन ने बस मुश्किल से इतना देखा, कि श्रीकृष्ण अपने स्थान में ध्यान मुद्रा में खड़े थे।


कालः कलियुग


भीषण विस्फोट से सोमदत्त बुरी तरह घायल हो चुके थे, मुश्किल से उठ कर इधर उधर देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, "थोखा हुआ!" सोमदत्त धीरे से बड़बड़ाते हुए उठकर इधर उधर देखने लगे, तभी उस दानव का स्वर सुनाई दिया,"मैंने कोई धोखा नहीं दिया है भृगुश्रेष्ठ, मैंने सत्य ही कहा है कि खेल शुरू हो चुका है, आप जीत गए, आप अपने मित्र को लेकर जा सकतें हैं, अगर नहीं जीते तो मृत्यु तक इस खेल में फंसे रहेंगे, हाहाहाहा!" सोमदत्त ने गहरी सांस ली, मन ही मन कहा, "मैं तैयार हूं!" फिर ईश्वर का स्मरण करके उस बन रहे रेखाचित्र को ध्यान से देखने लगे, और एक पल को उलझन में पड़ गए अद्भुत दृश्य था वह, विध्वंस के दृश्य थे, न दिन था, न रात्रि थी, न आकाश था, न पृथ्वी थी, न अन्धकार था, न प्रकाश था और न इनके अतिरिक्त कुछ और ही था।

सोमदत्त ने ध्यान से देखा, उस विध्वंस दृश्य से 2 आकृतियों का सृजन हो रहा था, वो दो आकृतियां आपस में टकरा कर मिल रही थी और अलग हो रहीं थी, तभी एक और तेजोमय रूप उन आकृतियों के ऊपर प्रकट होकर उन्हें शक्ति देने
लगा, इस शक्ति के प्राप्त होते ही बड़ी आकृति शांत हो गई, और छोटी आकृति से एक फलनुमा आकार निकला, सोमदत्त ने ध्यान से देखा, उस फलनुमा आकृति पर तीन अलग अलग रंग की सतह दिखाई दे रही थी।

सोमदत्त देख रहे थे कि तभी वह फलनुमा आकृति जोर से फट पड़ी, और उसकी तीन सतहों से एक सतह अलग होकर स्थापित हो गई, पृथक हुए सतह से एक किरण निकालकर आकाश की ओर चली गई,जैसे ही वह किरण आकाश से टकराई जोरों से गर्जन हुआ, आश्चर्यचकित होकर देखते हुए सोम के समक्ष आकाश से एक हस्त नुमा आकृति आकर वातावरण में घूमने लगी, मानो हाथ से कुछ फेरा जा रहा हो, इस हरकत से वायु वेग से घूर्णन होने लगा, इतना तेज चक्रवात कि कुछ भी देखना असंभव था,इस तेज चक्रवात से हवा मे गर्मी होने लगी, इतनी तेज गर्मी कि जैसे उसीचक्रवात से अग्नि निकलने लगी, सोमदत्त ने देखा, उस तीव्र अग्नि से एक द्रव्य धारा निकल रही थी,"यह क्या आश्चर्य है" सोमदत्त कुछ सोच पाते उससे पहले उस द्रव्य धारा से जलवर्षा होने लगी, उस जलवर्षा से पूरावातावरण वाष्पित हो उठा, कुछ भी दिखना बंद हो गया, थोड़ी देर बाद जब वाष्प छटना शुरू हुई, तब नीचे मिट्टी ही मिट्टी दिखाई दी..!

दृश्य समाप्त होते ही, तक्षसुर की आवाज़ सुनाई दी।

"हॉ तो महान मस्तिष्क के ज्ञाता श्रीमान सोमदत्त, दिशा निर्देश समाप्त, अब आपके समक्ष कुछ सवाल आएंगे, हर सही उत्तर आपको आपके मित्र के समीप ले जाएगा, और हर गलत उत्तर.. कहकर तक्षसुर रुक गया।

"क्या होगा अगर मैंने गलत उत्तर दिया ?" सोमदत्त ने तुरंत सवाल किया, प्रतिउत्तर में तक्षसुर व्यंगात्मक तरीके से हंस पड़ा, "कुछ ऐसा होगा, जो आपको पसंद नही आएगा, अच्छा शुभकामनाएं भार्गव ! अब आपको मैं इस खेल के समाप्त होने के पश्चात मिलूँगा, अगर आप सफल हुए तो, हाहाहा अन्यथा आज मुझे दुगना जलपान प्राप्त होगा" कहकर तक्षसुर अदृश्य हो गया।

सोमदत्त ने देखा सामने एक द्वार गोचर हो रहा था, "मनस्वी को जल्दी से पाना है!" सोचते हुए दृढ़चित होकर सोमदत्त द्वार में प्रवेश कर गए। अंदर प्रवेश करते ही सोमदत्त की आंखें भीषण प्रकाश से चौंधिया गई, कुछ भी देख पाना मुश्किल थी। तभी सोमदत्त के सामने कुछ अंक प्रकट हुए, सोमदत्त ने देखा पहला अंक 2 था, और उसके बाद 1 प्रकट हुआ

प्रथम प्रश्नः 2 1=?

"क्या मजाक है यह?" सोमदत्त सोच ही रहे थे कि उनके सामने 3 चौकोर खाने बन गए, जिसमे 3 अलग अलग अंक लिखे हुए थे। सोमदत्त ने देखा और मन ही मन सोचा,1, 3, 5 तीन विकल्प और एक सही उत्तर, पर इतने से सवाल का क्या अर्थ हो सकता है।

कुछ देर तक सोचने के बाद सोमदत्त को कोई ढंग की कड़ी ना मिली, "तो तुम मुझसे गणित हल कराना चाहते हो तक्षसुर!?"

"हाहाहाहा, भार्गव, आपके मस्तिष्क की बहुत प्रशंसा सुनी है मैंने, और आपके समक्ष आसान प्रश्न ही हैं, सही उत्तर से आपको अगले चरण में जाने का अवसर मिलेगा, गलत उत्तर आपका कुछ नुकसान करेगा, ये लाभ हानि होता रहेगा आप खेलना तो शुरू करिए!"

"ठीक है 3 ही चुनते हैं देखते हैं क्या होता है।" सोमदत्त ने मन ही मन सोचा,और 3 अंक वाले चौकोर खाने में चयन कर दिया जैसे ही चयन पूर्ण हुआ, बहुत जोर की ध्वनि हुई, और सामने लाल रंग का मेघ प्रकट हो गया, सोमदत्त देख ही रहे थे तभी तक्षसुर की आवाज़ गूंजी !

"गलत उत्तर!"

अगले ही पल हवा में एक खड़ग प्रकट हुआ और सोमदत्त की बाईं भुजा कटकर धरती पर गिर पड़ी।
सोमदत्त दर्द से कराह कर गिर पड़े।
"सावधान भार्गव!, हर गलत उत्तर आपके अंगभंग कर सकता है, और अभी बहुत से चरण शेष हैं, अब अगला चरण आपको बिना हाथ के ही पार करना होगा, हर सही उत्तर आपको आपके अंग लौटा भी सकता है और हर गलत उत्तर एक और अंग छीन भी सकता है!"

*में तुम्हें जीवित नहीं छोडूंगा तक्षसुर!" सोमदत्त ने पीड़ा और रक्त स्नाव पर नियंत्रण पाते हुए क्रोध में तक्षसुर की ओर देखा, "इसमें मेरी गलती नहीं है भार्गव, आपने अतिआत्मविश्वास में गलत उत्तर चयन किया, अगर आप सही उत्तर चुनाव करते तो यह स्थिति नहीं होती अतएव आपसे निवेदन है कि अगले चरण का उत्तर सोच समझकर दीजिये !"

सोमदत्त ने असहाय सा बातों को सुना, और रही सही शक्ति एकत्रित करके अगले चरण को बढ़ गए।



काल- द्वापरयुग


"रे नीच, अश्वत्थामा!, तू द्रोणपुत्र होकर भी अपने कुकृत्यों से बाज नहीं आया"? अश्वत्थामा जे कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास जी का अतिरोष भरा स्वर सुना।
तनिक स्वयं को संभाल कर अश्वत्थामा बोला; ब्रह्मन ! मैंने मन में रोष भरकर रणभूमि में कुन्तीपुत्रों के वध की इच्छा से इस अस्त्र का प्रयोग करके अवश्य ही बड़ा भारी पाप किया है। परंतु मुझे अब और कुछ नहीं करना अब मेरा लक्ष्य पूर्ण हो चुका है। वेदव्यास ने उसके कृत्य की भर्त्सना की, और अस्त्र को वापस लेने को कहा, अश्वत्थामा पुनः बोला,

"आपकी आज्ञा तो मैं मान लूंगा, यह रही मेरी बात और मेरा वचन, किन्तु यह दिव्यास्त्र से अभिमन्त्रित की हुई सींक तो अगर पांडवो पर नहीं तो पाण्डवों के गर्भस्थ शिशुओं पर गिरेगी; क्योंकि यह उत्तम अस्त्र अमोघ है। भगवान! इस उठे हुए अस्त्र को मैं पुनः लौटा लेने में असमर्थ हूँ। महामुने। अंतः यह अस्त्र में पाण्डवों के गर्भों पर ही छोड़ रहा हूँ। आपकी आज्ञा का में कदापि उल्लंघन नहीं करूंगा।"

व्यास जी ने कहा- "अनघ । अच्छा, ऐसा ही करो। अब अपने मन में दूसरा कोई विचार न लाना। इस अस्त्र को पाण्डवों के गर्भों पर ही छोड़कर शान्त हो जाओ।"

व्यास जी का यह वचन सुनकर द्रोणकुमार ने युद्ध में उठे हुए उस दिव्यास्त्र को पाण्डवों के गर्भों पर ही छोड दिया।

दूसरी ओर पांडवों ने देखा कि उनके समक्ष प्रलयाग्नि समान खड़ा ब्रह्मशिर अस्त्र अदृश्य होने लगा था, साथ में उसके समक्ष खड़ा सहस्रो सूर्यो के समान तेजोमय सुदर्शन चक्र भी अदृश्य हो गया।

भगवान श्रीकृष्ण के कमलनयन क्रोध से दहक रहे थे, तभी उत्तरा दौड़ते हुए आई, "केशव ! मेरी रक्षा कीजिये।" कातर शब्दों में उत्तरा आकर श्रीकृष्ण के चरणों पर गिर गई।
भगवान ने देखा, ब्रह्मशिर अस्त्र का तेज उत्तरा के गर्भ को संताप दे रहा था,

उत्तरा ने व्याकुल स्वर में कहा कि मुझे बचाओ !! मेरी रक्षा करो! आप योग-योगेश्वर हैं. देवताओं के भी देवता हैं. संसार की रक्षा करने वाले हैं. आप सर्व शक्तिमान हैं. यह देखिये प्रज्ज्वलित लोहे का बाण मेरे गर्भ को नष्ट न कर दे. है प्रभो! आप ही मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं.

भगवान श्रीकृष्ण ने अपना दाहिना हस्त उत्तरा के मस्तक पर रखा और अपने दृग बंद कर लिए, सहसा ही उत्तरा को अनुभव हुआ कि उसके अंदर उठ रही अग्नि जो उसके गर्भ ओर आघात कर रही थी, एकदम से रुक गई,

और अंतर्मन में परमसुख अनुभूति होने लगी, अंदर गर्भ में शिशु ने भी अनुभव किया, एक चतुर्भुज रूप निरंतर उसके इर्दगिर्द घूम रहा था, उसके समक्ष कालाग्नि समान एक अस्त्र उसे भेदने में प्रयासरत था, पर श्रीश्यामवर्ण चतुर्भुज रूप उसके सामर्थ्य के परे था। उत्तरा के संताप को समाप्त करके श्रीकृष्ण वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए। अश्वत्थामा और वेदव्यास आपस में बात कर ही रहे थे तभी श्रीकृष्ण की क्रोधपूर्ण आवाज़ सुनकर दोनों चिहुँक कर ध्वनि की दिशा की और पलट गए। "मूढमति, नराधम द्रोणपुत्र, तुम्हें क्या लगता है तुम मेरे रहते पांडवो को हानि पहुँचा सकते हो, सुन ऐ पतित ब्राह्मण, जो गलती तुम्हारे पिता ने करी, उसमे उनका राजधर्म था, राजाज्ञा थी, पर तू जो कर रहा वह मात्र तेरा अहं है, और तू अपने पिता प्रदत्त ज्ञान का दुरुपयोग कर बैठा है, तुझे लगता है तू अस्त्रों के बल पर कुछ भी कर लेगा ? तो सुन ऐ नराधम, पहले की बात है, राजा विराट की कन्या और गाण्डीवधारी अर्जुन की पुत्रवधु जब उपप्लव्य नगर में रहती थी, उस समय किसी व्रतवान ब्राहाण ने उसे देखकर कहा- 'बेटी! जब कौरव वंश परिक्षीण हो जायेगा, तब तुम्हें एक पुत्र प्राप्त होगा और इसीलिये उस गर्भस्थ शिशु का नाम परिक्षित होगा।' उस साधु ब्राह्मण का वह वचन सत्य होगा। उत्तरा का पुत्र परिक्षित ही पुनः पाण्डव वंश का प्रवर्तक होगा।"

सात्वतवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय द्रोणकुमार अश्वत्थामा अत्यन्त कुपित हो उठा और उन्हें उत्तर देता हुआ बोला 'कमलनयन केशव ! तुम पाण्डवों का पक्षपात करते हुए इस समय जैसी बात कह गये हो, वह कभी हो नहीं सकती। मेरा वचन झूठा नहीं होगा। श्रीकृष्ण ! मेरे द्वारा चलाया गया वह अस्त्र विराटपुत्री उत्तरा के गर्भ पर ही, जिसकी तुम रक्षा करना चाहते हो, गिरेगा।' एक पल को अहमपूर्ण वाणी में अश्वत्थामा बोल उठाः " और यह अस्त्र अमोघतम है केशव, इसे कोई नही रोक सकता केशव, इसे कोई नष्ट नहीं कर सकता केशव, तुम भी नहीं..!"

"द्रोणपुत्र!, मैं इसे भी नष्ट कर सकता हूँ!

भगवान श्रीकृष्ण ने क्रोधभरा गर्जन किया और स्वयं वेदव्यास तक कांप गए, अश्वत्थामा उनके तेज़ को देखकर लड़खड़ा कर गिर गया।"परंतु मैं ऐसा नहीं करूँगा, यह ब्रह्मशिर अस्त्र ब्रह्मदेव के पांच सिरों की शक्ति समाहित किया अमोघ अस्त्र है, इसके नष्ट होने से सृष्टि की समस्त मर्यादाएं नष्ट हो जाएंगी, इसलिए मैं इस अस्त्र को नहीं रोकूंगा!"

अश्वत्थामा मूढ़ जैसे सुनता रहा, श्रीभगवान बोले- द्रोणकुमार ! उस दिव्य अस्त्र का प्रहार तो अमोघ ही होगा। उत्तरा का वह गर्भ मरा हुआ ही पैदा होगा; फिर उसे लम्बी आयु प्राप्त हो जाएगी। परन्तु तुझे सभी मनीषी पुरुष कायर, पापी, बारंबार पाप कर्म करने वाला और बाल-हत्यारा समझते हैं। इसलिये तू इस पाप-कर्म का फल प्राप्त कर ले। जाज से तीन हजार वर्षों तक तू इस पृथ्वी पर भटकता फिरेगा। तुझे कभी वहीं और किसी के साथ भी बातचीत करने का सुख नहीं मिल सकेगा। तू अकेला ही निर्जन स्थानों में घूमता रहेगा। ओ नीच! तू जनसमुदाय में नहीं ठहर सकेगा। तेरे शरीर से पीव और लहू की दुर्गन्ध निकलती रहेगी; अतः तुझे दुर्गम स्थानों का ही आश्रय लेना पड़ेगा। पापात्मन ! तू सभी रोगों से पीड़ित होकर इधर-उधर भटकेगा। परिक्षित तो दीर्घ आयु प्राप्त करके ब्रह्मचर्य पालन एवं वेदाध्ययन का व्रत धारण करेगा और वह शूरवीर बालक शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य से ही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करेगा। इस प्रकार उत्तम अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके क्षत्रिय-धर्म में स्थित हो साठ वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करेगा। दुर्मते ! इसके बाद तेरे देखते-देखते महाबाहु कुरुराज परिक्षित ही इस भूमण्डल का सम्राट होगा। नराधम ! तेरी शस्त्राग्नि के तेज से दग्ध हुए उस बालक को मैंजीवित कर दूँगा। उस समय तू मेरे तप और सत्य का प्रभाव देख लेना!" कहकर भगवान श्रीकृष्ण अंतर्ध्यान हो गए ।

अश्वत्थामा की हालत ऐसी हो गई थीं, जैसे समुद्र में रहने वाली मछली को एक अंजुलि जल नहीं मिल रहा हो, उसने अत्यंत कातर भाव से वेदव्यास जी को देखा,

"हे ऋषिवर, देवश्राप और अमरत्व एक साथ लेकर मैं कैसे जीवनयापन करूँगा, मन अतिव्यधित हो रहा है मार्गदर्शन करिए, पाप तो हो गया महात्मन, अब प्रायश्चित भी बता दीजिए!"

अनघ द्रोणकुमार तुम यह अभी भी नहीं समझ पा रहे हो कि तुम्हारे कृत्य इस महासमर में सबसे बड़े कुकर्म बन चुके हैं, परंतु उसके पश्चात भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मात्र तुम्हें जो श्राप दिया है, उसमें ही तुम्हारा उद्धार निहित है, श्रीकृष्ण सबका ध्यान रखते हैं, यहाँ तक कि उनका भी जो उनके परस्पर विरोधी हैं, तुम्हारे निमित्त अवश्य ही उन्होंने कुछ महान उद्देश्य सोच रखा है, जो तुम्हें अभी गोचर नहीं हो रहा है, अतएव धैर्य रखो और सही समय की प्रतीक्षा करो..!!"

अश्वत्थामा ने सिर झुकाकर प्रणाम किया।



कालः कलियुग



सोमदत्त उठ कर खड़े हुए, जीवन मे कभी ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था, परंतु ऐसी विकट स्थिति से बिना जीते वापस आना असंभव था, पर सोमदत्त कोई साधारण इंसान नहीं थे, ऐसी कितनी ही कठिनाइयों से ऊपर उठ कर उन्होंने समाधान निकाला था, एक बार चित्त शांत कर सोमदत्त पुनः तैयार हो गए। उनके मानस में पिछले चरण की असफलता घूम रही थी। बाएं हाथका स्थान रिक्त होने से रक्त बह रहा था, पर सोमदत्त के चेहरे पर बनी हुई दृढ़ता जैसे उनके दर्द पर जीत पा चुकी थी। मैं हार नहीं सकता, मनस्वी की जान खतरे में है, उसे मेरी जरूरत है!"

"भार्गव, अगला चरण शुरू करें? अगर आप आगे बढ़ने को तैयार हैं तो ?"

तक्षसुर ने पूछा।

"हाँ मैं तैयार हूं !"

"तो ठीक है भार्गव, अगर आप सफल रहते हैं तो आप अगले चरण पर पहुच खाएंगे, गलत उत्तर आपका पुनः कोई अंग काटकर ले जाएगा और स्मरण रहे, अब आपका एक हाथ कट चुका है तो आप अपने दिव्य धनुष का प्रयोग तो कर ही नहीं सकते !" "मेरा एक प्रश्न था तक्षसुर!" सोमदत्त ने कुछ सोचते हुए कहा। "पूछिये!" तक्षसुर ने तनिक अचंभित होकर पूछा। "क्या मैं अपने मित्रों से संपर्क कर सकता हूँ?" "ओह्ह्न, आप अतिरिक्त सहायता लेना चाहते हैं भार्गव, यह तो नियमों के विरुद्ध है, यह नहीं हो सकता!" "मैं केवल बात करना चाहता हूँ, रास्ता तो मैं स्वयं निकालूंगा और किसी और को इस तिलिस्म में नहीं लाऊंगा!" "हाहाहा, आपकी बात में मुझे तर्कहीनता और विनोद प्रतीत हो रहा भार्गव, अंगर आप सहायता नहीं लेना चाहते, किसी और को यहाँ नहीं लेना चाहते तो फिर क्या बात करना चाहेंगे? " वो तुम नहीं समझ पाओगे, क्योंकि तुम दानव हो, और हम मनुष्य!" कहकर सोमदत्त मुस्कुरा दिए। एक पल को तक्षसुर उनकी मुस्कान देख कर सोच में पड़ गया। "विलक्षण पुरुष है यह, बांह कट गई है, परंतु मुस्कुराते हुए बात कर रहा है, अब समझ में आ रहा मुझे इसे उलझाने का कार्य क्यों दिया गया था!"

तक्षसुर ने मन ही मन सोचा।

"ठीक है आप महान मनुष्य लोग ही यह सब जानो, पर सनद रहे, कुछ भी अतिरिक्त सहायता आपने मांगी तो संपर्क कट जाएगा!" सोमदत्त ने हामी भर दी। "पर एक और शर्त है!, आपको कम से कम एक चरण स्वयमेव ही साफलतापूर्वक संपन्न करना होगा, तभी आपको अतिरिक्त सांत्वना पुरस्कार जैसे इस संपर्क की सुविधा दी जाएगी!"

"मुझे स्वीकार है!" अगला चरण आरंभ करो

"तो ठीक है, अगला प्रश्न आपके समक्ष यह रहा!"

द्वितीय प्रश्न प्रकट हुआ, सोमदत्त की नजरें फिर से उलझन में पड़ने लगी प्रश्न 2: 1*3= ? सोमदत्त के सामने विकल्प खुलने लगे 1,3,5,0 "तो इस बार 4 विकल्प दे दिए तुमनें?" "हर चरण अपने पिछले चरण से कठिन होगा भार्गव" सोमदत्त ध्यान से सोचने लगे, एक सही उत्तर उन्हें आगे बढ़ा सकता था, और एक गलत उत्तर उन्हें और ज़्यादा घायल कर सकता था,"कुछ सही ढंग से समझ आना मुश्किल हो रहा है, 1*3 का उत्तर तो इनमें से कुछ भी हो सकता है, परंतु वह कड़ी कौन सी है जो इन सवालो को जोड़ रही है?" तभी सामने एक घड़ी चलने लगी, "30 पलो का समय है भार्गव, मैंने कहा ही था यह चरण और कठिन है!" सोमदत्त तेज़ी से सोचने लगे, 1*31 होगा तो क्यों, 1 मतलब 1 संसार, 3 त्रिदेव, 1 शिव 3 आंखें, 1 शरीर त्रिनेत्र, 3 गुण, पर यहाँ क्या होगा..!!" सोमदत्त इस समय गणना के लिए तैयार ना थे, 30 पल बीत गए पर सोमदत्त उत्तर ना सोच पाए, और 3 पर ही चुनाव कर दिया। एक जोर का गर्जन हुआ और वातावरण एक बार फिर लाल रंग के धुएं से भर गया। "गलत उत्तर!, हैरान हूं मैं।" तक्षसुर की आवाज़ में निराशा और आश्चर्य दोनों मिश्रित थे, सोमदत्त हक्के बक्के से रह गए और उसी लाल रंग के धुंए से एक और खड्ग जाकर सोमदत्त की दाहिनी भुजा को काटकर अदृश्य हो गया। असहनीय पीड़ा से कराहते हुए सोमदत्त गिर पड़े, दोनों हाथ खो देने से और अति मात्रा में रक्त बह जाने से, सोमदत्त कमज़ोरी थकान और निराशा महसूस करने लगे थे।
"हैरान हूं कि आपके बारे में जितना सोचा था उससे आप पूरे उल्टे निकले भार्गव, कदाचित मित्र के प्राण की चिंता आपको सोचने समझने नहीं दे रही है, हम्म्म?"

तक्षसुर ने कहते हुए सोमदत्त को देखा, रक्त स्वेद से लथपथ सोमदत्त आश्चर्यजनक रूप से स्थिरचित्त होकर खड़े थे। "आगे बढ़ेंगे भार्गव, या फिर हार मान ली है आपने ?" सोमदत्त जो हार ना मानने वालों में से थे, आंखें बंद करके खड़े थे, मुस्कुराते हुए बोले,

"मैं समझ गया!"

"क्या समझ गए आप ?" तक्षसुर ने चुनौतिपूर्ण लहजे में कहा। सोमदत्त ने कनखियों से उसे देखा, दोनों हाथ कट गए थे, पर वही दृढ़ता जिसने पूर्व में उन्हें विजय दिलाई थी फिर से झलक रही थी। "वेद अध्ययनं सर्व समाधनं !" अगला चरण प्रारंभ करो...! क्या सोमदत्त को रास्ता मिल गया था?



अंजान स्थल



"मूर्तिपूजा, मूर्ति की उपासना एक भटकाव है, मात्र कुछ सिद्दी पाएं अहं से भरे लोगों को देवताओं की उपाधि देना, देवविरुद्ध है धर्मविरुद्ध है!"

भैरव के मुख से रोशनी निकल रही थी। उस भयानक आकृति ने भैरव के बालों को कसकर मुठ्ठी में दबोचा और कहा, "प्रशंसा करनी होगी, इस तरह से इस गुप्त विद्या को तुम देवताओं ने गुह्य तरीक़े से संरक्षण कर रखा है, पर तुम्हें ज्ञात है भैरव, प्रतिबंधित आयाम से कुछ भी छिपा नहीं रहता, वहाँ से सब गोचर होता है, और अब, जो कार्य पापविग्रह ने निश्चित किया था, अब वो पूर्ण होकर रहेगा।
कहकर वह आकृति भैरव मुख लेकर उस द्वार में प्रवेश कर गई। जहाँ सोमदत्त मनस्वी को तिलिस्ममुक्त करने में संघर्षरत थे, वहीं उनके विपरीत शत्रु अपना रास्ता पाने में सफल हो रहे थे।


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