प्रेम गली अति साँकरी - 123 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 123

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फ़्रेश होकर मैं फिर से पलंग पर ही बैठ गई | सामने शानदार सोफ़े थे लेकिन मेरा मन वहाँ तक जाने का नहीं हुआ | एक आलसी शरीर व मन का निढाल सा अहसास लिए मैंने अपनी कॉफ़ी मग में निकाली और एक कुकी को थोड़ा सा काटकर मुँह में उसका स्वाद लेने की कोशिश में ही थी कि बाहर ‘नॉक’ हुई | मुँह में जाता कुकी का स्वाद जैसे कहीं दाँत में अटककर रह गया, शायद कुछ बेस्वाद भी कर गया क्योंकि जिस अंदाज़ से बैठी थी उसमें व्यवधान पड़ा था | मुझे व्यवधान ही महसूस हो रहा था जब से यहाँ आई थी |

हाथ में मग पकड़े मैं कुछ एलर्ट सी तो हुई लेकिन खड़ी नहीं हुई|

“रात में अच्छा सा सोया न?” उसी प्यारी महिला के साथ प्रमेश की दीदी पधारीं थीं | उसके हाथ में न जाने कौनसे कपड़े थे जो उन्होंने मुझे देने का इशारा किया|

उन्हें देखते ही मेरा पारा चढ़ने लगा वैसे मैं न तो अधिक गुस्से वाली थी और न ही अविवेकी ! यदि होती तब मैं यहाँ नहीं, कहीं और ही होती | मैं सदा से अपने विचारों व निर्णय के अनुसार चलने वाली एक स्वतंत्र स्त्री थी | शादी जैसे बेकार के बंधन में केवल अपने प्रेम से हटने के लिए ही बंधी थी और सबसे बड़ी बात उस बंदे के लिए जो किसी भी प्रकार से मुझे मोह से छूटने ही नहीं दे रहा था | खुद पर पूरा विश्वास था कि मैं यह रिश्ता निभा लूँगी लेकिन ये कैसा घर था और ये क्या बद्तमीज़ी थी कि मुझे इस कमरे में लाकर पटक दिया गया और वह जो मेरा पति बनकर आया था, वह आखिर था कहाँ? मन हुआ दरवाज़ा खुला है तुरंत उठकर भाग जाऊँ जबकि मंगला ने कुछ खाना बनाने की बात की थी,मुझे लगा था कि इसमें कोई बात नहीं, कर लूँगी कुछ तो दीदी का मन रह जाएगा|

“आज कुछ स्वीट बनाओगी? अम्मा को भी भेजेंगे |” उनका मुँह सपाट था और उनके व्यवहार और बातों से कोई प्रेम नहीं टपक रहा था |मुझे उनकी आँखों में किसी प्रेम का प्रदर्शन दिखाई नहीं दिया|

उनकी इस बात का भी मैंने कोई उत्तर नहीं दिया बल्कि पलंग पर बैठी कॉफ़ी की सिप लेती रही जो अब कुछ ठंडी सी होने लगी थी|

“ये ड्रेस तुम्हारे लिए प्रमेश लेकर आया है| आज इसको पहनेगा तो अच्छा लगेगा ! देखो, कितना सुंदर!” मंगला मेरी ओर वह बैग लेकर बढ़ी जिस पर किसी बड़े ब्रांड का नाम बड़े सुंदर शब्दों में दिखाई दे रहा था जिसमें वह ड्रेस रखी होगी | मैंने उस ब्रांड पर कोई ध्यान नहीं दिया|

माजरा कुछ समझ ही नहीं आ रहा था | प्रमेश ने दो डेट्स के बाद ही अपनी बहन के साथ मिलकर यह खेल कैसे और क्यों खेला होगा जब उसकी अपनी रीढ़ की हड्डी ही मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी | ऐसा कैसे कोई रबर का आदमी हो सकता है? मन और भी बिखरने लगा, सोच में पड़ गई आखिर करूँ क्या? इस दमघोंटू वातावरण में रहना मेरे लिए नामुमकिन था लेकिन न जाने कितने रहस्यमय प्रश्न आँखों के सामने तैर रहे थे|

संस्थान में मेरी अनुपस्थिति से भरपूर उदासी छाई होगी, जानती थी | आज संस्थान की छुट्टी घोषित की गई थी और कल से मैंने मन में वहाँ जाने की तैयारी कर ली थी लेकिन मुझे किसी से यह सब बतलाने की ज़रूरत क्यों होनी चाहिए थी? यह सितारिस्ट क्या करने वाला था, कौन जाने?

“तुम तैयार हो जाना, थोड़ा मीठा बनाना, बाद में अम्मा-पापा के पास प्रमेश के साथ जाना। वो अम्मा बोला था न कुछ पग-फेरा का,पति के साथ जाना होता | अपने हाथ का मिठाई लेकर जाना, कितना खुश होगा सब !”उन्होंने यह कोई आदेश दिया अथवा यूँ ही, न मैंने अधिक कुछ समझने की चेष्टा की और न ही मुझे ज़रूरत महसूस हुई|

“हम चलता है, थोड़ी देर में बाऊदी को लेकर आना मंगला---”उन्होंने पहले मेरी ओर देखकर फिर उस प्यारी महिला की ओर देखकर कहा | उस बेचारी को तो आदेश पालन करने में ही अपना सिर झुकाना ही था|

मैं कुछ नहीं बोली और उनके जाने के बाद अपने हाथ का कॉफ़ी का मग और ज़रा सा काटा हुआ कुकी का टुकड़ा ट्रे में रखकर फिर से रेशमी पलंग पर पसर गई जिसकी सलवटें मुझे चुभ रही थीं| रेशमी, बढ़िया सिल्की सलबटों का चुभना मेरे लिए पहला ही अनुभव था | हमारे यहाँ सूती, बढ़िया क्वालिटी की सादी चादरें बिछाई जाती थीं, न कि रेशम की और हम सबको उन पर कैसी ठसके की नींद आती थी!

खैर,इस समय मानसिक स्थिति कुछ सोचने जैसी थी ही नहीं सो न जाने कितनी देर तक पड़ी रही, कुछ पता न चला, कब नींद आ गई|रात भर तो ऐसी ही कटी थी|

“मे आई कम इन?”एक परिचित आवाज़ और अपरिचित बंदा दरवाज़े पर,मेरे पति के नाम का भ्रम!

क्या उत्तर देती, अपरिचित, अजनबी को? थोड़ा संभलकर बैठ गई, तकियों के सहारे और उस लटकते हुए इंसान को अपनी ओर आते हुए देखती रही|

“हाय! हाऊ आर यू? कंफरटेबली स्लेप्ट ?” फिर से वही बेहूदा सवाल व दमघोंटू वातावरण !

वह आकर पलंग पर ऐसे बैठ गया मानो किसी अजनबी के पलंग पर और किसी अजनबी अहसास को ओढ़कर बैठा हो | अचानक पलंग पर रखे हुए ब्रांडेड बैग पर उसकी दृष्टि पड़ी और एक अजीब सी मुस्कान उसके चेहरे पर मैंने पहली बार देखी|

“डिड यू सी? लाइकड़् इट?” अब उसने पहली बार मेरी आँखों में आँखें डालीं थीं जो मुझे चुभी थीं| क्या किसी पति-पत्नी के बीच ऐसी रात बीती होगी?

मज़ाक ! था, पति-पत्नी के नाम पर ! जैसे दो बार की ‘डेट’जैसे किन्हीं दिनों में उसने मुझे अपने ईमानदार चरित्र का प्रमाण देने की कोशिश की थी, वह सब बकवास था | या फिर और कुछ जो मुझसे छिपाया जा रहा था या फिर इन दोनों बहन-भाइयों के मन में ऐसा कुछ था जो हममें से किसी को भी पचने वाला नहीं था|

क्या मज़ाक बन चुका था मेरा जीवन? जीवन, एक नॉर्मल पटरी पर चलना एक आत्मविश्वास से भरना होता है और यह टूट-फूट जीवन की असंतुलितता को जन्म देती है|

मैं उसकी किसी भी बात का उत्तर नहीं दे पाई,वह कुछ देर मेरे चेहरे पर दृष्टि घुमाता बैठा रहा |

“विल गो टू इंस्टीट्यूट, दीदी सैड, वी हैव टू डू सम फॉर्रमेलिटीज़—”

दीदी न हो गई, बबाल हो गईं | क्या कोई तलवार है दीदी जो सबके गले काटने के लिए तैयार बैठी रहती है | पता नहीं, तलवार है, छुरी या और कुछ लेकिन है तो कुछ जो ऐसे ही जो न जाने किन अजीबोगरीब, खतरनाथ विचारों के साथ ही भटकती रहती है|

प्रमेश के जाने के बाद मैं उठकर तैयार होने चली गई लेकिन मेरा मन उस ब्रांडेड बैग को खोलने का भी नहीं हुआ | मेरे अपने कपड़े जो ड्रेसिंग में रख दिए गए थे उनमें से एक ऐसी सादी साड़ी लेकर तैयार हो गई जैसी मैं अक्सर पहनती ही थी|

जो भी था, जाना तो था ही अम्मा-पापा और सबसे मिलने | इस बार वैसे भी भाई अम्मा-पापा को साथ ही लेकर जाने वाला था जिसकी मानसिक तैयारी वह स्वयं भी कर चुका था और अम्मा-पापा को भी करवा चुका था | संस्थान के व पापा के काम की कोई चिंता थी नहीं | वैसे भी मैं संस्थान की देखरेख के लिए थी ही |

लगभग एक घंटे बाद मंगला आई,

“बाऊदी ! चलेंगे किचन में ?”वह अकेली आती तब सहज लगती थी और मेरा मन होता उसके पास बैठकर कुछ बात करूँ|

वह कभी पलंग पर रखे हुए उस बैग को देखती, कभी मेरी साड़ी को | मैं जैसे पहले रहती थी वैसे ही थी | उसकी माँग में लंबा सा सौभाग्य का सिंदूर चमक रहा था और मेरी माँग वैसी ही सपाट, जैसी पहले रहती थी | वह मेरी ओर काफ़ी देर तक देखती रही फिर बोली;

“बाऊदी ! इतना कैसे प्यारा लगतीं आप?”उसका चेहरा जैसे मुझे देखकर खिल रहा था|

मैंने आगे बढ़कर उसके गाल थपथपा दिए जिससे वह शर्मा गई और भी सुंदर लगने लगी | अब मैं उसे लेकर उस दमघोंटू कमरे से बाहर आ चुकी थी | आगे बढ़कर मैंने एक और बड़ा हॉल पार किया और सुंदर छोटे बागीचे की ओर मेरे पैर मुझे ले बढ़े जहाँ वृक्षों से छनती शीतल पवन ने जैसे अपने आगोश में ले लिया और पहली बार उस वातावरण का प्रभाव मुझ पर शायद कुछ सकारात्मक पड़ा लेकिन उसमें कहीं कोई प्रमेश, दीदी या फिर कोई रोमांस नहीं था | केवल थी एक भरपूर खुली साँस जिसे मैं भरपूर अपने फेफड़ों में भरने के लिए लालायित सी हो चुकी थी | मंगला बेचारी कहाँ कुछ समझ पा रही होगी, वह नासमझ सी मेरे पीछे चलती रही|

फिर याद आया अचानक, मुझे तो जाना कहीं और था और मैं? कुछ देर में ही मैं दीदी के सामने सुंदर, सुगढ़ रसोईघर में थी जहाँ एक कुर्सी पर बैठकर प्रमेश शायद चाय-कॉफ़ी की सिप ले रहा था  | दीदी कुक को कुछ निर्देश दे रही थीं शायद लेकिन मेरे वहाँ पहुंचते ही वे भाई-बहन कुछ असमंजस में मुझे देखने लगे थे |