आँच - 14 - यह है वतन हमारा ! (भाग-1) Dr. Suryapal Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँच - 14 - यह है वतन हमारा ! (भाग-1)

अध्याय चौदह
यह है वतन हमारा !


इस साल भयंकर गर्मी थी। लू चली। गाँव-हर सभी जगह हैज़ा फैल गया। प्याज और पुदीने के रस की माँग बढ़ गई। हकीम-वैद्य दौड़ते रहे पर गाँव के गाँव खाली होते रहे। एक लाश को लोग जला या दफ़्न कर आते दूसरी तैयार। सभी परेशान थे। वर्षा हुई ताल-तलैया भर गए पर हैज़ा का उफ़ान कम नहीं हुआ। हैज़ा के प्रकोप से हम्ज़ा के अब्बू शौक़त अली हम्ज़ा भी चल बसे। वही कमाने वाले थे घर में कुहराम मच गया। नसरीन और उसकी अम्मी को तो जैसे होश ही नहीं रहा। जनाज़ा उठा। नमाज़ हुई। क़ब्रगाह नई लाशों से भरा था। एक कोने थोड़ी जगह देखकर साफ किया गया। वहीं उन्हें दफ़्नाया गया। उसी समय क़ब्रगाह में दर्जन भर लाशें आ गई थीं।
सभी के साथ हम्ज़ा क़ब्रगाह से घर लौटे। बद्री और ईमान ने उन्हें सान्त्वना दी। मौलवी फ़ख़रुद्दीन काफी देर तक बैठे रहे। हम्ज़ा को कुछ ज़रूरी हिदायतें देकर वे लौट गए। नसरीन और उसकी अम्मी को पड़ोस की औरतें सँभालती रहीं। बद्री ने अपने घर से पूड़ी सब्ज़ी बनवाकर हम्ज़ा के घर पहुँचाया। कुछ लोगों ने खाया पर हम्ज़ा, नसरीन और उसकी अम्मी की खाने की इच्छा ही न हुई। लोगों के कहने पर इन लोगों ने केवल शर्बत पिया। तेवराइन काकी पूरी रात इनके साथ बैठी रहीं।
हम्ज़ा को अब अपना घर, अपनी दूकान देखनी थी। अब्बू तम्बाकू के थोक व्यापारी थे। खाने और पीने वाली तम्बाकू उनके यहाँ से दूकानदार ले जाते थे। हम्ज़ा भी दूकान पर बैठने लगे। ईमान भी दूकान के काम में मदद करते। दोनों मिलकर दूकान का काम सँभालते। अब फ़ादर या मौलवी साहब के यहाँ जाकर पढ़ना संभव नहीं था। हम्ज़ा घर पर ही उर्दू-फ़ारसी और अँग्रेजी का अभ्यास करने की कोशिश करते। पर अब समय नहीं मिल पाता। वे अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों को संगठित करने उनकी मदद करने में अधिक समय देते।





विद्रोही सेना बेगम हज़रत महल की देखरेख में बेलीगारद पर आक्रमण करती रही। ब्रिगेडियर इंगलिश परेशान। उसे ज्ञात हुआ कि हैवलॉक जल्दी कानपुर से नहीं आ सकता है। विद्रोही सैनिक बार बार बेलीगारद पर आक्रमण करते पर वे पूरी तरह विजय नहीं प्राप्त कर सके।
बीस सितम्बर को हैवलॉक ने लखनऊ आने के लिए गंगा पार किया। इस बार उसके साथ नील, ओट्रम, कूपर और आयर जैसे सेनापति थे। फिर भी लखनऊ के आलम बाग़ पहुँचने में चार दिन लग गए। रास्ते में ग्राम वासियों ने इस अँग्रेजी सेना से जम कर लोहा लिया। हैवलॉक की सेना अघिक सशक्त थी फिर भी बिना युद्ध किए वह आगे नहीं बढ़ सकती थी।
तेईस सितम्बर को हैवलॉक आलमबाग़ के निकट पहुँचे। वहाँ विद्रोहियों की सेना भी मुकाबले के लिए तैयार थी। पूरे शहर में यह ख़बर फैल गई कि अँग्रेजी सेना लखनऊ की ओर आ रही है। घरों से लोग मुकाबला करने के लिए निकल पडे़। पंडित, मौलवी सभी, जगह जगह लोगों को प्रेरित करते रहे। इश्तहार लिख कर चिपकाए गए जिसमें प्रायः यह लिखा रहता कि अँग्रेज आएँगे तो क़त्लेआम करेंगे। लोगों को क्रिस्तान बना देंगे। इसीलिए उठो, मुकाबला करो। दोनों सेनाओं में रात भर भयंकर युद्ध हुआ। दूसरे दिन भी दोनों सेनाएँ भिड़ी रहीं। दोनों तरफ के लोग कट रहे थे। पर उत्साह चरम पर था। इसी समय दिल्ली पतन की ख़बर आई। अँग्रेजी सेना का हौसला बढ़ गया। विद्रोही सेना को एक झटका ज़रूर लगा पर वे मरने-मारने के लिए तैयार थे। ‘दीन दीन, हर हर महादेव’ का नारा लगाते पच्चीस सितम्बर की सुबह लोग निकले। अँग्रेजी सेना ने कावा देकर बेलीगारद की ओर बढ़ना चाहा। विद्रोही सेना को आभास हो गया। उसने मुड़कर अँग्रेजी सेना पर गोला बरसाना शुरू कर दिया। अँग्रेजी सेना भी जवाबी गोलाबारी करती हुई चार बाग़ पुल की ओर बढ़ी। दोनों ओर से भयंकर संग्राम। अँग्रेजों की ओर प्रशिक्षित सेना और विद्रोहियों की ओर से अप्रशिक्षित अधिक। पर अँग्रेजी सेना को एक एक क़दम बढ़ना मुश्किल हो रहा था। इसी युद्ध में हैवलॉक का बेटा मारा गया। नील भी एक विद्रोही सैनिक की गोली का शिकार हुए। नील का मरना अँग्रेजी सेना के लिए बड़ा झटका था, विद्रोहियों के लिए खुशी का अवसर। भयंकर मार झेलते हुए अँग्रेजी सेना बढ़ती रही। लाशों का अम्बार लगता रहा। लोग बढ़ते रहे। शाम होते होते अँग्रेजी सेना बेलीगारद पहुँच गई। उसके सात सौ बाईस आदमी मारे जा चुके थे। जैसे ही हैवलॉक की सेना बेलीगारद पहुँची वहाँ के लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। सतासी दिन के घेराव में बेलीगारद में सात सौ लोग मर चुके थे। हैवलॉक निराशा के बीच एक आशा की लहर लेकर आया।
हैवलॉक के बेलीगारद में आ जाने पर भी विद्रोहियों का घेराव चलता रहा। हैवलॉक, ओट्रम सभी बेलीगारद में क़ैद हो गए। विद्रोही सेना निरन्तर आक्रमण करती रही। उसने अँग्रेजी सेना को बाहर निकलने का अवसर नहीं दिया। इस साल गर्मी भयंकर थी। इससे भी अँग्रेजी सेना को परेशानी हो रही थी। कम्पनी सेना के लिए यह मुश्किल समय था। इसी बीच सर कॉलिन कैम्पबेल कम्पनी सेना का नया मुख्य सेनापति बनाया गया। उसने अपनी सेना को पुनर्गठित किया। मद्रास बम्बई लंका से पलटनों को मँगवाया। दिल्ली में भी जो पलटन खाली हो सकती थी उसे बुला लिया। कैम्पबेल लखनऊ अभियान के लिए सत्ताईस अक्टूबर को कलकत्ता से चला। जहाजी बेडे़ को भी गंगा नदी के रास्ते कानपुर आने के लिए निर्देशित किया। कप्तान पावेल और कप्तान पील इस बेडे़ का नेतृत्व कर रहे थे। इस जहाजी बेड़े को भी क्रान्तिकारियों का सामना करना पड़ा। इसी लड़ाई में पावेल मारा गया।
तीन नवम्बर को कैम्पबेल कानपुर पहुँचा। दिल्ली से चलकर ग्रेटहेड रास्ते में गाँवों को जलाते, पस्त करते कानपुर आया। वह कानपुर से एक विशाल सेना लेकर लखनऊ की ओर बढ़ा। उसी के पीछे पीछे कैम्पबेल भी कानपुर के लिए आवश्यक व्यवस्था कर चल पड़ा और नौ नवम्बर को आलम बाग़ पहुँच गया। बेलीगारद का हाल चाल जानने के लिए कम्पनी के गुप्तचर कैवेना को काले रंग से रंगा गया। उसे हिन्दुस्तानी कपड़े पहनाए गए और रात में एक हिन्दुस्तानी गुप्तचर के साथ बेलीगारद भेजा गया। बचते बचाते किसी प्रकार वह बेलीगारद पहुँच गया। अँग्रेजों को हिन्दुस्तानी गुप्तचर पर विश्वास नहीं रह गया था। कैवेना ने लौटकर बेलीगारद का समाचार बताया।


चौदह नवम्बर को कैम्पबेल ने बेलीगारद की ओर बढ़ना शुरू किया। उनके साथ पील, ग्रेटहेड, हडसन, होपग्रान्ट, आयर जैसे सेनापति थे। बेलीगारद से हैवलॉक, ओट्रम ने भी विद्रोही सेना पर आक्रमण किया। शाम तक कैम्पबेल की सेना दिल खुश बाग़ पहुँच गई। युद्ध चलता रहा। सोलह को इस सेना ने सिकन्दर बाग़ पर आक्रमण किया। विद्रोही सेना के साथ घमासान छिड़ गया। गोलों की मार के बीच एक सिख सिकन्दर बाग़ की दीवार पर चढ़ा। उसकी छाती में गोली लगी। जनरल कूपर और लम्सडेन भी आगे बढ़े और उसी दीवार पर ढेर हुए। लाशों पर चढ़ते हुए आखिऱकार सिख और अँग्रेज सैनिक सिकन्दर बाग़ में प्रवेश कर गए। कम्पनी सेना ने एक दूसरी तरफ से भी सिकन्दर बाग़ में प्रवेश किया। विद्रोहियों ने वीरता से कम्पनी सेना का सामना किया। एक एक कमरे, एक एक सीढ़ी, एक एक कोने के लिए भीषण संग्राम हुआ। पूरी विद्रोही सेना कट गई। न किसी ने भागने का प्रयास किया न किसी ने दयायाचना की। दो हज़ार से अधिक विद्रोही सैनिक कट मरे पर हार नहीं मानी। पूरा बाग़ रक्त-सरोवर में बदल गया। इस लड़ाई में पुरुष वेश में महिलाओं ने अनेक अँग्रेजों को मार गिराया। ऊदा देवी पासी ने एक पेड़ पर बैठकर गोलियाँ चला कई अँग्रेजों को मौत के घाट उतारा।
नौ दिन तक दिल खुश बाग़, आलमबाग़, शाह नज़फ़, मोती महल में भयंकर लड़ाई होती रही। कैम्पबेल बेलीगारद पहुँचना चाहता था पर पूरे नौ दिन बाद तेईस नवम्बर को वह बेलीगारद पहुँच सका। लखनऊ में खून की धाराएँ बह चलीं। बेलीगारद को छोड़कर शेष लखनऊ अब भी शाही कब्जे़ में था। अगले ही दिन हैवलॉक का निधन हो गया।
कैम्पबेल ने रात ही में बेलीगारद से निकलकर आलमबाग़ में सेना औैर तोपों को इकट्ठा कराया। क़ैदियों को गोली मार दी गई। इसी में तुलसीपुर के राजा दृगनारायण जी भी थे। ओट्रम सेनापति नियुक्त हुए और लखनऊ पर हमले की योजना बनी। इसी बीच सूचना मिली कि तात्या टोपे ने अँग्रेजी सेना को भगाकर फिर कानपुर पर कब्ज़ा कर लिया है। ओट्रम को लखनऊ में छोड़कर कैम्पबेल कानपुर के लिए रवाना हो गए।
तात्या टोपे को ख़बर लगी। उसने गंगा के किनारे ही कैम्पबेल का सामना किया। पहली से छह दिसम्बर तक दोनों सेनाओं में घमासान हुआ। नाना भी तात्या टोपे की मदद के लिए आ गए। तात्या टोपे के साथ ग्वालियर की भी सेना थी। छह दिन की लड़ाई के बाद अँग्रेजों और सिखों के संयुक्त हमले से तात्या को पीछे हटना पड़ा। कानपुर पर फिर अँग्रेजों का कब्ज़ा हो गया। तात्या अपनी बची सेना के साथ दक्षिण की ओर निकल गया। अँग्रेजी सेना ने पीछा किया। शिवराजपुर में फिर एक भीषण संग्राम हुआ। तात्या की कुछ तोपें भी अँग्रेजों के हाथ लगीं। तात्या कालपी की ओर निकल गया।



बिठूर से नाना साहब, बालाराव, अज़ीमुल्ला खाँ, तात्या टोपे सभी निकल गए थे। महिलादल मैना के नेतृत्व में अपने काम में जुटा हुआ था। बिठूर से हिन्दी, उर्दू, मराठी में हस्त लिखित पत्र निकलता। उसकी हज़ारों प्रतियाँ हाथ से लिखी जातीं। महिलाएँ पत्र की नकल करतीं ही, उसे जगह-जगह पहुँचाने का भी काम करतीं। विद्रोहियों के अभियान, उनकी रणनीति, प्रेरक प्रसंगों से भरे ये पत्र विद्रोहियों की जीवन रेखा बन गए थे। इन्हीं पत्रों के माध्यम से आवश्यक जानकारियाँ भी विद्रोहियों तक पहुँचतीं। बहुत से सामान्य लोग तथा अनेक तवायफ़ें भी इस आदान-प्रदान में जुटी हुई थीं। दूर-दूर तक इन्हीं पत्रों के माध्यम से संपर्क हो पाता।
कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में जब कम्पनी सेना ने दूसरी बार कानपुर पर कब्ज़ा कर लिया तो उसकी दृष्टि बिठूर पर भी गई। अज़ीज़न बाई पर शंका उठ ही रही थी। उन्हें पकड़ लिया गया। कमांडर के सामने लाया गया। पूछा गया, ‘नाना का ख़ज़ाना कहाँ है? अज़ीज़न ने इस पर कोई उत्तर नहीं दिया। फिर प्रश्न हुआ, ‘नाना, बालाराव, अज़ीमुल्ला खाँ और तात्या टोपे कहाँ हैं?’ अज़ीज़न ने इस पर भी कोई उत्तर नहीं दिया।’‘जवाब न देने पर मौत मिलेगी।’ अज़ीज़न ने कहा, ‘स्वीकार है।’ कमांडर हँस पड़ा, कहा ‘तुम्हें स्वीकार का मतलब मालूम है।’ ‘मालूम है,’ अज़ीज़न ने उत्तर दिया। ‘एक बार फिर सोच लो। हमें नाना और उसका ख़ज़ाना चाहिए। यदि तुमने बताने से इन्कार किया तो मौट टय समझो।’ एक हिन्दुस्तानी सिपाही भी आकर कहने लगा, ‘बाई जी, मौत क्यों ले रही हैं। नाना का पता बता दोगी तो एक लाख इनाम तो मिलेगा ही, साहब आपको मालामाल कर देंगे।’ ‘मैं एक लाख रुपये को चप्पलों की नोक पर रखती हूँ सिपाही। तुम्हें शर्म आनी चाहिए कि तुम हिन्दुस्तानी होकर भी अँग्रेजों के साथ हो।’ अज़ीज़न के उत्तर से सिपाही ही नहीं कमांडर भी नाराज़ हो गया।
‘यह तवायफ़ है। तवायफ़ बहुत चालाक होता है। ऐसे ही कोई जवाब नहीं देगा। इसको कम्बे से बाँद डो। नीचे आग जलाओ। शायद कोई जवाब डे।’ एक हिन्दुस्तानी सिपाही अज़ीज़न को खम्भे में बाँधने के लिए आया। उसने फिर कहा, ‘क्यों मौत ले रही हो। नाना का पता बता तो।’ ‘चुप दोग़ले कहीं के’ अज़ीज़न के मुँह से निकला। सिपाही नाराज़ हो गया। उसने अज़ीज़न को खम्भे में कसकर बाँध दिया। ‘अब मौत बहुत डूर नहीं है। नाना का पता बता डो तो तुम्हें ज़िन्दगी मिल सकटा है।’ ‘मैं मौत स्वीकारती हूँ।’ अज़ीज़न ने कहा।
‘तो ठीक है, हम तुम्हारी मौत के लिए एक गोली खर्च करना भी मुनासिब नहीं समझता। सिपाही नीचे आग जलाओ।’ सिपाही ने नीचे लकड़ियाँ रख करके आग लगा दी। आग की लपटों से अज़ीज़न का शरीर जलने लगा।
‘नाना का पता बता डो मैं तुम्हें अब भी बचा सकता है’, कमांडर ने कहा। अज़ीज़न ने खुदा का नाम लिया। उसका पूरा शरीर जलने लगा। अँग्रेज सिपाही तमाशाई बने देखते रहे। रस्सा जल गया तो अज़ीज़न का शरीर जलती आग पर गिर पड़ा। सिपाहियों ने उसके शरीर पर लकड़ियाँ डाल दीं। अज़ीज़न का प्राण पहले ही निकल चुका था, शरीर भी धीरे-धीरे जलकर ख़ाक हो गया।
मैना की सहकर्मी ने इस दृश्य को दूर से छिपकर देखा था। उसने जाकर मैना को बताया। महिला सेना की सदस्याएँ सतर्क तो हुईं पर उनके लिए बिठूर से अधिक सुरक्षित स्थान कहीं उपलब्ध नहीं था। मैना ने तत्काल निर्णय लिया जो भी होगा देखा जाएगा। हिन्दी, उर्दू, मराठी में पत्रों का लेखन और वितरण जारी रहा। तमाम सावधानी बरतने के बाद भी अँग्रेजों को मैना के अभियान की जानकारी हो ही गई। कैम्पबेल ने सोचा-सारे विद्रोह की जड़ तो यही बिठूर है। जब तक बिठूर के ये भवन बने रहेंगे कानपुर पर आक्रमण की सम्भावनाएँ बनी रहेंगी। हिन्दुस्तानी विद्रोही सैनिक आमतौर पर महिलाओं और बच्चों को अपना निशाना नहीं बनाते थे। पर कैम्पबेल ने निर्णय लिया कि बिठूर को धराशायी कर दिया जाय तथा मैना और उसकी महिला सेना को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया जाय। अपने महिला जासूसों से मैना को इसका पता लग गया। उसने अभियान से जुड़ी महिलाओं को अलग-अलग सुरक्षित जगहों पर पहुँचने का निर्देश दिया। ‘और आप?’ महिलाओं ने पूछा। ‘मेरी नाल तो बिठूर में गड़ी है।’ मैना ने हँसकर उत्तर दिया। ‘तुम लोग चिन्तित न हो मैं अँग्रेजों का सामना करूँगी।’ ‘अकेले ही?’ महिलाओं ने पूछा। ‘हाँ, अकेले ही।’ मैना ने उत्तर दिया। ‘यह नहीं हो सकता।’ महिलाओं ने कहा, ‘आप अकेले अँग्रेजी सेना का मुकाबला कैसे करेंगी?’ ‘यह काम मुझ पर छोड़ दो। तुम लोग सुरक्षित जगहों पर निकल जाओ।’ मैना के बार-बार कहने पर बिठूर के भवनों में रहने वाली बहुत-सी महिलाएँ सुरक्षित स्थानों की ओर निकल गईं। पर कुछ मैना के साथ ही रह गईं। उन्होंने कहा, ‘हम साथ ही जिएँगे, मरेंगे।’
अँग्रेजी सैनिक कुछ हिन्दुस्तानी सैनिकों को साथ ले बिठूर के भवनों को छानते रहे। पहले अभियान में मैना और उसके साथियों का कहीं पता नहीं चल सका। कर्नल को पता लगा कि मैना इन भवनों के बाहर नहीं गई है। सैनिकों ने फिर सघन तलाशी अभियान शुरू कर उस तहखाने को खोज लिया जिसमें मैना और उसकी कुछ सहेलियाँ हिन्दी, उर्दू, मराठी में अख़बार को अन्तिम रूप दे रही थीं। कम्पनी सैनिकों ने दरवाज़ा तोड़ दिया। मैना और उसकी सहायिकाएँ पकड़ ली गईं पर उनके चेहरों पर कोई तनाव नहीं था। कर्नल के सामने मैना को पेश किया गया। ‘टेरा बाप कहाँ है? कर्नल ने पूछा। ‘मैं नहीं जानती।’ मैना का उत्तर था।
‘टुम लोग जानटा है। छिपाता है। छिपाने की सजा जानटा है?’ ‘जानती हूँ।’ मैना ने कहा। ‘टुम अपने बाप का पटा बटा डो। हम टुमे और टुम्हारे कम्पनी को छोर देगा।’ ‘पता बताना सम्भव नहीं है।’ मैना ने स्पष्ट किया। ‘टुमारा ख़ज़ाना कहाँ है?’ कर्नल ने फिर पूछा। ‘यह भी मैं नहीं जानती।’ ‘टो टुमारा खर्चा कैसे चलटा?’ कर्नल ने पूछा। ‘जनता के चन्दे से’, मैना का संक्षिप्त उत्तर। ‘हमें नाना और उसका ख़ज़ाना चाहिए।’ कर्नल ने सख्ती़ से कहा। ‘दोनों मेरे पास नहीं है।’ मैना ने उसी तल्ख़ लहजे़ में जवाब दिया। ‘टुम ये अख़बार कहाँ कहाँ भेजटा है?’ कर्नल ने पूछा। ‘यह नहीं बता सकती।’ ‘टो यही बटा डो तात्या टोपे कहाँ है?’ कर्नल थोड़ा नरम पडे़। ‘मैं नहीं जानती’, मैना का उत्तर।
‘टुम ने अब तक किसी सवाल का जवाब नई दिया। यही बटा डो टेरा चाचा बालाराव कहाँ है?’ कर्नल का प्रश्न। ‘मुझे नहीं मालूम।’ मैना का वही निषेधात्मक उत्तर। ‘टो फिर मौट के लिए टैयार हो जाओ।’ हम किसी को मुआफ़ नहीं करटा। बग़ावत करने वाले को पूरी सज़ा डेटा है।’ कर्नल फिर कुछ सख़्त हो उठे। ‘मैं खुशी खुशी मौत का वरण करूँगी।’
कर्नल को लगा कि मैना बिना किसी प्रताड़ना के सही उत्तर नहीं देगी। उसने एक चिता बनाने का आदेश दिया। सिपाहियों ने लकड़ियाँ इकट्ठी कर चिता बनाई। कर्नल ने कहा, ‘आग लगा दो।’ सिपाहियों ने आग लगा दी। धीरे-धीरे चिता आग पकड़ने लगी।
‘टुमारी मौत का सामान तैयार है। अगर टुम सही-सही जवाब दो टो मौत से बच जाओगी।’
‘जो जवाब देना था मैंने दे दिया। मौत से मैं भयभीत नहीं हूँ।’ मैना ने दो टूक उत्तर दिया। ‘ये कोई जवाब नई डेगा। इसे उठाकर आग में फेंक दो।’ सिपाहियों ने मैना को उठाकर चिता पर डाल दिया। चिता धू-धू कर जलती रही। इसी के साथ पूरा बिठूर ज़मींदोज़ कर दिया गया। अब यहाँ से न तो अख़बार निकल सकेगा, न गुप्त सूचनाएँ प्रसारित हो सकेंगी।
अवध और रुहेलखण्ड में विद्रोही सेनाएँ कम्पनी सेना का मुकाबला कर रही थीं। जहाँ भी कम्पनी सेना को अवसर मिलता, गाँवों को जलातीं, मारकाट करतीं। विद्रोही भी अवध में जमा हो रहे थे। अफ़वाहें जोर पकड़ रही थीं। रोज नई नई अफ़वाहें। दिल्ली में अफ़वाह उड़ी कि नाना साहब, बहादुर शाह ज़फ़र को आज़ाद कराने के लिए आ गए हैं। बहादुर शाह के पहरेदारों को गुप्त आदेश दे दिया गया कि सचमुच नाना दिल्ली के निकट कहीं दिखें तो बादशाह को गोली से उड़ा दिया जाय। दिल्ली से इलाहाबाद तक यमुना के किनारे का इलाका अँग्रेजों के हाथ आ चुका था।



तेईस फरवरी सन अट्ठावन को कैम्पबेल सत्रह हज़ार पैदल, पाँच हज़ार सवार और एक सौ चौंतीस तोपों के साथ कानपुर से लखनऊ के लिए बढ़ा। इतनी सेना को भी काफ़ी नहीं समझा गया, जंगबहादुर की गोरखासेना को भी बुलाया गया। गोरखे पूर्वी उत्तर प्रदेश में इससे पहले भी विद्रोही नेता मुहम्मद हुसैन, कुँवर सिंह और राजा नादिर खाँ से भिड़ चुके थे।
तेईस दिसम्बर 1857 को जंगबहादुर के अधीन नौ हज़ार गोरखाओं का नया सैन्य दल लखनऊ की ओर चला था। कम्पनी सेना के जनरल फ्रैंक और रोक्राफ़्ट के सैन्य दल भी लखनऊ की ओर चले। पच्चीस फरवरी सन अट्ठावन को तीनों सैन्य दल घाघरा पार कर अंबरपुर पहुँचे। अम्बरपुर के छोटे से दुर्ग में केवल चौंतीस भारतीय सिपाही थे। उन्होंने अन्तिम सांस तक सेना का सामना किया। दौरारा दुर्ग पर फ्रैंक ने हमला किया पर वहाँ उसे मुँहकी खानी पड़ी। धीरे धीरे ये सेनाएँ भी लखनऊ की ओर बढ़ती रहीं। ग्यारह मार्च को ये सेनाएँ लखनऊ में कैम्पबेल की सेनाओं से मिलीं।
पिछले चार महीनों से दोनों ओर की सेनाएँ लखनऊ में युद्ध रत थीं। विद्रोही सेना में भी मौलवी अहमद शाह और अन्य सेनापतियों में मतैक्य न हो पाता। इसका लाभ कम्पनी सेना को मिलता। कैम्पबेल के लखनऊ पहुँचने के पहले सर जेम्स ओट्रम चार हज़ार सेना के साथ आलमबाग़ में डटा था। अहमद शाह ने चाहा कि विद्रोही सेनाएँ एक साथ ही ओट्रम पर आक्रमण कर दें और उसकी सेना पर विजय प्राप्त कर ली जाय। पर ऐसा हो नहीं सका। सभी विद्रोही एक जुट नहीं हो सके। अहमद शाह के हाथ में गोली लग गई थी। घाव जैसे कुछ ठीक हुआ, वे मैदान में फिर आ गए।
अभी तक लखनऊ विद्रोही सैनिकों के ही कब्जे़ में था। आलमबाग़ में कम्पनी सेना का जमाव था। विद्रोही सेना में तीस हज़ार सिपाही और पचास हज़ार स्वयं सेवक थे। कैम्पबेल के साथ गोरी और हिन्दोस्तानी सेना में कुल मिलाकर लगभग चालीस हज़ार सैनिक थे। कैम्पबेल ने योजना बनाई, तीन तरफ से लखनऊ पर आक्रमण करने की। सबसे पहले ओट्रम को उत्तर की ओर से हमला करने के लिए छह मार्च को भेजा गया। दूसरी टुकड़ी चारबाग़ से सआदतगंज की ओर बढ़ी। तीसरी टुकड़ी कैम्पबेल के नेतृत्व में हज़रतगंज, कै़सरबाग़ होती हुई आगे बढ़ी। योजना थी तीनों सैन्यदल पश्चिम में आकर मिल जाएँ।
मौलवी अहमद शाह ने छह मार्च की शाम को विद्रोही सैनिकों के बीच एक ओजस्वी भाषण दिया। कहा-अभी तक की हार तुम्हारी हार नहीं है। यह हार विश्वासघातियों की वजह से हुई है। अब उठ पड़ो और दुश्मनों पर छा जाओ। सैनिकों पर इसका असर हुआ। सात मार्च को मौलवी ने ओट्रम की सेना पर आक्रमण कर दिया। आठ मार्च को उजरियाँव की चक्कर कोठी से सेनापति बख़्त खाँ की सेना ने भी हमला कर दिया। भयंकर युद्ध के बाद ओट्रम सफल हुए पर मौलवी और बख़्त खाँ निकल गए। दस मार्च को ओट्रम ने बादशाह बाग़ पर आक्रमण किया और कैम्पबेल ने फ़रहत बख़्श कोठी पर। मोती महल, ख़ुर्शीद मंज़िल और क़ैसर बाग़ में चप्पे चप्पे के लिए लिए युद्ध हुआ। अँग्रेजी फ़ौज दो टुकड़ियों में पत्थर पुल और लोहे के पुल की ओर बढ़ती रही। पहली पर संडीला के राजा हशमत अली और गुलाब सिंह की फ़ौज ने हमला कर दिया। उसके पैर उखड़ गए। दूसरी टुकड़ी को रक्षक तोपों ने मैदान से भागने के लिए विवश किया। अँग्रेजों ने हजरतगंज में बेगम की कोठी पर हमला किया। यहाँ आँगनों और कमरों में युद्ध हुआ। बेगमों ने हथियार उठा लिया। दस मार्च को बादशाह ज़फ़र के पुत्रों का खून पीने वाला हडसन मारा गया। व्रिदोही सैनिकों को थोड़ी संतुष्टि मिली। अँग्रेजों के क़त्लेआम को देखते हुए विद्रोही सैनिक भी आक्रोश में भर उठे। उन्होंने उन कै़दियों को क़त्ल करने की माँग की जो विद्रोही सेना के कब्जे़ में थे। बेगम हज़रत महल ने पुरुष क़ैदियों को दे दिया पर महिला क़ैदियों को अपने संरक्षण में ले लिया। कहा-इन्हें क़त्ल नहीं किया जा सकता।
तेरह और चौदह मार्च को घमासान युद्ध हुआ। इस समय गोरखा सेना भी अँग्रेजों के साथ थी। सआदत अली खाँ के मकबरे को फ़तह कर कम्पनी सेना ने कै़सरबाग़ में प्रवेश किया। बेगम हज़रत महल विद्रोही सैनिकों का मनोबल बढ़ाती रहीं। उनकी महिला सेना भी बहादुरी से लड़ती रही।