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ब्रम्हशिर - पार्ट 1

मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।

भावार्थः

प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत् को रचती है। हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतुसे जगत् का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, दुर्योधन के संग्राम में धराशायी होने के पश्चात कृतवर्मा, अश्वत्थामा और कृपाचार्य युद्धभूमि से अलग वन को प्रस्थान कर गए थे। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था। उस भयंकर बेला में दुख और शोक से संतप्त हुए कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा
अश्वत्थामा एक साथ ही आस-पास बैठ गये। वटवृक्ष के समीप बैठकर कौरवों तथा पाण्डव योद्धाओं के उसी विनाश की बीती हुई बात के लिये शोक करते हुए वे तीनों वीर निद्रा से सारे अंश शिथिल हो जाने के कारण पृथ्वी पर लेट गये। उस समय वे भारी थकावट से चूर-चूर हो रहे थे और नाना प्रकार के बाणों से उनके सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे।
भारी थकान के कारण कृतवर्मा और कृपाचार्य जल्दी ही सो गए, पर अश्वत्थामा को क्रोधवश नींद नहीं आ रही थी।
अश्वत्थामा ने देखा कि उस पेड़ पर बहुत से कौंवे सुखपूर्वक नींद में सोए हुए थे, तभी एक पिंगल्वर्ण उल्लू उधर आ बैठा, वह अतिबलशाली उल्लू सोये हुए कौवो पर झपट पड़ा, और पल भर में ही उसने बहुत सारे कौवों को मार डाला, उल्लू के इस कर्म को देखकर अश्वत्थामा प्रसन्न हो गया, जैसे उसे दुर्योधन के समक्ष पांडवों का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा पूरी करने का साधन मिल गया था, उसने तुरंत कृपाचार्य और कृतवर्मा को जगाकर इसपर विमर्श किया,
कृपाचार्य ने इसका विरोध किया पर अश्वत्थामा मानने को तैयार नहीं हुआ, अपने पिता का धृष्टद्युम्न द्वारा निर्मम वध उसे मन में लगातार क्षुब्ध कर रहा था, दुर्योधन युद्ध मे भी उसे भीम द्वारा कटि प्रदेश पर वार करना अनुचित जान पड़ा था, इसलिए क्रोध में उसने पांडवो को ही समाप्त करने का निश्चय कर लिया। अंततः उसकी जिद के सामने कृपाचार्य और कृतवर्मा झुक ही गए, और तीनों महावीर पांडवों के शिविर की ओर प्रस्थान कर गए।
योगेश्वर श्रीकृष्ण यह सब जान रहे थे, उन्होंने संध्या काल मे ही पांडवों को शिविर से हटा कर दूसरी जगह भेज दिया था, और शेष योद्धाओं की रक्षा हेतु भगवान शिव को अनुरोध कर खड़ा कर दिया था।
भगवान शिव द्वारपाल बनकर खड़े तो हो गए थे, पर उनके समक्ष असमंजस की स्थिति आ गई थी, वे जानते थे कि शिविर में सो रहे सभी लोगो का जीवनकाल समाप्त हो चुका था, पर अपने प्रिय वासुदेव के आग्रह को शिव अस्वीकार भी नहीं कर सकते थे, इसलिए रक्षक बन के अनमने मन से शिविर के बाहर खड़े थे।
भगवान विचार में थे, तभी अश्वत्थामा वहाँ आ खड़ा हुआ, कृतवर्मा और कृपाचार्य दूर ही खड़े थे।



स्थानः उत्तरी वर्जीनिया, काल: 2020


"नो नो डॉक्टर मनस्वी, यह पोर्टल स्टेबल नहीं रह पाएगा, इस लेवल का रेडिएशन बनाये रखने में हमारी जान को खतरा हो जाएगा!" डॉक्टर पॉवेल ने टेस्ट चैम्बर में देखते हुए कहा।
"हद्द हो गई, इतनी मुश्किल से केवल 0.7 मिली सेकंड का वर्महोल बना था, और इरीडियम से भी पोर्टल संभल नही पाया, बेरिलियम-6 फेल हो गया फिर आखिर क्या इस्तेमाल करूँ !" डॉक्टर मनस्वी निराशा में अपने मे बड़बड़ा रहे थे।
"There seems to be only one way Doctor Manaswi
! " डॉक्टर पॉवेल बोर्ड पर कोई प्रमेय लिखने में व्यस्त थे।
"क्या डॉक्टर पॉवेल?" मनस्वी ने उत्सुकता में पूछा।
"डॉक्टर मनस्वी, वर्महोल एक एनर्जी डोर जैसे होता है, अलग अलग यूनिवर्स को जोड़ने वाला, समस्या ये है, कि इतनी एनर्जी एक जगह सस्टेन कैसे की जाए, उसके लिए सबसे पहले एक जगह पर उतनी एनर्जी एकत्रित करनी होगी, और उसे स्टेबल करना होगा, और स्टेबिलिटी के लिए आयोडीन-125 की जरूरत पड़ेगी, क्योकि वो इरीडियम-192 से ज़्यादा स्टेबल है। क्योकि इरीडियम खुद में भी कैटेगरी रेडियोएक्टिव है,आयोडीन 125 पोर्टल ज़्यादा अच्छा बैलेंस कर पायेगा!
"और एनर्जी कहाँ से लाये डॉक्टर पावेल?"
"हम थोरियम यूज़ करेंगे, थोरियम पर न्यूट्रॉन अटैक करके उसे यूरेनियम 233 बनाएंगे, और यहीं पर मज़ा है, यूरेनियम 233 जब एनर्जी पैदा करेगा, तब उसके आणविक विघटन से आयोडीन 125 भी पैदा होगी जो और आराम से पोर्टल स्टेबल कर पाएगी।
" गामा रेडिएशन स्तर कितना तक होगा?" मनस्वी ने पूछा। " 100-200 रोइंटजेन !"
"लॉजिक तो सही है, पर अगर प्रक्रिया असंतुलित हुई तो मेरी लैब चेर्नोबिल बन जाएगी डॉक्टर पॉवेल !"
"हाहाहाहा, डोंट वरी डॉक्टर मनस्वी, चेर्नोबिल विस्फ़ोट रूसी सरकार की गलती थी, हम अमेरिकन हैं हम लापरवाही नहीं करते!"
"पर इसमें टाइम लगेगा डॉक्टर पॉवेल!"
"यस, एक हफ्ता तो लगेगा ही, लेटस सी कुछ और रास्ता मिले!"
शाम को डॉक्टर मनस्वी अपने फ्लैट में न्यूज़ चैनल देख रहे थे, एक महीने पहले सोमदत्त चिरंजीवियों और शंख के युद्ध के बाद आज न्यूज चैनल में शिवलिंगों में आई दरार के वापस ठीक होने पर विस्तृत रूप से कार्यक्रम आ रहा था, एक पल को मनस्वी के सामने पूरा घटनाओं का सिलसिला घूम गया, "अविश्वसनीय था वो समय !" सोचते हुए मनस्वी चैनल देख रहे थे।
तभी उनके असिस्टेन्ट का कॉल आया, "हां बोलो रघुबीर!"
"डॉक्टर मनस्वी, मुझे लगता है डॉक्टर पॉवेल का तरीका लगाने की जो मेहनत है उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी!"
"मुझे तो वैसे भी अब कोई तरीका नहीं पता रघुबीर, पॉवेल के रास्ते के अलावा हमारे पास चारा ही क्या है 100-150 सेंटजन का विकिरण प्राकर्तिक रूप से तो आएगा नहीं!"
"नो डॉक्टर मनस्वी, यही तो आश्चर्य है, हमारे डोसी
मीटर्स (विकिरण नापने का यंत्र) ने पूर्व में एक लोकेशन ट्रेस की है, 130 सेंटजन विकिरण था, वो भी नेचुरल!" "आश्चर्य!, पक्का वहां यूरेनियम-235 होगा!, हमें माइनिंग विभाग की परमिशन लेनी होगी, जरा लोकेशन भेजना, चेक करें कि कौन सी गवर्नमेंट को पकड़ना है!" मनस्वी को जैसे उम्मीद की किरण मिल गई थी। रघुबीर ने जो लोकेशन कोआर्डिनेट भेजे उसको देख कर मनस्वी की भवें सिकुड़ गई
"यह तो वही जगह लग रही जहाँ सोमदत्त ने बताया था जहाँ चिरंजीवियों का उस श्रापविग्रह का संग्राम हुआ था!, मुझे सोमदत्त से संपर्क करना होगा"
"रघुबीर, लैबोरेटरी से जरूरी सामान शिफ्ट करने का बंदोबस्त करो, लेटस चेक दिस!" कॉल कट होने के बाद रघुबीर ने माथे पर आई पसीने की बूंदों को पोछा,
"इस सृष्टि का विज्ञान उन्नत है पर दैवीय दृष्टि से अभी भी
तुच्छ !"
उस भयावह भारी आवाज़ को सुनकर रघुबीर ने पलट कर उस विशालकाय आकृत्ति को देखा, उस आकृति का शरीर जैसे श्याम वर्ण के धुएं समान था, केवल लाल नेत्र गोचर हो रहे थे।
"मैंने तुम्हारा काम कर दिया, अब मुझे जाने दो!" रघुबीर की आवाज़ में आक्रांत भय भरा हुआ था। अचानक आई इस आकृति को देखकर उसने स्व सुरक्षा में उसपर पूरी मैगज़ीन खाली कर दी थी, पर सारी गोलियां उस आकृति में जाकर विलीन सी हो गई थी।
"तुम्हारा काम अभी पूरा नहीं हुआ है रघुबीर, मनस्वी को अभी तुम्हारी आवश्यकता पड़ सकती है, और अगर तुम उसके पास गए तो मेरे काम मे विघ्न आ सकता है! और इतने अनंत काल के बंधन के बाद मुझे विघ्न नहीं पसंद !"

रघुबीर अंदर तक कांप गया

"नहीं नहीं मैं किसी से नही मिलने वाला, मैं सबसे सम्पर्क काट दूंगा, मनस्वी को कुछ नही पता चलेगा, मैं अपने परिवार की कसम खाता हूं! मेरी जान बक्श दीजिये" बदहवासी में रघुबीर बड़बड़ा उठा।
"हम बख्शते नही रघुबीर, मुक्ति देते हैं!" कहकर उस रहस्यमय आकृति ने एक फरसा घुमाया और रघुबीर का सिर और धड़ अलग हो चुके थे।
"सारी पुण्य शक्तियां व्यस्त हैं, और यह सुनहरा अवसर है प्रकृति पर नियंत्रण पाने का! सतयुग में तो देवी दुर्गा महाशक्तिशाली रूप में थीं, पर जो शक्ति सतयुग में भी समाप्त ना हो सकी वह कलयुग में वापस आ चुकी है!"
कहकर उस रहस्यमयी आकृति ने हवा में एक द्वार बनाया और दूसरी जगह पहुँच गई, उसके सामने एक विशाल दरवाजा बना हुआ था, जिसमे कुछ खांचे बने हुए थे, उस आकृति ने कुछ विशिष्ट चीज़ों को उन खांचों में डाल कर दरवाजे को खोला, उसमें एक भयंकर आकृति बंधन में बंधी हुई थी।
"रक्षक भैरव!, आशा है तुम्हे बंधन में बंधने की सुखद अनुभूति रास आ रही होगी, मैंने सोचा मैं अनंत काल से पाए अपने अनुभव को किसी से तो साझा करूँ, हाहाहाहा!"
"यह दुखद विडंबना ही है कि इतने दीर्घ काल बंधन में रहने के पश्चात भी तुम्हारी सोच में परिवर्तन नहीं हुआ, कदाचित देवी को तुम्हें बंदी नहीं बनाना चाहिए था, तुम मृत्युदंड के योग्य हो!" उस भैरव ने बंधन तोड़ने की कोशिश जारी रखी थी।
"मृत्युदंड? और मुझे? तुम जानते नहीं भैरव, मुझे मारना सम्भव नहीं, इसलिए मुझे बंदी बनाया गया था, वैसे तुम्हें इस बात पर चिंतन करने की आवश्यकता नहीं है कि मुझे बंदी क्यो बनाया गया, तुम तो मेरा काम करने वाले हो!"
कहकर उस आकृति ने व्यंगात्मक लहजे में भैरव को देखा।
"मैं तुम्हारा कोई काम नहीं करने वाला, चाहे तुम जो कर लो"
"मेरा काम तो तुम्हें करना ही होगा भैरव, मैंने तुम्हारी संरचना पढ़ ली है, और मैं तुमपर नियंत्रण पा चुका हूं, तुम उस प्राचीनरहस्य के रक्षक हो जिसे सृष्टि रचनाकाल के समय से त्रिदेवों ने गुप्त रखा था, उस शक्ति के बल पर सृष्टि की नियंत्रक ऊर्जाओं पर मेरा अधिपत्य हो जाएगा!"
"ऐसा नही होगा दुष्ट, युग श्रापविग्रह के जागृत होने से तुम बन्धनमुक्त अवश्य हो गए हो, पर सृष्टि की रक्षक पुण्यशक्तियाँ तुम्हारे उद्देश्य को सफल नहीं होने देंगी।"
"सब होगा भैरव, सारी पुण्यशक्तियाँ व्यस्त हैं, सबको लगता है श्रापविग्रह निष्क्रिय हो गया, परंतु श्रापविग्रह निष्क्रिय होकर भी अपना काम कर चुका है! प्रतिबंधित आयाम एक बार फिर खुल चुका है, अब हम किसी के रोके नहीं रुकेंगे।" एक पल को रुककर उस आकृति ने फिर कहा "ब्रम्हशिर को हम पाकर ही रहेंगे!"



कालः द्वापरयुग



अश्वत्थामा शिविर के समीप पहुँच तो गया था, वहाँ उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय अद्भुत प्राणी को देखा, जो द्वार रोककर खड़ा था, उसे देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे।
उस महापुरुष ने व्याघ्रचर्म धरण कर रखा था, जिससे रक्त बह रहा था, वह योगिरूप काले मृगचर्म की चादर ओढ़े और सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए थे। उसकी विशाल और मोटी भुजाएं नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लिये प्रहार करने को उद्यत जान पड़ती थी। उनमें बाजूबंदों के स्थान में बड़े-बड़े सर्प बँधे हुए थे तथा उसका मुख आग की लपटों से व्याप्त दिखायी देता था।
उसने मुँह फैला रखा था, जो दाढ़ों के कारण विकराल जान पड़ता था। वह भयानक पुरुष सहस्रों विचित्र नेत्रों से सुशोभित था। सर्वथा उसे देख लेने पर पर्वत भी भय के मारे विदीर्ण हो सकते थे।
सम्पूर्ण जगत को भयभीत करने वाले उस अद्भुत प्राणी को देखकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा भयभीत नहीं हुआ, "मुझे इस विचित्र द्वाररक्षक को मार कर ही अपने कार्य का शुभारंभ करना चाहिए"
सोचकर अश्वत्थामा उसके ऊपर दिव्य अस्त्रों की वर्षा करने लगा। परंतु जैसे नदियां अथाह सागर में मिलकर विलीन हो जाती हैं उसी प्रकार उस महाभूत ने अश्वत्थामा के छोड़े हुए सारे बाणों को अपने अंदर विलीन कर लिया।
अपने बाण-समूहों को व्यर्थ हुआ देख अश्वत्थामा ने प्रज्ज्वलित अग्निशिखा के समान देदीप्यमान रथ शक्ति छोड़ी। उसका अग्रभाग तेज से प्रकाशित हो रहा था। वह रथशक्ति उस महापुरुष से टकराकर उसी प्रकार विदीर्ण हो गयी, जैसे प्रलयकाल में आकाश से गिरी हुई बड़ी भारी उल्का सूर्य से टकराकर नष्ट हो जाती है।
तब अश्वत्थामा ने सोने की मूँठ से सुशोभित तथा आकाश के समान निर्मल कान्तिवाली अपनी दिव्य तलवार तुरंत ही म्यान से बाहर निकाली, मानो प्रज्वलित सर्प को बिल से बाहर निकाला गया हो। फिर बुद्धिमान द्रोणपुत्र ने वह तलवार तत्काल ही उस महाभूत पर चला दी; परंतु वह उसके शरीर में लगकर उसी तरह विलीन हो गयी, जैसे कोई नेवला बिल में घुस गया हो।
तदनन्तर कुपित हुए अश्वत्थामा ने उसके ऊपर अपनी इन्द्रध्वज के समान प्रकाशित होने वाली गदा चलायी; परंतु वह भूत उसे भी लील गया। इस प्रकार जब उसके सारे अस्त्र- शस्त्र समाप्त हो गये, तब वह आश्चर्यचकित होकर इधर-उधर देखने लगा। उस समय उसे सारा आकाश असंख्य विष्णुओं से भरा दिखायी दिया। डर के मारे अश्वत्थामा कृपाचार्य के सामने भाग गया। आचार्य को बार बार हाथ जोड़कर कहने लगा,"मैंने आप सबकी बात नही सुनी, प्रतिज्ञा कर बैठा हूँ यदि मनुष्य किसी कार्य को आरम्भ करके भय के कारण उससे निवृत हो जाता है तो ज्ञानी पुरुष उसकी उस कार्य को करने की प्रतिज्ञा को अज्ञान या मूर्खता बताते हैं। इस समय अपने ही दुष्कर्म के कारण मुझ पर यह भय पहुँचा है। द्रोणाचार्य का पुत्र किसी प्रकार भी युद्ध से पीछे नहीं हट सकता; परंतु क्या करूँ, यह महाभूत मेरे मार्ग में विघ्न डालने के लिये दैवदण्ड के समान उठ खड़ा हुआ है। मैं सब प्रकार से सोचने-विचारने पर भी नहीं समझ पाता कि यह कौन है?
कृपाचार्य मौन खड़े रहे, अश्वत्थामा फिर से बड़बड़ा उठा,
"अब दैवीय अनुकूलता ही अंतिम मार्ग है, मैं अपने आराध्य देवाधिदेव महादेव की शरण मे जाऊँगा वो ही अब मार्गदर्शन करेंगे कहकर द्रोणकुमार रथ से उतर गया, और उन महाभूत भगवान शिव के समक्ष ही शतरुद्री संहिता का पाठ करने लगा,

वन्दे महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराजसमुद्भवं शंकरमादिदेवम् ।।


जो परमानन्दमय हैं, जिनकी लीलाएँ अनन्त हैं, जो ईश्वरों के भी ईश्वर, सर्वव्यापक, महान्, गौरी के प्रियतम तथा स्वामिकार्तिक और विघ्नराज गणेश को उत्पन्न करनेवाले हैं उन आदिदेव शंकर की मैं वन्दना करता हूँ।

अश्वत्थामा और उस दिव्य महायोगी के बीच एक वेदस्थली प्रकट हो गई, अश्वत्थामा के प्रताप से उसमें अग्निदेव प्रकट हो गए, भगवान शिव के गण इस अद्भुत आह्वाहन को देखने के लिए वहां उतर आए थे,अश्वत्थामा ने कहा- 'भगवन! आज मैं आंगिरस कुल में उत्पन्न हुए अपने शरीर की प्रज्वलित अग्नि में आहुति देता हूँ। प्रभो! सम्पूर्ण भूत आप में स्थित हैं और आप सम्पूर्ण भूतों में स्थित है। आप में ही मुख्य-मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो! आप सम्पूर्ण भूतों के आश्रय हैं। देव! यदि शत्रुओं का मेरे द्वारा पराभव नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप में सामने खड़े हुए मुझ अश्वत्थामा को स्वीकार कीजिये।' ऐसा कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा प्रज्ज्वलित अग्नि से प्रकाशित हुई उस वेदी पर चढ़ गया और प्राणों का मोह छोड़कर आग के बीच में बैठ गया। अश्वत्थामा के निर्मल भाव से किए गए स्तवन को सुनकर भगवान प्रसन्न हो गए। उनका आने का प्रयोजन भी पूरा हो रहा था।
उसे हविष्यरूप से दोनों बाँहें ऊपर उठाये निश्चेष्ठ भाव से बैठे देख साक्षात भगवान महादेव ने हँसते हुए से कहा- "अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित आराधना की है; अतः श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा कोई मुझे परम प्रिय नहीं है।
तात! उन्हीं का सम्मान और तुम्हारी परीक्षा करने के लिये मैंने पांचालों की सहसा रक्षा की है और बारंबार मायाओं का प्रयोग किया है।
पांचालों की रक्षा करके मैंने श्रीकृष्ण का ही सम्मान किया है; परंतु अब वे काल से पराजित हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है"।
अश्वत्थामा से ऐसा कहकर भगवान शिव ने अपने स्वरूपभूत उसके शरीर में प्रवेश किया और उसे एक निर्मल एवं उत्तम खड्ग प्रदान किया। भगवान का आवेश हो जाने पर अश्वत्थामा पुनः अत्यन्त तेज से प्रज्ज्वलित हो उठा। उस देवप्रदत्त तेज से सम्पन्न हो वह युद्ध में और भी वेगशाली हो गया। साक्षात महादेव जी के समान शत्रुशिविर की ओर जाते हुए अश्वत्थामा के साथ-साथ बहुत से अदृश्य भूत और राक्षस भी दौड़े गये।
स्वयं महाकाल रूप पाकर अश्वत्थामा ने उस रात्रि में सारे खेमों को रक्तरंजित कर डाला, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, पांडवों के 5 पुत्रों को आदि सारे सैनिको को उसने मार डाला, जो बच कर भागने की कोशिश किया उसे कृपाचार्य और कृतवर्मा ने मार डाला।
तीनों महारथी समस्त पांचालों और द्रौपदी के सभी पुत्रों का वध करके एक साथ उस स्थान में आये, जहाँ राजा दुर्योधन मारा गया था।
वहाँ जाकर उन्होंने राजा दुर्योधन को देखा, उसकी कुछ-कुछ साँस चल रही थी। दुर्योधन ने सारा समाचार सुना और सन्तुष्ट होकर प्राण त्याग दिए उसके पश्चात तीनो महारथी वहाँ से चले गए।
उस नरसंहार में एक मात्र धृष्टद्युम्न के सारथी पर तीनों का ध्यान नहीं गया था और उसने पांडव खेमे में जाकर सारा समाचार कह सुनाया था। युधिष्ठिर क्रोध और संताप की अनुभूति से कांपने लगे थे, द्रौपदी अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुन मूर्छित हो गई थी, भीमसेन अतिक्रोध में भर कर सिंहनाद कर उठे,
"आज उस निर्लज्ज पापी को मृत्यु का द्वार दिखा कर ही वापस आऊँगा!"
अतिक्रोध में भीमसेन गदा उठाकर रथ हांक कर स्वयं निकल गए, अर्जुन हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के समीप जा खड़े हुए, उनकी आवाज़ में क्षोभ, दुख, क्रोध सब कुछ सम्मिलित था, पर श्रीकृष्ण कांतिमय और स्थिर खड़े थे।
"धनंजय, भीम भैया को रोकना होगा, द्रोणकुमार परम शक्तिशाली दिव्यास्त्रों के ज्ञाता हैं, भीम भैया क्रोधावेश में निकल गए हैं हमें उन्हें रोकना होगा!"
जैसे सहसा युधिष्ठिर और अर्जुन नींद से जागे, बिना कुछ बोले अर्जुन ने अपने गांडीव और अक्षय तरकश को संभाला युधिष्ठिर भी साथ खड़े हुए, "चलिए केशव !"



काल : वर्तमान



''यह रघुबीर फ़ोन क्यो नही उठा रहा!" डॉक्टर मनस्वी ने अपने असिस्टेंट को कॉल करते करते सफर के सारे समान की व्यवस्था कर ली थी। 2 घंटे बाद ही प्राइवेट जेट की सहायता से मनस्वी एक बार फिर उस युद्धक्षेत्र की और चल पड़े थे, जहाँ पर कुछ समय पहले सोमदत्त, चिरंजीवी और शंख के बीच महायुद्ध हुआ था। "मनस्वी, मुझे थोड़ा समय लगेगा, आचार्य की तबियत ठीक होने तक यहाँ से निकलना मुश्किल है, पर मैं जुड़ा रहूंगा!" सोमदत्त का मैसेज पढ़कर मनस्वी मन ही मन सोचने लगे।
"दैवीय विज्ञान भी रेडियो धर्मिता का उत्कृष्ट उदाहरण है, देवता युद्ध करते हैं, विज्ञान रेडियोधर्मिता ढूंढता है, वाह! क्या कनेक्शन है!"
सोचते हुए मनस्वी ने कुछ और नंबर्स डायल किये और अपने दूसरे असिस्टेन्ट लोगों को उस जगह पर पहुँचने को कहा। कुछ घंटों बाद लेड शील्ड पहने पूरी टीम वहाँ पहुँच चुकी थी।
"डॉक्टर मनस्वी, लोकेशन का रेडिएशन 135 सेंटजन है। घंटे से ज्यादा रुकना खतरनाक होगा!" एक असिस्टेंट ने बताया।
"हम्म्म, जगह को कवर करना होगा, जितना जल्दी हम अपना सेटअप लगा पाएंगे उतनी जल्दी काम शुरू हो पायेगा, एक एक घंटे में लोगों को बदलना पड़ेगा!" मनस्वी ने कहते हुए नज़र दौड़ाई, और एक जगह करीब 15 फ़ीट का गड्डा नज़र आया!
"ये गड्डा कैसा है, वहाँ का रेडिएशन चेक करो!"
मनस्वी को उस जगह से निकलती नीली रोशनी से आकर्षण हो रहा था।
"वाह, रेडिएशन ने हवा को चार्ज कर दिया है, हवा का रंग नीला हो गया है!"
"Science is beautiful yet dangerous!" एक असिस्टेन्ट पास आकर बोला।
डॉक्टर मनस्वी, 150 सेंटजन, 330°C उस गड्ढे का तापमान, लगता है वहाँ यूरेनियम का प्राकर्तिक विघटन हो रहा इसलिए इतनी एनर्जी है!" दूसरा असिस्टेन्ट आकर बोला।
वैसे यहाँ ज्यादा यूरेनियम नहीं होना चाहिए इसलिए यह असंतुलित तो नहीं ही होना चाहिए, हम कुछ बोरोन कोटेड शीट्स इसके पास लगा देते हैं ताकि अतिरिक्त न्यूट्रॉन सोख सकें!"
"हम इस रेडिएशन और तापमान का उपयोग अपने काम को तेजी से करने के लिए कर सकते हैं!" मनस्वी ने उत्साह में कहा। मनस्वी ने उस गड्ढे की फ़ोटो सोमदत्त को भेजी, और उसका प्रत्युत्तर आने पर चौंक उठे
"तो इस स्थान पर वह श्रापविग्रह स्थापित था!" मनस्वी ने मन ही मन में कहा।
तेज गर्मी के कारण वहां रुकना मुश्किल हो रहा था, पर विज्ञान के छात्रों को नए प्रयोग का जोश सब भूला देता है, डॉक्टर मनस्वी के साथ भी कुछ वैसा ही था,अचानक से डॉक्टर मनस्वी के मस्तिष्क में कुछ आवाजें गूंजने लगी,
"यह क्या हो रहा है, मैं फोकस नही कर पा रहा!"
अजीबोगरीब आवाज़ों से मनस्वी का दिमाग हिलने लगा। उनके असिस्टेंट लोगों ने उनके व्यवहार में परिवर्तन महसूस किया,

"डॉक्टर मनस्वी आप ठीक हो ?!"

"पता नहीं, अजीब अजीब आवाजें मन मे गूंज रही, जैसे कोई तूफान चल रहा हो, बस अंधेरा सा लग रहा, मेरा सिर घूम रहा!" कहते कहते मनस्वी उस गड्ढे की ओर जाने लगे, जिसमें श्रापविग्रह स्थापित था।
"लगता है रेडिएशन का असर है, हमें अभी चलना चाहिए डॉक्टर!" अस्सिस्टेंट की बात पूरी होते होते मनस्वी गड्ढे की ओर जाने लगे।
डॉक्टर, डॉक्टर उधर मत जाइये, रेडिएशन बहुत ज़्यादा है!!! डॉक्टर मनस्वी !" असिस्टेंट लोगों ने चीख कर पुकारा पर मनस्वी जैसे कुछ सुन ही रहे थे, एक असिस्टेंट ने दौड़ कर रोकना चाहा, पर उसे मनस्वी ने जोर से धक्का दे दिया, इस धक्के में मनस्वी का फ़ोन नीचे गिर गया, पर मनस्वी जैसे किसी चीज़ की परवाह किये बिना आगे बढ़ते गए,
गड्ढे के एकदम पास जाकर मनस्वी खड़े हो गए, अस्सिस्टेंट लोगो को कुछ सूझ नहीं रहा था तभी 2 लोगो ने एक रस्सी उठा कर फंदा बना लिया था,
"हम उतना पास गए तो हम मारे जाएंगे दूर से ही डॉ को इधर खीचना होगा!" कहकर उन लोगो ने रस्सी फेंकी, पर जैसे ही फंदा आगे पहुँचा, मनस्वी गड्ढे में कूद गए।
"ओ माई गॉड, डॉक्टर मनस्वी! डॉक्टर मनस्वी!" सारे अस्सिस्टेंट लगभग एक साथ चिल्ला उठे। अपनी जान की परवाह छोड़ कर असिस्टेंट गड्ढे के पास भागे, पर मनस्वी वहाँ थे ही नहीं!
सारे अस्सिस्टेंट लोगों के होश उड़ गए। "ओ माई गॉड, ओ माई गॉड, डॉक्टर कहाँ गए!" बदहवासी में असिस्टेंट लोगों को कुछ सूझ नहीं रहा था।
"हमें पुलिस को कॉल करना होगा, डॉक्टर मनस्वी गायब कैसे हो सकते हैं!"
"डॉक्टर पॉवेल को इन्फॉर्म करो, सबसे पहले वो ही कुछ कर पायंगे, यहाँ से कुछ करना मुश्किल है!"
तभी एक असिस्टेंट की नज़र मनस्वी के फ़ोन पर गई,
" डॉक्टर मनस्वी का फोन!"
तेज़ी से दौड़ कर एक असिस्टेंट ने फ़ोन उठाया और लास्ट डायल नंबर पर कॉल किया।
उधर से सोमदत्त ने फोन उठाया, और उनकी भृकुटि तन चुकी थी।
"ऐसा कैसे हो सकता है!"
सोमदत्त ने तुरंत माधवी को संपर्क किया,
"माधवी, तुम्हें आचार्य का ध्यान रखना होगा, एक समस्या आन पड़ी है!"
"आप जाइये भार्गव, मैं आचार्य की देखरेख का काम संभाल लूंगी !"परिस्थिति की गंभीरता भाँपते हुए माधवी ने बिना कुछ पूछे हामी भर दी।
(माधवी सोमदत्त की साथी है, जो उनके वंश के संरक्षकों की वंशावली से है, जो नए पाठक है) आचार्य की तरफ से आश्वस्त होकर सोमदत्त एक बार फिर उस क्षेत्र को निकल पड़े थे, जहां उन्होंने एक महासमर पर विजय प्राप्त की थी।उनकी इस गतिविधि को कोई ध्यान से देख रहा था, "सोमदत्त व्यस्त होने जा रहा है, काम बिल्कुल निर्धारित तरीके से हो रहा है! अब हम अपना लक्ष्य निर्विघ्न होकर पा सकते हैं हाहाहा ! " भीषण अट्टहास करके उसने अपने सामने लगे एक चित्र को देखा,उस चित्र में 9 अलग अलग निशान दिखाई दे रहे थे, कुछ भयंकर घटित होने वाला था।

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