प्रेम गली अति साँकरी - 129 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 129

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अम्मा-पापा की वाकई इस बार जाने की पूरी तैयारी थी, अब मेरे भीतर एक खाली ठंडेपन की सरसराहट  महसूस होने लगी थी जिसे केवल मुझे ही दबाकर रखना था| भाई भी नहीं होंगे, जो था अब शीला दीदी का पूरा परिवार और मैं---और करने के लिए, समस्याओं का समाधान निकालने के लिए गठरी भर पोटला जो न जाने अभी किस स्थिति में खुलने वाला था और जिसे मेरे सिवाय और कोई कुछ समझने की स्थिति में हो ही नहीं सकता था| 

संस्थान के पेपर्स की मेरे नाम पर पहले ही ‘पॉवर ऑफ़ एटॉर्नी’करवा दी गई थी जिनमें मेरे साथ शीला दीदी का नाम भी जुड़ा हुआ था| वहाँ के प्रतिमाह के खर्चे ही इतने अधिक थे उनको संभाल पाना बेहद जरूरी था जो सबके लिए महत्वपूर्ण था | वैसे ज़रूरत पर पापा के व्यवसाय में से भी धन की कमी को संभाल लिया जाता था| इन सबके लिए संस्थान व पापा के व्यवसाय के धन को ठीक रूप से कार्यान्वित करने के लिए योग्य चार्टेड एकाउंटेंट्स भी थे जिनके साथ काम करने वाले कई वकील भी थे| 

पापा के काम करने व करवाने का तरीका व सलीका इतना सुघढ़ व दोषपूर्ण था कि सब काम एक साँचे में ढले हुए चलते रहते| पापा चुटकियों में ऐसी समस्याओं का निवारण कर देते जिसके बारे में लोग सोच भी नहीं पाते और काम हो जाता| इस सब से मैं काफ़ी निश्चिंत थी और संस्थान में लौटकर सुरक्षित महसूस करना मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था| फिर भी पापा का संबल व मार्ग निर्देशन सभी के लिए एक संजीवनी सा होता था जैसे उन्होंने जगन के लिए शीला दीदी के समय सब कुछ चुटकियों में संभाल लिया था और किसी को भी अधिक परेशान नहीं होने दिया था| अब जो परेशानियाँ जगन के व उसके असभ्य, बेहूदे परिवार के कारण होनी थीं, उसमें जितना किया जा सकता था, वह ठीक था लेकिन जिसमें पापा कोई दखल नहीं कर सकते थे, उसमें तो उनका वश था ही नहीं| 

समय दौड़ा जा रहा था, इन सबके यू.के जाने के दिन करीब आते जा रहे थे| भाई तो अम्मा-पापा के जाने की ऐसी तैयारी करने में लगा हुआ था जैसे उन्हें वापिस ही नहीं भेजेगा| 

“ये सब इतनी सब तैयारी क्यों करवा रहा है भाई, आखिर कितने दिन रखने वाला है अम्मा-पापा को वहाँ?”एक दिन खीजकर मैंने पूछा| 

“अरे अमी ! अब जाएंगे तो हम आसानी से तो आने नहीं दूँगा| हमेशा यहीं तो रहे हो तुम सब, मैं ही अकेला वहाँ हूँ| कोई स्थाई निवास की भी तकलीफ़ नहीं है वहाँ, सब कुछ क्लीयर है| जब तक चाहे वहाँ रहें| जब मन होगा, आ जाएंगे| दोनों ही तो घर हैं न??”अमोल और एमिली ने सब पहले से ही व्यवस्था कर रही थी| 

एमिली के पिता वकालत करते ही रहे थे और अपने यहाँ के कानूनों से सुपरिचित थे ही| उन्होंने अपने बड़े से फार्म-हाउस के पास ही एक बड़ी ज़मीन में अपने लिए बरसों से घर बनवाया हुआ था और बेटी के विवाह के बाद उसके लिए भी वहीं एक सुंदर घर बनवा दिया था | जहाँ सभी सुविधाएं थीं| इस घर में एक मंदिर की  स्थापना भी करी गई थी जिसमें एमिली के माता-पिता भी हर शाम को संध्या में सबके साथ सम्मिलित होते| वाणी के संस्कारों में यह सब आसानी से प्रदर्शित होता था| जबकि वह ब्रिटिश स्कूल में शिक्षा प्राप्त करती रही थी, उसके लिए एक हिन्दी भाषा के शिक्षक रख दिए गए थे जो उसे भारत की संस्कृति व भारतीय संस्कारों से परिचित करवाते| वह तो भारतीय मूल से ही गोद ली गई थी इसलिए कहीं कोई दिक्कत थी ही नहीं| 

पहले एमिली के दादा जी घोड़ों का व्यापार करते थे इसीलिए उनके पास खूब बड़ा फॉर्म-हाऊस था, उनके न रहने के बाद धीरे-धीरे घोड़ों का व्यापार बंद हो गया था | अब वे अपनी इतनी बड़ी ज़मीन को वहाँ के नियमों के तहत निवेश कर रहे थे | एमिली का परिवार यह एक ऐसा अँग्रेज़ परिवार था जिसका रुझान सौ प्रतिशत भारतीय सभ्यता व संस्कृति के परिवेश में रचने-बसने में अपनी आत्मा की तुष्टि महसूस करता| मैंने पहली बार देखा था कि इस परिवार के प्रत्येक सदस्य ने सामिष भोजन और ड्रिंक्स कब से छोड़ दिए थे | परिवार में पूजा, वंदन का प्रचलन शुरू हो चुका था और सबको वहाँ एक पावनता महसूस होती थी | मैं भी तो कई बार जाकर आ गई थी, बेशक थोड़े-थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन चक्कर तो काटे ही थे | फिर भी----ऐसा महसूस हो रहा था जैसे हम सबका परिवार ही शिफ़्ट हो रहा था| 

मैं चुप थी और जीवन में होने वाले इतने बड़े बदलाव को अपने भीतर कैसे महसूस रही थी, उसके लिए मेरी संवेदनाएं मुझे कमज़ोर बना देतीं लेकिन मेरे सामने, मेरे साथ अभी बहुत कुछ होने वाला था। मुझे इसका पहले से ही आभास था| बस, मैं इन लोगों के यहाँ से शांति से जाने से पहले कोई गड़बड़ नही होने देना चाहती थी |