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ब्रम्हशिर - पार्ट 2



काल द्वापरयुग


सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पहले उस रथ पर सवार हुए। पराक्रमी अर्जुन तथा कुरुराज युधिष्ठिर उस रथ पर बैठे। वे दोनों महात्मा पाण्डव रथ पर स्थित हुए शांर्ग धनुषधारी श्रीकृष्ण के समीप विराजमान हो इन्द्र के पास बैठे हुए दोनों अश्विनीकुमारों के समान सुशोभित हो रहे थे। वे तीनो नरश्रेष्ठ बड़े वेग से पीछे-पीछे दौड़कर क्षणभर में महाबली भीमसेन के पास जा पहुँचे। कुन्तीकुमार भीमसेन क्रोथ से प्रज्वलित हो शत्रु का संहार करने के लिए तुले हुए थे। इसलिए वे तीनों महारथी उनसे मिलकर भी उन्हें रोक न सके। उन सदृढ़ धनुर्धर तेजस्वी वीरों को देखते देखते वे अत्यंत वेगशाली घोड़ों के द्वारा भागीरथी के तट पर जा पहुँचे, जहाँ पाण्डवों के पुत्रों का वध करने वाला अश्वत्थामा बैठा सुना गया था। वहाँ जाकर उन्होंने गंगा जी के जल के किनारे वेदव्यास के 27वे अवतार महात्मा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास को अनेकों महर्षियों के साथ बैठे देखा। उनके पास ही वह क्रूरकर्मा द्रोणपुत्र भी बैठा दिखायी दिया। उसने अपने शरीर में घी लगाकर कुश का चीर पहन रखा था। उसके सारे अंगों पर धूल छा रही थी। कुन्तीकुमार महाबाहु भीमसेन बाणसहित धनुष लिये उसकी ओर दौड़े और बोले- 'अरे! खड़ा रह, खड़ा रह...! अश्वत्थामा ने देखा कि भयंकर धनुर्धर भीमसेन हाथ में धनुष लिये आ रहे हैं। उनके पीछे श्रीकृष्ण के रथ पर बैठे हुए दो भाई और हैं। यह सब देखकर द्रोणकुमार के हृदय में बड़ी व्यथा हुई। उस घबराहट में उसने यही करना उचित समझा। अश्वत्थामा ने उस दिव्य एवं उत्तम अस्त्र का चिन्तन किया। साथ ही बायें हाथ से एक सींक उठा ली। दिव्य आयुध धारण करके खड़े हुए उन शूरवीरों का आना वह सहन न कर सका। उस आपत्ति में पड़कर उसने रोषपूर्वक दिव्यास्त्र का प्रयोग किया और मुख से कठोर वचन निकाला कि- 'यह अस्त्र समस्त पाण्डवों का विनाश कर डाले। ऐसा कहकर प्रतापी द्रोणपुत्र ने सम्पूर्ण लोकों को मोह में डालने के लिए वह अस्त्र छोड़ दिया। तदनन्तर उस सींक में कान, अन्तक और यमराज के समान भाग प्रकट गयी।
भगवान श्रीकृष्ण अश्वत्थामा चेष्ठा से ही उसके मन का भाव पहले ही ताड़ गये थे। उन्होंने अर्जुन से कहा- 'अर्जुन ! अर्जुन ! पाण्डुनंदन ! आचार्य द्रोण का उपदेश किया हुआ जो दिव्यास्त्र तुम्हारे हृदय में विद्यमान है, उसके प्रयोग का अब यह समय आ गया है। भरतनंदन! भाइयों की और अपनी रक्षा के लिए तुम भी युद्धमें इस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करो। अश्वत्थामा के अस्त्र का निवारण इसी के द्वारा हो सकता है।' भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन धनुष-बाण हाथ में लेकर तुरंत ही रथ से नीचे उतर गये। शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन ने सबसे पहले यह कहा कि 'आचार्यपुत्र का कल्याण हो।'। तत्पश्चात अपने और सम्पूर्ण भाईयों के लिए मंगलकामना करके उन्होंने देवताओं और सभी गुरुजनों को नमस्कार किया। इसके बाद 'इस ब्रह्मास्त्र से शत्रुओं का ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाये' ऐसा संकल्प करके सबके कल्याण की भावना करते हुए अपना दिव्य अस्त्र छोड़ दिया। उन दोनों अस्त्रों के तेज समस्त लोकों को संतप्त करते हुए वहाँ स्थित हो गये। उस समय वहाँ सम्पूर्ण भूतों के आत्मा नारद तथा भरतवंश के पितामह व्यास इन दो महर्षियों ने एक साथ ब्रम्हास्त्रों के बीच जाकर दोनों अस्त्रों को रोक दिया, देवता और सप्तर्षि भी प्रकट हो गए। उन सबने अश्वत्थामा की निंदा की और अजीम से अस्त्रों को शांत करने को कहा। अर्जुन ने हाथ जोड़कर महर्षियों से कहा- 'मुनिवरों। मैंने तो इसी अपने अस्त्र के तज से अवश्य हो हम सब लोगों का मस्स कर डालगा, परतु अगर यह आपकी आज्ञा है तो ऐसा ही सही। ऐसा कहकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया। दोनों ब्रम्हास्त्रों के टकराव से भीषण ऊर्जा उत्पन्न हुई और अर्जुन ने भौचक्के खड़े अश्वत्थामा को बंदी बना लिया।
श्रीकृष्ण बोले, "हे अर्जुन ! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।"
श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, "हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते ! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।



काल कलियुग



धर्म और अधर्म के बीच संतुलन को स्थापित रखने के लिए आदिकाल से युद्ध होता आया है, धर्म ने सदा ही उच्च उद्देश्य के कारण विजय प्राप्त की है, परंतु जैसे हर युद्ध विनाश की पाती लेकर आया है, युद्ध के परिणाम बहुत सारे अलग रास्तों को खोल देते हैं, सत्य ऊर्जा और असत्य ऊर्जा दोनों ही सृष्टि की शास्वत और गतिशील प्रक्रिया है. किसी का भी समूल नाश संभव नहीं और किसी का सम्पूर्ण प्रभाव भी संभव नहीं है।
पुनरुथान पाए हुए असुर शंख के चिरंजीवियों से युद्ध के समाप्ति के बाद भी उस युद्ध के परिणाम विश्व में असर डाल रहे थे। शंख के संग्राम में खेत रहने के बाद भी युगश्राप ने अपनी शक्ति से पृथ्वी में मलिनता भर दी थी। और सोमदत्त जैसे जैसे वापस उस युद्ध क्षेत्र की और पास पहुँच रहे थे, उन्हें उस मलिनता का आभास हो रहा था।
डॉ मनस्वी के असिस्टेंट लोगों ने उस क्षेत्र से थोड़ी दूरी पर खेमे बना लिए थे। सोमदत्त के आने की खबर उनको मिल गई थी, मनस्वी के कारण सब उन्हें पहचानते थे जैसे ही सोमदत्त वहाँ पहुँचे सारे असिस्टेंट बाहर आ गए। सोमदत्त ने देखा सबके चेहरे चिंता से भरे हुए थे, उन्होंने सबको आश्वासन दिया, सबने उनका अभिवादन किया। सबका अभिवादन स्वीकार करके सोमदत्त उस क्षेत्र की ओर जाने लगे, "श्रीमान सोमदत्त!" एक असिस्टेंट ने पुकारा। "हा बोलना?" सोमदत्त पलट गया. "आपने रेडिएशन सूट नहीं पहना है!" सोमदत्त के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई, "आप घबराइए मत, मैं आता हूं मनस्वी को लेकर !" असिस्टेंट के कुछ और बोलने से पहले सोमदत्त आगे चले गए। एक असिस्टेंट ने आगे बढ़ना चाहा पर दूसरों ने उसे रोक दिया "क्यो हीरो बनने चला है, डॉ मनस्वी ने अपने इस दोस्त के बारे में बड़ी बड़ी कहानियां बताई है कि ये सुपर हीरो जैसे है, आज देखते हैं!" और शायद इस हरकत ने उन सबकी जान बचा ली। सोमदत्त उस क्षेत्र में घुस तो गए थे, पर उन्हें हवा में मलिन ऊर्जा की उपस्थिति अनुभव हो रही थी। सोमदत्त को चलते चलते प्रतिरोध महसूस होने लगा। "यह कुछ विचित्र सी ऊर्जा है, ना ही आसुरी गुण है ना कोई परिचित राक्षस गुण, इसका परीक्षण करना होगा!" सोमदत्त ने एक मशीन में कुछ रीडिंग्स निकाली और माधवी और विघ्नेश को संपर्क किया,"विघ्नेश, जरा इन रीडिंग्स को विश्लेषण करके बताना, पता तो चले हमारा सामना किससे है?" "जी भार्गव 2 मिनट!" चिर परिचित जवाब आया। "नमसे ही तो "मेरे लिए कुछ कार्य भार्गव?" माधवी ने पूछा।"तुमसे ही तो मुख्य कार्य है माधवी ! यहां की वायु में कुछ विलक्षण ऊर्जा है, और शायद मेरी दैवीय इंद्रियां भी उसको समझ नही पा रही है, मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए!"
"ठीक है भार्गव, कहकर माधवी, आचार्य के पास से उठकर दूसरे कमरे में आ गई, जहाँ उसका तंत्र करने का सामान रखा हुआ था, एक कटोरे में ठंडा पानी भरके माधवी ने हाथ में एक बाल लिया और उसे पानी में भीगा लिया,"भार्गव आपके कंधे से मैंने एक बाल निकाल लिया है अब आप वहाँ अपना एक बाल तोड़कर अपने बाये और एक पत्थर के नीचे दबा कर आँख बंद रखिये।" सोमदत्त ने वैसा ही किया। माधवी ने भीगे हुए बाल को हाथ में लेकर मंत्र जपना शुरू कर दिया। अचानक से उस कमरे में गर्मी बढ़ने लगी, अनपेक्षित रूप से मंत्र पढ़ते पढ़ते माधवी के चेहरे से पसीने की धाराएं बहने लगी, उसके मंत्रोच्चार में कंपन आने लगा, पर माधवी ने मंत्रोच्चार नहीं रोके, पर जैसे उसे उस वायु में घुटन महसूस होने लगी, माधवी को आ रही दिक्कत को सोमदत्त ने अनुभव कर लिया था, उन्होंने आंखें खोलने की कोशिश की पर माधवी ने मानसिक संदेश भेजकर मना किया। "नहीं भार्गव, आंखें ना खोलियेगा मेरे प्राण चले जायेंगे!" विवश होकर सोमदत्त ने आंखें बंद रखी,अपने आसपास आ रहे प्रतिरोध को माधवी पूर्ण इच्छाशक्ति का प्रयोग कर अपने मंत्रोच्चार को जारी रखी हुई थी, परंतु विपरीत ऊर्जाओं के दबाव से उसके नाक से खून गिरने लगा, और उसी समय माधवी ने हाथ में रखे गीले बाल को जमीन पर पटक दिया। सोमदत्त और माधवी दोनों के ही पास रखे हुए बाल के टुकड़े बड़ी तेजी से जलने लगे, जहाँ सोमदत्त को कुछ समझ नहीं आ रहा था, माधवी अतिचिन्तित हो उठी थी। "भार्गव, बहुत विकट समस्या आन पड़ी है!" "क्या हुआ माधवी !?, तुम ठीक तो हो?" माधवी अपने नाक से निकले खून को साफ करती हुई बोली, "आप जिस ऊर्जा को अनुभव कर रहे हैं, वह ऊर्जा इस युग में पृथ्वी पर प्रथम बार आई है!" "क्या मतलब है तुम्हारा?" "मैंने इसके बारे में बस एक बार सुना था भार्गव, यह ऊर्जा युगों पहले प्रतिवथित आयाम में कैद की गई थी, और इस ऊर्जा का हमारे युग में आना आश्चर्यजनक है!" "प्रतिबंधित आयाम?, क्या है ये?" "इसके बारे में ज़्यादा नहीं पता भार्गव, पर यह जो भी है, हमारे पास इससे निपटने के उपाय नहीं है, हमारे तंत्रो में इस आयाम के बारे में ज़्यादा कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए हमें जल्दी ही कुछ करना होगा!" "तुम्हारी बातों से मुझे खतरे का अंदेशा हो रहा है, तुम मनस्वी की उपस्थिति ढूंढने की कोशिश करो, मैं जल्दी से उसे वापस पाना चाहता हूं!" सोमदत्त की धड़कनें तेज़ हो रहीं थी।


काल: द्वापरयुग


द्रौपदी की बातों को सुनकर उस शिविर में उपस्थित हर किसी का दिल पसीज गया सबने उनकी प्रशंसा की, स्वयं अश्वत्थामा की आंखों से अश्रु बहने लगे,जैसे एक पल को उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा, 'इस महादेवी के पुत्र मारे उसने.!" अश्वत्थामा पश्चाताप की भावना में भर रहा था तभी वहां पाण्डुपुत्र भीम का गर्जन सुनाई दिया,भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण की ओर पलट कर भीम बोले, "प्रभु, याज्ञसेनी दयालु हो सकती है, परंतु इससे इस अधम के कर्मो का निर्णय निर्धारित नहीं हो जाता, इसनें हमारे सैनिकों, हमारे पुत्रों को, स्वयं सेनापति धृष्टद्युम्न को मारा है, इसे क्षमा दान नहीं दे सकते प्रभु, अगर कोई कुछ नहीं करेगा तो में इसका वध कर डालूंगा!" इस पर श्रीकृष्ण ने पहले उनको शांत किया और अर्जुन की ओर मुड़े, "हे अर्जुन। शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।" उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से यह व्यहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया। अति दुखी अवस्था में सारे पांडव अपने मृत परिजनों के संस्कार करने में व्यस्त हो गए। उधर अश्वत्थामा वन में भटकते हुए जा रहा था, पांडवों द्वारा किये गए अपमान से जैसे उसके मन में प्रतिशोध की अग्नि जल रही थी, एक पल को - उसके सामने द्रौपदी का चेहरा घूम गया, और उसके अंदर का क्रोध शिथिल पड़ गया। परंतु जिस प्रकार अस्थिर चरित्र वाला पुरूष कभी एक बात पर अटल रहकर विवेक पूर्ण निर्णय नहीं ले पाता, उसी प्रकार क्षोभ, अपमान, और क्रोध में भरा अश्वत्थामा द्रौपदी के क्षमादान को भूल गया।अश्वत्थामा आचार्य द्रोण का पुत्र था, उसका दिव्यास्त्र ज्ञान आचार्य के ही समकक्ष था, आचार्य ने अपने पुत्र को दिव्यास्त्र ज्ञान देंने में कोई संकोच नहीं रखा था, क्रोध में अश्वथामा गरज उठा, "मैं ऐसा अस्त्र संधान करूंगा जिसकी काट पांडवों के पास भी संभव नहीं होगी, पांडव क्या स्वयं वासुदेव कृष्ण के पास भी नहीं होगी.." कहते कहते अश्वत्थामा ठिठक गया, आचार्य के संग्राम में खेत रहने के पश्चात उसने पांडव सेना पर अमोघ नारायणास्त्र का प्रयोग किया था, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने विवेकपूर्ण तरीके से शांत करवा दिया था। "कौन सा अस्त्र प्रयोग करूँ, कोई ऐसा जिसकी काट असंभव हो,!" सोचते सोचते अश्वत्थामा को वह दिन याद आ गया जब आचार्य ने उसे एकांत में बुलाया था। "प्रणाम पिताश्री, आज आपने मुझे यहाँ क्यों बुलाया है, हम दिव्यास्त्र प्रशिक्षण तो आश्रम में ही कर सकते थे!" "ऐसा इसलिए पुत्र क्योंकि आज मैं तुम्हें वह अस्त्र देने जा रहा हूँ जो मैंने किसी को नहीं दिया!" अस्त्रों के ज्ञान के लिए अश्वत्थामा प्रारंभ से ही उत्सुक रहता था। "कौन-सा अस्त्र पिताश्री!" "इस अस्त्र को संधान करना अति दुर्लभ है पुत्र, यह पाशुपत अस्त्र समान अमोघ है, यह अस्त्र ब्रम्हास्त्र से भी शक्तिशाली है, इसका ज्ञान मैंने केवल अर्जुन को दिया है और आज तुम्हें दे रहा हूँ, इस अस्त्र को शांत नहीं किया जा सकता, काटा नही जा सकता, अगर यह लक्ष्य पर छोड़ दिया गया तो यह अपना कार्य पूरा करके ही लौटता है।" "वाह!" सुनकर अश्वत्थामा की आंखों मे चमक आ गई। "इस अस्त्र का क्या नाम है पिताश्री?"

"ब्रह्मशिर अस्त्र!"

"हाँ!, ब्रम्हशिर अस्त्र!"

सोचते हुए अश्वत्थामा अतीत से बाहर आ गया। आज ब्रम्हशिर अस्त्र पांडों का समूल नाश कर देगा कहकर द्रोणकुमार ने उस अदभुत अस्त्र का स्मरण किया, जैसे ही वह अस्त्र अश्वत्थामा के धनुष पर प्रकट हुआ, वहा का वातावरण एक भीषण प्रकाश से आलोकित हो उठा, और आकाश में गर्जन हो उठा। इस उर्जाप्रकाश को अपने पुत्रों का अंतिम संस्कार करते हुए पांडवों ने भी देखा, और उनके साथ खड़े योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी, पांडवों को तो उस प्रकाश का कारण समझ ना आया था, पर श्रीकृष्ण उस ऊर्जा को पहचानते थे, और उनकी मुट्ठियां कस चुकी थी।


समय: वर्तमान



माधवी द्वारा सूचित किये जाने के पश्चात सोमदत्त परेशान हो उठे थे, "माधवी मैं मनस्वी को लेकर आता हूँ, तब तक तुम अपना और आचार्य का ध्यान रखना!" कहकर उन्होंने माधवी से संपर्क काटा और तेजी से आगे की ओर बढ़ चले। तब तक उनके पास विघ्नेश का संदेश आयाः भार्गव हवा में रेडियोधर्मी कणों की बाहुल्यता है, ऐसा लग रहा है यूरेनियम का आण्विक विघटन हुआ है, पर जो तत्व मिल रहे हैं वो आण्विक विघटन के बाद निकलने वाले तत्वों से ज्यादा संचित ऊर्जा है।" "मुझे मालूम चल गया था विघ्नेश, यह कोई दूसरी ऊर्जा है इसलिए इसका ऊर्जा स्तर वैज्ञानिक पैमानों से ज़्यादा है, और कुछ?" "एक अनजान तत्व मिला है भार्गव, इसका रंग श्याम वर्ण है,और इसका नाभिक का घनत्व किसी भी प्राकर्तिक तत्व से ज़्यादा है, समझ मे नही आ रहा इसकी ऊर्जा तो सूर्य के सतह स्तर की है पर इसका तापमान शून्य से कई डिग्री नीचे है! यह मेरे समझ के परे है भार्गव !" "कोई बात नहीं मैं देखता हूं!" सोमदत्त उस गड्ढे के पास आकर खड़े हो गए थे, जिस स्थान पर श्रापविग्रह स्थित था वहां पर लाल रंग का उर्जामंडल स्थित था, सोमदत्त ने ध्यान से देखा, उसके केंद्र में एक श्याम वर्ण का वृत लगातार बन रहा था और गायब हो रहा था। "क्या है यह।" कही कोई श्याम विवर (black hole) तो नहीं बन गया "नहीं, नहीं, नहीं श्याम विवर नहीं यह द्वार है आपके मित्र तक पहुँचने का भार्गव, हाहाहा!" उस मंडल से आवाज़ आई। "कौन हो तुम?!" सोमदत्त ने क्रोध में पूछा "मैं कौन हूँ?, अरे आपने तो सब पता कर ही लिया है मैं कौन हूँ, मैं प्रतिबंधित आयाम से हूँ भार्गव, सब कुछ परीक्षण करके और फिर भी पूछना, क्या कलियुग में एक ही बात बारम्बार पूछी जाती है?" " क्या चाहते हो तुम?" "फिर से एक प्रश्न, ठीक है, बताता हूँ, मुझे ताले चाबी का खेल अतिप्रिय है भार्गव, पहले एक चीज़ को छुपा दो और फिर प्रतिभागी को चुनौती दो, यही काम में सदियों, युगों से करता आया हूं, बहुत दिन से बंदी था तो मुक्त होते ही सोचा कि जिसके उपक्रम से मेरे बंधन टूटे हैं तो उसके लिए कुछ आभार कर्तव्य तो बनता ही है इसलिए सोचा कि प्रारंभ आपके मित्र से करूँ !" सोमदत्त ने अनुभव कर लिया था कि सीधे बातों से कुछ नहीं होने वाला, इसलिए उन्होंने सीधे ही अपने धनुष को आह्वान करते हुए कहा, पिनाकपाणि महेश: शंभू कैलाशपति शंकरा। सुंदर उमापति गौरासा द्वारा पूजित वस्त्र के रूप में आते हैं। हवा चल रही थी, शीतलता मंद थी, उलझे हुए बाल चंद्रमा की पराकाष्ठा थे। पर्वतों का स्वामी बाघ का वस्त्र पहने हुए है और पर्वत की चोटी पर बैठा है। उस दिव्य मंत्र के उच्चारण से ही उनके हाथ में वो अमोघ भगवान पुरारी का धनुष आ चुका था जिसकी प्रत्यंचा की टंकार मात्र से असुरों के हृदय कांप जाते थे, उस धनुष के प्रकट मात्र होने से वहां प्रकाश फैल गया। "यह सृष्टि कोई क्रीड़ा करने की वस्तु नहीं है कि तुम इसके क्रियाकलापों में बाधा दो, जिस आयाम से आये हो उसी में वापस चले जाओ, और मेरे मित्र मनस्वी को मुक्त कर दो, अन्यथा तुम्हारे प्राण भी नहीं बचेंगे!" सोमदत्त ने क्रोध भरे स्वर में कहा। "यह क्या!? मैंने तो आपके साथ थोड़ा सा विनोद किया और आप दिव्यास्त्रों को बीच में डालने लगे, चलिए हम नाराज़ हो गए, अब नहीं खेलेंगे!" कहकर वह आवाज शांत हो गई, और वह लाल वर्ण उर्जामंडल गायब हो गया। सोमदत्त भौचक्के खड़े देखते रह गए, दौड़कर इधर उधर देखा पर उन्हें कुछ दिखाई नहीं दिया। इस सारे घटनाक्रम को वह रहस्यमयी प्राणी जिसने रघुबीर को मार दिया था, ध्यान से देख रहा था। "तक्षसुर ने सोमदत्त को उलझा रखा है, अब हमें भी अपना कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए, कहकर उस आकृति ने उस द्वार को पुनः खोला जहाँ पर रक्षक भैरव बंदी बना हुआ था। "ह्मम्म, रक्षक भैरव, कार्य प्रारंभ करते है, चलो !" "कदापि नहीं!" उस भैरव ने बहुत संघर्ष किया पर उसकी एक ना चली। उस रहस्यमय आकृति के हाथ में एक तलवार चमकी, और भैरव का सिर धड़ से अलग हो गया। रक्षक भैरव के सिर कट जाने के पश्चात भी धड़ में जान बाकी थी। सिर कटते ही बहुत तेज़ रोशनी हुई और एक पल को कुछ भी दिखना असंभव हो गया, जब रोशनी देखने लायक हुई तब उस आकृत्ति का अट्टहास सुनाई दिया, "हाँ, तो भैरव, तुम्हारे समक्ष 9 दिशा सूचक चिन्ह दिख रहे हैं, बताओ कौन से चिन्ह को पहले पकड़ कर शुभारंभ करें। भैरव के मुंह से एक रोशनी निकली और एक चिन्ह पर जा टकराई, जैसे ही प्रकाश ने उस चिन्ह को पूरी तरह आलोकित किया, सामने एक दरवाजा दिखने लगा, उस रहस्यमय आकृति ने विजयी मुस्कान के साथ देखा, "चलो भैरव, तुम्हें तुम्हारे कार्यबोझ से मुक्त करते हैं!" उधर सोमदत्त उलझन में खड़े थे, फिर उन्हें मनस्वी का ध्यान आया, "मेरा दोस्त मुसीबत में है!" सोचते हुए सोमदत्त ने धनुष तान लिया, "ऐ दुष्ट राक्षस, तुझे खेलने का शौक है ना तो पहले सामने आ !" कहकर सोमदत्त ने अदृश्य भंजन अस्त्र छोड़ दिया। उस दिव्य अस्त्र ने तक्षसुर की माया नष्ट कर दी और वह सामने आ गया। सोमदत्त के अपेक्षा के विपरीत, वह असुर बड़े आराम से खड़ा था। "अरे भार्गवं, मैं बड़ा अच्छा दानव हूँ, मैं हिंसा नहीं करता, मैं बस विनोद करता हूँ, आपको आपका मित्र चाहिए, हम्म?, मिल जाएगा!, परंतु आपको मेरी पहेली सुलझानी होगी, और अगर आप पहेली नही सुलझा पाए तो आपका मित्र मेरा भोजन बन जायेगा, एकदम सीधी सी बात है, अब इतने अच्छे दानव को क्या आप कुछ भोजन भी नहीं करने देंगे, हाहाहा!" "विचित्र असुर है, पर यह चालाक भी है!" "मैं तुम्हारा विश्वास क्यों करूँ!? तुम राक्षस कभी वचन के पक्के..." "नहीं, नहीं, नहीं!" सोमदत्त की बात बीच में काटते हुए तक्षसुर बोला, "लीजिये, मैं अपने रक्त से वचन देता हूँ, कि मैं अपनी बात से नहीं बदलूंगा, पर प्रिय भार्गव, आपको खेल तो खेलना होगा!" "और अगर मैं ना खेलूं तो?" सोमदत्त ने तनिक चिढ़ कर पूछा, उन्हें अहसास हो रहा था कि तक्षसुर उन्हें बातों में उलझा रहा था।
"तो फिर तीन युगों से भूखा दानव आपके मित्र को जलपान में ग्रहण कर लेगा, हाहाहा।, और रही बात, असुर या राक्षस के वचन ना मानने की, तो भार्गव में दानव हूं राक्षस या असुर नहीं, हमारी माता दनु ने हमें झूठ बोलना नहीं सिखाया !" तक्षसुर के वाक कौशल ने एक पल को सोमदत्त को उलझन में डाल दिया, "बताओ क्या करना है, परंतु एक बात याद रखना, अगर मनस्वी को कुछ हुआ, तो महादेव की सौगंध, तुम्हें जीवित नहीं छोडूंगा!" "हाहाहा, अरे भार्गव, अगर आप मेरी पहेली सुलझा लें तो बस आप और आपका मित्र अपने रास्ते, मैं अपने रास्ते!" "इस दानव को भी मनस्वी के मुक्त होते ही कुछ प्रबंध करना होगा!" सोमदत्त

मन ही मन सोचा.

"ठीक है क्या है पहेली?!"

"उम्म, इसके लिए आपको मेरे बनाये इस वृत में आना होगा!" तक्षसुर ने तुरंत ही सोमदत्त के सामने एक वृत बनाया। "तुम मेरे साथ कोई खेल खेल रहे हो!" "नहीं भार्गव, अगर आपको विश्वास नहीं है तो अपने आप को अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित करके वृत में आइये, मैंने थोड़ी कहा कि आपको निहत्थे होकर आना है, हाहाहा!" इतना कह कर वह रहस्यमयी दानव हंसने लगा, सोमदत्त उलझन में पड़ रहे थे कि उसपर विश्वास किया जाए या ना किया जाए, पर चूंकि सवाल मनस्वी के प्राणों का था, इसलिए सोमदत्त मना भी नहीं कर सकते थे, "ठीक है।" कहकर सोमदत्त वृत में आकर खड़े हो गए। "बहुत अच्छे, अब हम शुभारंभ करते हैं, भार्गव, आपको मेरी शुभकामनाएं कि आप जीत कर ही वापस आएं!" "वापस?" सोमदत्त ने बस इतना कहा था, कि वहाँ एक प्रचंड विस्फोट हुआ, इतना प्रचंड कि वहाँ का पूरा वातावरण मानो काँप उठा।
सोमदत्त उस विस्फोट की तीव्रता से बहुत तीव्र गति से दूर फेंका गए थे, उस विस्फोट ने उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया, बड़ी मुश्किल से होश संभाल कर आंखें खोली, चेहरे पर आई खून की धाराएं पोछ कर इधर उधर देखा तो कुछ दिखाई नहीं दिया, पूरा वातावरण लाल रंग के धुएं से सराबोर था, जिसमे कुछ भी देख पाना असंभव था, उसी समय उस दानव का घोर अट्टहास सुनाई दिया,

"खेल प्रारंभ हो चुका है भार्गव ! हाहाहा!"

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