प्रेम गली अति साँकरी - 121 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 121

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दिल्ली के पौष होटल ‘द लीला पैलेस’का शानदार इंतज़ाम ! शाहनाई के सुरों का पवन के साथ बिखर-बिखर जाना और महत्वपूर्ण अतिथियों का वैभव्यपूर्ण समागम !ए हाई शो जिसमें डरे-सहमे लम्हों के बीच पसरे मेरे दिल की धरती पर सुराग!सब कुछ अंदर-बाहर का खेल!

पार्टी में संस्थान को ही अधिक भाव दिया जा रहा था, कुछ और भी व्यक्तित्व थे जिनका खास ख्याल रखा जा रहा था, प्रमेश रबर के खिलौने सा मुस्कुरा रहा था| जिसे देखकर मेरी भीतर की कुढ़न का अंदाज़ा लगाना किसी के लिए भी संभव नहीं था| 

अम्मा-पापा, भाई-भाभी के पहुंचते ही जैसे सबके चेहरे रौनक होने लगे थे| भाई अपनी हरकत से अब भी बाज़ नहीं आया और न जाने कितने और क्या-क्या गिफ्ट्स लाकर अंदर भिजवाते हुए उसके चेहरे पर कुछ ऐसी संतुष्टि सी उभरने लगी जैसे यह सब मेरे भविष्य-जीवन की निधि हो| इनसे मेरे जीवन की खुशी, संतुष्टि और हाँ प्रसन्नता का आगार परिपूर्ण हो सकता हो| 

“क्यों अम्मा ? ”मेरे मूक प्रश्न ने पास बैठी अम्मा के चेहरे पर फिर से एक नीरव सी बरसात कर दी| वैसे एमिली उन्हें बड़ी सजा-धजाकर लाई थी लेकिन साज-शृंगार मन के मोहताज होते हैं, ऊपरी सतह के नहीं| पापा, जो विदाई के समय भी न जाने कहाँ छिप गए थे, अब मेरे पास ही थे, बिना कुछ बोले-कहे| एक मूक संभाषण हम सबमें ज़ारी था जिसका न ओर, न छोर!

इस सबका अर्थ यही था कि बस---देखा जाएगा| शायद—

पार्टी की समाप्ति पर सबका जाना निश्चित होता ही, सो सब इंतज़ाम की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए, बड़े घर की सुचारू, सुशील बहु की सराहना करते हुए विदा हुए थे| अम्मा ने अब गले लगाया और मैंने महसूस किया कि उनके दो आँसू मेरे आँचल में समाए जैसे किसी माँ के स्तन से कच्चे दूध का ममता भरा कतरा किसी भूखे शिशु के मुँह में टपक पड़े | उन्होंने व पापा ने थपथपाया भी था, कहना चाहते थे ‘अमी! संभलना’!

हँह, संभलेगी अमी? पर क्या ? कहाँ? कैसे? 

मेरे सूखे चेहरे पर एक अजीब सी वितृष्णा पसर गई होगी, मुझे ऐसा लगा था| 

भाई, भाभी, शीला दीदी, रतनी, डॉली, दिव्य बड़ी ज़ोर से चिपटकर रोने लगे जिन्हें लगभग ज़बरदस्ती चलने के लिए एक प्रकार से मज़बूर किया जा रहा था| 

शारीरिक थकान के कारण बुरा हाल और मानसिक थकान के कारण जैसे भू-मंडल का सारा का सारा आकाश चक्कर लगाता सा! अब अंदर जाने का समय आ गया था| दीदी ने मुझे एक घर की सेविका के साथ  मेरे कमरे में भेजा| उस विनम्र बंगाली सेविका को मैंने पहली बार ही देखा था, शायद उसे बंगाल से बुलाया गया था| उसका बंगाल का वधू का शृंगार कुछ कहता सा लगा, अच्छी व आकर्षक मुस्कान से भरी उसने मुझे आकर्षित ही किया था | कमरा क्या एक तरह का हॉल ही था। यह अब तक क्यों नहीं देखा था? मन में विचार आया| उस दिन तो पूरा बँगला देखने के बाद भी इस पर दृष्टि क्यों नहीं पड़ी थी? 

“प्रोमेश बाबू का बैड-रूम” सेविका ने बंगला-हिन्दी के बीच मुसकुराते हुए उस कमरे की रौनक दिखाते हुए बताया था| 

“यह पहले कहाँ था? ”मेरे मुँह से अचानक निकल ही तो गया| 

“बैड-रूम!प्रोमेश बाबू ने शादी के बाद के लिए इसको तैयार कराया न बाऊदी---”उसने कुछ ऐसे बताया जैसे किसी रहस्य की गाँठ खोल रही हो| उसने कमरे के बाहर आकर कद्दावर काँच के दरवाज़े को खोलकर दिखाया जहाँ मैंने पहले किसी बड़े कलाकार की कृति देखी थी| वह तो शायद वही थी किन्तु उसका एंगल बदल जाने से अलग प्रतीत हो रही थी| 

“ओह!”बस मेरे मुँह से इतना ही निकल पाया और शायद हल्का स झटका भी लगा कि प्रमेश ने शादी के बाद के लिए इस खूबसूरत माहौल को इंतज़ाम देने की सोची? ? एक हल्की सी कोई घंटी टन्न सी टकराई शायद !

“आपको फ़्रेश होना होगा बाऊदी? हम जाती, कोई ज़रूरत लगे, हमको ये घंटा देना| ”वह निकल गई| मेरी ज़रूरत के सामान को पहले ही सामने के बड़े ड्रेसिंग में रखवा दिया गया था| उसने मुझे इशारा किया था और मैंने देखा वह ड्रेसिंग भी नक्काशीदार काँच से ढका हुआ था| जहाँ देखो, वहीं काँच के पार्टीशन और उनके पीछे बड़ी-बड़ी मशहूर कलाकारों की कलाकृतियाँ!मन बुझ सा गया, एक कलाकार की दूसरे कलाकार के प्रति इस प्रकार की संवेदना !वास्तव में इंसान बड़ा स्वार्थी है, वह अपनी सही औकात कुछ ही देर में दिखा देता है| 

बड़े से बैडरूम में, बड़े से डबल-बैड के सुंदर, दीपों से सजे हुए कक्ष में विभिन्न पुष्पों की गंध से महकता वातावरण एकाकी होने का अहसास कराते हुए भी क्षण भर को एक उन्माद की झपकी सी दे गया| क्या उस क्षण तुम मेरे पास से पल भर के लिए निकल गए थे उत्पल!? 

काफ़ी समय मैं वहीं अपलक खड़ी रही, न जाने किन विचारों में कुछ कदम पीछे चलकर रेशमी चादर वाली मसहरी के पलंग के कोने पर आ टिकी| हाथ अनायास ही पलंग पर पड़ी चादर पर फिसलने लगे जो आज की खास रात के लिए ही बनवाई गई होगी| अभी तक भीतर कोई नहीं आया था, शायद बाहर के इंतज़ाम का कुछ पेमेंट देखना होगा, ऐसे ही मन में घूमता सा ख्याल आया| फिर झटका भी गया, मुझे इन सब बातों से कभी कोई मतलब रहा ही नहीं था लेकिन यह एक बड़ी नॉर्मल बात थी सो आ गया होगा विचार का झौंक मन में!

फ़्रेश होने के लिए यह भारी साड़ी और आभूषणों का बवंडर उतारना मेरे लिए जंजाल था, इसके बिना मैं फ़्रेश भी कैसे हो सकती थी? मुझे अपनी रात की हल्की पोशाक में आना था और उस रेशमी बिस्तर पर लुढ़क जाना था| इसके लिए शरीर हल्का करने के लिए मैंने धीरे-धीरे थके हुए हाथों से उन सब आभूषणों को निकालकर पलंग पर रखना शुरू कर दिया और कुछ देर में उनसे भार-मुक्त हो सकी| 

एक लंबी साँस छोड़कर मैं लगभग घिसटते हुए ड्रेसिंग की ओर गई, मुँह पर ताज़े पानी का शॉवर मारा और सामने के शीशे में खुद को देखने लगी| अचानक काँच के वॉर्डरौब में मुझे एक खूबसूरत नाइटी लटकी दिखाई दी| ओह!शायद उस सेविका का इशारा उस ओर था| मन फिर से भिन्नाने लगा, कोई बात नहीं, संवाद नहीं, अभी तक उस आदमजात का कुछ पता नहीं जिसके लिए मैं यह नाइटी पहनने वाली थी| और तो और उन दीदी जी का भी कोई आता-पता नहीं जो मुझे कोहिनूर सा दबोचकर लाईं थीं !!लेकिन अभी मेरे सामने यही खुला पड़ा था और मैं बिलकुल बिलकुल आराम चाहती थी| किसी से भी संघर्ष करने के मूड में नहीं थी| 

मैंने बिना कुछ सोचे-समझे अपनी साड़ी निकालकर उस काँच के बड़े से प्लेटफ़ॉर्म पर एक प्रकार से पटक ही दी और नाइटी पहनकर बिना कुछ सोचे-समझे जल्दी से उस पलंग पर आ सिमटी जो रेशमी सिलवटों में शायद किसी धड़कन का इंतज़ार कर रहा था और अभी तक वैसा ही एकाकी था जैसा मैं उसे छोड़कर गई थी| अचानक मुझे अपनी विनोदिनी याद आ गई। जिसको मेरे साथ होना चाहिए था, आखिर अम्मा ने उसको मेरे साथ क्यों नहीं भेजा? मैंने क्या अभी तक अकेले अपना कुछ काम किया था? 

फिर न जाने क्या हुआ मैं उस पलंग के एक कोने में सिमट गई|