आँच - 8 - खुश रहो अहले वतन ! Dr. Suryapal Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँच - 8 - खुश रहो अहले वतन !

अध्याय आठ
खुश रहो अहले वतन !


लखनऊ की हर गली में जाने आलम की ही चर्चा। अँग्रेज बहादुर के बर्ताव की भी आलोचना होती लेकिन दबी ज़बान से। अवाम वाजिद अली शाह की नेकनीयती, दरियादिली की कायल थी। तीतर-बटेर बाज़ से लेकर बड़े-बड़े व्यापारी संभ्रान्त भी दुखी थे। ऐसा बादशाह कहाँ मिलेगा? जब भी हिन्दू या मुस्लिम का कोई तबका कुछ गड़बड़ करता जाने आलम दानिशमंदी और हिम्मत से उसका सामना करते। उन्हें लड़ाई झगडे़ से नफ़रत थी। अमन पसन्द करते थे और चाहते थे कि अवाम भी अमन-चैन से रहे। संगीत में रुचि थी। खुद ‘अख़्तर’ उपनाम से ग़ज़लें भी लिखते थे। इसका यह मतलब नहीं कि वे सख़्त रुख़ नहीं इख़्तियार करते थे। उनका सात्विक आक्रोश हुकूमत के काम में दिखता था। यह वह समय था जब सभी देशों के सामन्त ज़र, ज़मीन और हुस्न पर अपना अधिकार समझते थे। अवध के नवाब भी इश्क और हुस्न के शौक़ीन थे। पर वाजिद अली शाह यदि किसी हुस्नपरी को अपने परीख़ाने में दाखि़ल करा लेते तो उसकी इच्छाओं की क़द्र भी करते। यह किस्सा चर्चा में था कि एक हुस्नपरी को उन्होंने देखा। वह शादी शुदा थी। उसके पति को क़ैद कर लिया गया और उसे परीख़ाने पहुँचा दिया गया। जाने आलम के सामने पेश हुई तो उसने कहा कि मुझे यहाँ का सोना-चाँदी, महल कुछ भी अच्छा नहीं लगता। हम अपने पति के साथ अपनी झोपड़ी में ही खुश रहते हैं। जाने आलम ने उसके पति को रिहा करा कर उसे उसके घर भिजवा दिया।
नवाब वाजिद अली शाह अपनी ताज पोशी के बाद फ़ौज, क़ानून और प्रशासन सभी में सुधार की नीयत से मेहनत करते रहे। वे खुद परेड स्थल पर उपस्थित होते। उन्होंने क़ानून को हाथ में लेने वालों के खि़लाफ़ सख़्त क़दम उठाया। अयोध्या के हनुमान गढ़ी के मामले को उन्होंने जिस दानिशमंदी और हिम्मत से हल किया उसकी सभी ने तारीफ़ की। इससे सर्वधर्म समभाव बनाए रखने वाले शाह की छवि में और इज़ाफ़ा ही हुआ। पर कम्पनी बहादुर तो अवध को हड़पना चाहते थे। इसलिए नवाब के आचरण, दानिशमंदी के बारे में अँग्रेजों द्वारा तरह तरह की अफ़वाहें फैलाई गईं। उन्हें अक्षम और नकारा साबित करने की कोशिश की गई। कम्पनी बहादुर की ओर से सभी प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप किया गया। नवाब के पुरखे ही सुरक्षा का दायित्व कम्पनी सरकार को सौंप कर अवध को अँग्रेजों का बन्धक बना गए थे। उससे निकल पाना नवाब के लिए बहुत मुश्किल था।
नवाब और उनके सिपहसालार सभी दुखी थे। कुछ कम्पनी शासन का आना तय जानकर अँग्रेजों की चापलूसी करने लगे थे। शाही परिवार के लिए
यह बहुत मुश्किल समय था। राजमाता से काम बनता न देखकर ओट्रम ने वज़ीर अली नक़ी खाँ को साधने की कोशिश की। समय को देखते हुए वे अँग्रेज बहादुर के भी खै़रख़्वाह बने रहना चाहते थे। अपनी ओर से उन्होंने संधि पत्र पर दस्तख़त के पक्ष में बात की पर नवाब और राजमाता को सहमत न कर सके।

तीन दिन बीत गए। चार फरवरी की सुबह ओट्रम नवाब से खुद बातचीत करने के लिए ज़र्द महल पहुँचे। महल परिसर में उदासी बरस रही थी। एक धुँधलका सा छाया था। लगता था कि महल उजड़ गया है। रक्षकों से अस्त्र रखवा लिए गए थे। गोलन्दाज़ टुकड़ी को हटा लिया गया था। ओट्रम और उनके साथ आए लोगों की अगवानी के लिए आए अधिकारी भी हथियारबन्द नहीं थे।
नवाब और ओट्रम की बातचीत के समय नवाब के भाई सिकन्दर हशमत वज़ीरे आज़म अली नक़ी खाँ, महाराजाधिराज बालकृष्ण (वित्त मंत्री), रेजीडेन्सी वकील मसीहुद्दौला तथा उनके नायब साहिबुद्दौला भी उपस्थित थे। ओट्रम ने संधिपत्र की एक प्रति नवाब को सौंपी। बहुत भावुक होकर उन्होंने उसे लिया और अपने विश्वास पात्र सेवक तअबित्तुद्दौला को दे दिया। वह भी बहुत भावुक हो गया। संधिपत्र पढ़ते हुए रोने लगा। नवाब ने संधि पत्र को उससे ले लिया। पढ़ते-पढ़ते उन्होंने कहा, ‘इसकी नीयत और मज़मून से वाक़िफ करा दिया गया है।’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद वे ओट्रम की ओर मुख़ातिब हो, चीख़ उठे, ‘मैं इस का़बिल कैसे हुआ? मैंने कौन सी गलती की है?’
‘मैं भी ऊपर का हुक्म बजा रहा हूँ। गर्वनर जनरल साहब के ख़त में नई पालिसी की सारी बातें साफ़ और नुमाया हैं। मैं उसमें किसी तरह का हेर-फेर करने की हैसियत नहीं रखता हूँ। शाही परिवार की परवरिश के लिए सरकार ने रहमदिली से इन्तज़ाम किया है। पदवी, शान और इज़्ज़त बरक़रार रहेगी और पुरुष वारिसों में आगे भी जारी रहेगी।’ नवाब का दर्द फिर फूट पड़ा, ‘क़रार तो बराबर वालों में ज़रूरी होते हैं। मैं अब कौन हूँ जिससे कम्पनी सरकार क़रार करे?’ कुछ क्षण बाद उन्होंने फिर कहा, ‘यह राज कम्पनी सरकार का बनाया हुआ है... वे अब इसे बनाएँ या बिगाड़ें... आगे ले जाएँ
या पीछे... ब्रिटिश हुकूमत की मुख़ालफ़त करने की ज़रा भी कोशिश नहीं की जाएगी। मैं खुद और यहाँ की रैयत सभी ख़ादिम हैं।... मेरे हुक्म से सभी फ़ौजों से हथियार रखवा लिए जाएँगे।......
आप देख ही रहे हैं कि यहाँ की अवाम और सिपाही किसी तरह की मुख़ालफ़त करने में कितने बेमक़्दरत हैं। अब यह इक़रानामा ग़ैर ज़रूरी है क्योंकि मेरी अब इस पर दस्तख़त करने की हैसियत नहीं रही। इक़रारनामे की कोई ज़रूरत भी नहीं है... मुझे बेइज़्ज़त और राज से महरूम किया गया है।
....... अब भारत सरकार को किसी तरह की परवरिश के लिए तकलीफ़ नहीं दूँगा सीधे इंग्लैंड जाऊँगा.... और ब्रिटिश गद्दी और संसद से रहम की अपील करूँगा।’
ओट्रम ने एक और दाँव फेका। अगर संधि पर दस्तख़त नहीं होता है तो हिफ़ाज़ती इन्तज़ाम नहीं किए जा सकते। शाही परिवार की परवरिश के लिए भी कुछ नहीं किया जा सकता। नवाब वाजिद अली शाह सुनते रहे। अली नक़ी खाँ ने भी ओट्रम का समर्थन किया। यह भी संकेत किया कि मैंने हुजूरे आला को समझाने की कोशिश की कि ब्रिटिश हुकूमत की ख़्वाहिशों के मुताबिक काम किया जाय। अली नक़ी खाँ के समर्थन से जाने आलम और उनके भाई सिकन्दर हशमत बहुत आहत हुए। हशमत लगभग चीखते हुए बोल पडे़, ‘इक़रार का यह कोई मौक़ा नहीं हैं।.... नवाब खुद को इक़रार करने के लिए आज़ाद नहीं पा रहे हैं। बिना आज़ाद हुए किसी इक़रार को कैसे अंजाम दिया जा सकता है? शाही हुकूमत गई। कम्पनी हुकूमत तो बहुत ताकतवर है।’
नवाब की आँखों में आँसू भरे हुए थे। वे याद करते रहे कि उनके पुरखों ने कम्पनी हुकूमत का कितना साथ दिया? कितनी सहूलियतें दीं। आज वे खुद कितने बेबस हैं।.... उन्होंने अपनी पगड़ी ओट्रम के हाथों में रखते हुए कहा, ‘सारी पदवियाँ, इज़्ज़त चली गई। अब इक़रारनामे पर दस्तख़त का कोई मतलब नहीं है।... ब्रिटिश सरकार ने ही उनके दादा को गद्दी पर बिठाया था।..... वारिसों का मुस्तकि़्बल क्या होगा?.... बेचारे ठोकरें खाएँगे।.....अब हिन्दुस्तान में मुझे इसका कोई इलाज़ नहीं दिखाई देता।’
ओट्रम और नवाब वाजिद अली शाह की बातचीत बेनतीजा ख़त्म हुई। ओट्रम अपने सहयोगियों के साथ बेलीगारद लौट गए।




अगले दिन पाँच फरवरी को नवाब ने निर्देश जारी कर दिया कि फ़ौज के सभी बकाए अदा कर दिए जाएँ और उन्हें काम से छुट्टी दे दी जाए।
ओट्रम भी अपने साथियों के साथ तैयारियों में लगे थे। उन्होंने नवाब को एक पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि यदि शहर में कोई अशान्ति होती है तो नवाब खुद ज़िम्मेदार होंगे।
नवाब ने जवाब में लिखा कि फ़ौज को काम से छुट्टी दे दी गई है लेकिन पुलिस बल शहर की शान्ति बनाए रखने के लिए तैनात है। उन्होंने दो फ़र्मान जारी किए। दोनों की नकल भी नत्थी करा दी। फ़र्मान एक का सार है-
सभी आमिलों, तअल्लुकेदारों, मालगुज़ारों, जमींदारों, फ़ौज के थानेदारों, कानूनगो, चौधरी तथा सभी रिआया को मालूम हो कि
ब्रिटिश सरकार के हुक्म के तहत उस सरकार के सभी कारकुन अवघ राज की निज़ामत के लिए तैनात किए गए हैं और वे सरकार का काम सँभालेंगे। इसलिए उनके हुक्म का पालन करो, उन्हें मालगुज़ारी अदा करो और उनकी वफ़ादार रैयत बनो। किसी भी तरह की कोई मुख़ालफ़त न हो। फ़ौज को किसी बहाने बग़ावत नहीं करना है क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत के पास सज़ा देने की कुव्वत है।
जब नवाब गवर्नर जनरल की जानकरी में लाने के लिए कलकत्ता रवाना हों तथा महारानी के सामने अपनी बात रखने के लिए इग्लैंड जाएँ तो आप लोग उनके साथ जाने की कोशिश न करें। (जमादुल अव्वल 1272) दूसरा फ़र्मान फ़ौज के अफ़सरों के लिए जारी किया गया। सभी फ़ौजी अफ़सरों को मालूम हो कि सभी नौकरी पर बने रहेंगे तथा अपने काम पर हमेशा की तरह मुस्तैद रहेंगे और किसी तरह की तशददुद या हुक्म उदूली नहीं करेंगे तथा किसी भी बहाने ग़ैर फ़ौजी बर्ताव नहीं करेंगे। आपकी तनख़्वाहें पेशगी काटकर कम्पनी सरकार द्वारा अदा की जाएँगी। कोई भी अपनी नौकरी नहीं छोडे़गा। सभी लोग इस हुक्म का पालन करेंगे।
नवाब ने ख़ामोशी इख़्तियार कर ली। उन्होंने अली नक़ी खाँ पर बहुत भरोसा किया। तरह तरह की अफ़वाहें फैली हुई थीं। वे उन्हें सुनते पर कोई टिप्पणी करने से बचते। राजमाता और भाई हशमत से ही वे अपनी पीड़ा बता सकते थे। देर रात तक अक़्सर तीनों में विचार विमर्श होता। राजमाता हार मानने वाली महिला नहीं थी। उन्होंने अनेक राजनीतिक शड्यंत्रों का सामना किया है। वे लक्ष्य तक पहुँचने का हर संभव प्रयास करतीं। तीनों के बीच इस बात पर सहमति बनी कि विलायत जाकर ब्रिटिश हुकूमत और महारानी से मिलकर अपना पक्ष रखा जाए। गवर्नर जनरल से उन्हें अधिक उम्मीद नहीं थी पर ब्रिटिश हुकूमत और महारानी उनके हक़ को तस्लीम करेगी, ऐसा उनका विश्वास था।
ओट्रम भी परेशान थे। बेलीगारद में बैठकें होतीं। जासूसों से मिलने वाली ख़बरों की समीक्षा होती। ओट्रम ने एक बार फिर राजमाता से मिलने का मन बनाया। उन्हें विश्वास हो चला था कि राजमाता के ‘हाँ’ कह देने पर नवाब दस्तख़त कर ही देंगे। पर राजमाता कोई कमज़ोर महिला नहीं थीं। वे जो ठान लेतीं, कर ही डालतीं। नवाब पर उनका असर था, यह भी सच है। ओट्रम ने राजमाता से ज़र्द महल जाकर फिर बात की। मलिका-ए-आलिया ने भी वही बातें कीं जो पहले कह चुकी थीं। संधिपत्र पर हस्ताक्षर कराने के लिए सहमत नहीं हुईं। ओट्रम ने लालच दिया कि दस्तख़त कर देने पर एक लाख रुपये प्रति वर्ष वृत्ति के रूप में मिलते रहेंगे। पर मलिका-ए-आलिया टस से मस नहीं हुईं। ओट्रम खाली हाथ लौटे।
ओट्रम को सात फरवरी को नवाब का एक संक्षिप्त पत्र मिला जिसमें संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने से मना किया गया था। इस पत्र को पाते ही विकल्प ‘ब’ के तहत ओट्रम ने चीफ कमिष्नर के रूप में दफ़्तरे-विज़ारत जाकर अवध का प्रशासन सँभाल लिया। शहर का दायित्व मेजर बैंक्स और कोतवाल ने सँभाला। दोपहर बारह बजे तक सभी विभागों का चार्ज मंत्रियों और अघिकारियों से राबिन्स और ओमैन्सी ने ले लिया। अँग्रेज अफ़सर घोड़ों पर दौड़ रहे थे। सेना किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी। शहर चुप था पर नवाब के दुर्भाग्य से सभी दुखी थे। हर जगह विषाद छाया था। अमीर-गरीब सभी की आँखों में नवाब के लिए आँसू छलक आए थे। लोग घरों में भी अँग्रेजों के खि़लाफ़ बात करने में डर रहे थे। नई पीढ़ी के बच्चे ज़रूर कुछ आक्रोश में थे पर उन्हें बुजुर्गवार समझा रहे थे। वज़ीर अली नक़ी खाँ को लोग दोषी मान रहे थे। उनके लिए गालियाँ निकल ही जातीं। नक़ी खाँ अँग्रेजों को भी संतुष्ट नहीं कर पा रहे थे क्योंकि वे नवाब से संधिपत्र पर हस्ताक्षर नहीं करा सके। यह अफ़वाह भी फैली कि नक़ी खाँ अँग्रेजों से मिल गए हैं।



हम्ज़ा घर से निकले, बद्रीनाथ भी चौराहे पर दिखे। दोनों आगे बढ़ने वाले ही थे कि पद्मेश तिवारी भागता हुआ आया, कहने लगा,‘हम्ज़ा भाई, नवाबी गई, अभी पता चला है अँग्रेजी हुकूमत ने कब्ज़ा कर लिया है। मैं दफ़्तरे-विज़ारत की तरफ़ गया था। वहाँ अँग्रेजी अफ़सरों की भीड़ इकट्ठी है। रास्ते में भी तैनात हैं।’ और लोगों ने भी सुना। सुनकर सभी अपने घरों की ओर जाने लगे। पद्मेश भी अपने घर की ओर तेज क़दमों से चला गया। दुख सभी को था पर अँग्रेजों से कोई पंगा नहीं लेना चाहता था। एक घुड़सवार एक हाथ में वाजिद अली शाह का फ़र्मान तथा दूसरे हाथ में भोंपा लिए जोर जोर से सुना रहा था-माबदौलत ने आज की तारीख़ से सब राजाओं और तालुकेदारों को सरकार कम्पनी अँग्र्रेज बहादुर के हवाले किया। तुमको चाहिए कि सरकार अँग्रेज बहादुर के अहकाम की तामील करो। अपने तईं उन्हीं की रिआया समझो। हम्ज़ा और बद्रीनाथ ने भी फ़र्मान सुना। ‘बद्रीनाथ, आज फ़ादर क्या पढ़ाएँगे। उनके लिए तो खुशी का दिन है। सभी लोग अपने घरों की ओर ही जा रहे हैं। बाज़ार में एक तरह का सन्नाटा छा गया है। चलो हम भी घर चलते हैं। तुम भी मेरे साथ चलो।’ हम्ज़ा ने बद्री से कहा। बद्रीनाथ अपने घर सन्देश भिजवाकर हम्ज़ा के साथ चल पड़े। ये दोनों हम्ज़ा के घर पहुँचे ही थे कि ईमान भी बाज़ार से लौट आया। उसके आते ही हम्ज़ा ने पूछा, ‘ईमान भाई बाज़ार में क्या देखा?’ ‘बड़ी ख़राब ख़बर है भाई जान। नवाब जाने-आलम ने ख़ुद अवध का राज अँग्रेजों को सौंप दिया। बाज़ार में ग़मी का माहौल बरपा हो गया। बहुत से कारीगर भी अपना काम बन्द कर घर चले गए। रास्ते में मैंने नवाब का फ़र्मान भी सुना।’ ईमान अन्दर से कहीं हिल गया था।
‘कोई ख़ुद अपना राज दूसरे को नहीं देता। कोई मजबूरी रही होगी।’ बद्री बोल पड़े।
‘भाई बद्री तुम्हें अंदाज़ नहीं है कि यह अँग्रेजी हुकूमत क्या क़हर ढाएगी। हम लोग तो बंगाल में भुगत रहे हैं।’
‘हम लोग भी भुगतेंगे ही।’ हम्ज़ा भी दुखी थे।
‘देखिएगा भाई जान खेती का लगान बढ़ जाएगा। गाँवों में जो पंचायतें काम कर रही हैं उन्हें ख़त्म कर दिया जाएगा। संस्कृत इदारे और मकतब जो गाँव-गाँव फैले हैं, उनकी देखभाल नहीं हो पाएगी। सूत और कपड़ा बनाने वाले कारीगरों को तंग होना पड़ेगा। किसान अपना माल शहर में बेचने के लिए लाएँगे तो उन्हें अधिक चुंगी देनी पड़ेगी।’ ईमान ने बंगाल में जो देखा है उसी की संभावना यहाँ भी देख रहा था। ‘अँग्रेजों के काम में आने वाले माल पर चुंगी नहीं लगती है। ऐसा क्यों है?’ बद्री ने पूछा। ‘अँग्रेज यहाँ धन कमाने आए हैं पर वे यहाँ की पंचायत, शिक्षा आदि को नष्ट कर अपने लिए लाभकारी व्यवस्था बनाना चाहते हैं।’ ईमान रह रहकर उबल पड़ता था। हम्ज़ा की अम्मी मीठा चिल्ला बना रही थीं। जैसे ही उन्होंने यह ख़बर सुनी, नसरीन को बुलाकर कहा,
‘बेटी यह बना लो। मेरा मन नहीं कर रहा है कि बनाऊँ।’ वे उठीं हाथ धोया बिस्तर पर लेट गईं। रफीक ताँगे वाला भी आकर पूछने लगा, ‘भैया हम्ज़ा यह क्या हुआ?’
‘चच्चा जो तुम देख रहे हो वही मैं भी देख रहा हूँ।’ हम्ज़ा ने उठकर कहा। इसी बीच बगल के तेवराइन काकी की दस्तक हुई। ‘कहाँ हो नसरीन की अम्मा?’ कहती हुई अन्दर चली गईं। नसरीन की अम्मी भी उठकर बोलीं, ‘आओ चच्ची आओ।’
‘यह क्या सुन रही हूँ नसरीन की अम्मा। नवाबी राज के बदले का अँग्रेजी राज चली?’ काकी बात को आगे बढ़ाते लकड़ी के पीढ़े पर बैठ गईं। सामने ही नसरीन की माँ भी दूसरे पीढ़े पर बैठकर बतियाने लगीं।
तेवराइन ने सुँघनी निकाली और सूँधने लगीं। एक चुटकी नसरीन की अम्मा को भी दिया।

हर गली-कूचे में एक ही सवाल ,‘अब क्या होगा?’ जो व्यापारी अँग्रेजों के मुँह लगे थे, वे आश्वस्त थे। आमजन और नवाब के कर्मचारी, अधिकारी सभी हताश, बेबस लग रहे थे। जीविका का साधन ख़त्म हो गया था। हरम की औरतें भी परीशान थीं। जो कुछ उनके हाथ आया था उसे ख़त्म होने में कितनी देर लगेगी?
हर दिन कोई न कोई अफ़वाह उड़ती। एक दिन यह ख़बर उड़ी कि नवाब विलायत जाने की तैयारी कर रहे हैं। शाही महलों में सफ़र की तैयारियाँ हो रही हैं। लम्बा सफ़र है, बहुत दिन लगेंगे। इसलिए तैयारी भी मुकम्मल होनी चाहिए। नवाब वाजिद अली शाह और मलिका-ए-आलिया ने अँग्रेज मेज़र बर्ड जो लखनऊ में उप रेजीडेन्ट रह चुके थे, से सम्पर्क साधा। उन्हें विलायत में पैरवी में सहयोग करने के लिए चुना। उन्होंने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया और नवाब की पैरवी के लिए विलायत गए।
तेरह मार्च को शाही कारवाँ जिसमें लगभग एक हज़ार लोग थे कानपुर होते हुए कलकत्ता के लिए रवाना हुआ। नवाब जाने आलम और मलिका-ए-आलिया इकट्ठी रैयत को देखकर दुखी होते। बद्री, हम्ज़ा, ईमान पहुँचे ही थे मौलवी फ़ख़रुद्दीन अहमद भी पहुँच गए। तीनों ने मौलवी को आदाब किया। मौलवी भी बहुत दुखी थे। सभी मौन, किसी के मुँह से कोई आवाज़ नहीं। बिर्जीस क़द्र अपनी माँ हज़रत महल के साथ खड़े थे। जाने आलम ने उन्हें एक नज़र देखा। माँ-बेटे दोनों विकल थे। सभी बेगमों को साथ चलने की इजाज़त नहीं थी। इतने बडे़ परिवार को सँभालना आसान न था।
जाने आलम भी क़ैसरबाग़ लौट सकेंगे कौन जाने? क़ैसर बाग़ को उन्होंने बड़ी हसरत और मेहनत से बनवाया था। अब वे छोड़ रहे हैं। राजमाता सहित सभी महिलाओं की आँखों में आँसू थे। कुछ को हिचकियाँ आ रही थीं। कारवाँ बढ़ा। जनता का टिड्डीदल उन्हें रोकता दुख प्रकट करता। जाने आलम ने समझाने के अन्दाज़ में कहा ‘तुम सब पर दस बरस मैंने हुकूमत की। इस अरसे में जो सदमा और रंज मेरी जान से तुम सब को पहुँचा हो उसको बखुशी माफ़ कर दो। इस वक़्त मैं माजूर हूँ और तुमसे जुदा हो रहा हूँ। खुदा जाने ज़िन्दगी में फिर मिलूँ या न मिलूँ।’ जाने आलम के शब्द लोगों के कलेजे में तीर की तरह चुभ गए। थोड़े से शब्दों ने मज़मे को मजलिसे मातम बना दिया। लोग कराह उठे। हज़रत मुनव्वरूद्दौला अहमद अली खाँ ने रोते हुए कहा, ‘ऐसे वक़्त में गुलाम को क़दमों से जुदा तो न करो।’ सुलताने आलम ‘चुप हो गए।’ हिन्दू-मुस्लिम, छोटे बड़े सभी साथ चलने को आतुर। लौट जाने का आग्रह करने पर भी कारवाँ बढ़ता ही गया। लखनऊ-कानपुर सड़क उन्हीं के समय में बनी है। आज अपनी ही बनवाई सड़क पर वे चल रहे हैं। बंथरा पहुँचते पहुँचते जनता का रेला। जो जहाँ सुनता दौड़ पड़ता, एक नज़र देखने के लिए। बंथरामें कारवां रुका। जाने आलम ने सभी से लौटने का आग्रह किया। वही बातें दुहराई जो उन्होंने कै़सरबाग़ छोड़ते हुए कही थी। जाने आलम का दर्द बेकाबू हो रहा था। वह एक नज़्म में फूट पड़ा तो उन्हें राहत मिली। वे गुनगुना उठे-

शबो अंदोह में रो रो के बसर करते हैं
दिन को किस रंजो-तरद्दुद में गुज़र करते हैं।
नाला-ओ-आह ग़रज़ आठ पहर करते हैं
दरो-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
रुख़्सत अय अहले वतन! हम तो सफ़र करते हैं
दोस्तो शाद रहो तुम को ख़ुदा को सौंपा
कै़सर बाग़ जो है उसको सबा को सौंपा
हमने अपने दिले नाज़ुक को ज़फ़ा को सौंपा
दरो-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
रुख़्सत अय अहले वतन! हम तो सफ़र करते हैं।
शिकवा किससे करूँ यां दोस्त ने मारा मुझको
जुज़ ख़ुदा के नहीं अब कोई सहारा मुझको
नज़र आता नहीं बिन जाए गुज़ारा मुझको
दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
रुख़्सत अय अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं।
गर्दिशे चर्ख़ ने यह बात भी सुनवाई है
अपने मालिक को यह नौकर कहे सौदाई है
अब तो दरपेश हमें वादिया पैमाई है
दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
रुख़्सत अय अहले वतन! हम तो सफ़र करते हैं।
किससे फ़रियाद करूँ है यही रिक़्क़त का मकाम
कैसा कैसा मिरा अस्बाब हुआ है नीलाम
मेरे जाने से हर इक घर में पड़ा है कुहराम
दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
रुख़्सत अय अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं।
रंज जो है उसे अब अय दिले-पुरदर्द उठा
ताज़ियाख़ानों तलक का मिरा अस्बाब लुटा
फ़स्ले-गर्मी में तास्सुफ़! मिला घर तक है
छुटा दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
रुख़्सत अय अहले वतन! हम तो सफ़र करते हैं।
सारे अब शहर से होता है ये ‘अख़्तर’ रुख़्सत
आगे बस अब नहीं कहने की है मुझको फ़ुर्सत
हो न बरबाद मिरे मुल्क की या रब खिल्क़त
दरो दीवार पे हसरत से नज़र करते है
रुख़्सत अय अहले वतन ! हम तो सफ़र करते हैं।
इस नज़्म में तरमीम भी किया।
‘रुख़्सत अय अहले वतन’ की जगह ‘खुश रहो अहले वतन’ कर दिया। जाने आलम समझाते पर कानपुर तक बहुत लोग साथ गए। अँग्रेजों की पहरेदारी में कानपुर में एक बँगले में रुक ना हुआ। धीरे धीरे बहुत से लोग लौटे। कुछ दिन आराम के बाद गंगा नदी के रास्ते बनारस तक की यात्रा। वहाँ भी कुछ दिन विश्राम के बाद दहकानी जहाज से कलकत्ता तक की यात्रा। शाही कारवाँ को लखनऊ से कलकत्ता पहुँचने में दो माह का समय लगा। तेरह मई को कलकत्ता पहुँचने पर जाने आलम उम्मीद कर रहे थे कि उन्हें तोपों की सलामी दी जायगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। टामस मेंजीज़ ने बड़े लाट को उनके आगमन की सूचना दी। शाह जब बड़े लाट से मिले सलामी न मिलने की शिकायत की। शिकायत दूर करने के लिए बन्दूकें उनके सम्मान में दाग दी गईं।
कलकत्ता पहुँचते जाने आलम बीमार पड़ गए। विलायत जाना ज़रूरी था पर स्वास्थ्य आडे़ आ गया। राजमाता ने कमान सँभाली। उन्होंने अपने साथ जाने वालों का एक दल तैयार किया। लखनऊ में उप रेजीडेन्ट रहे मेज़र बर्ड की सेवाएँ ले ही चुकी थीं। राजमाता के साथ नवाब के छोटे भाई हशमत, भावी वारिस मिर्ज़ा फ़लक क़द्र, मौलवी मसीहुद्दीन तथा कुछ कारकुन, विश्वास पात्र सेवक तैयार हुए। राजमाता ने मलिका विक्टोरिया के लिए अलमास, याकूत के हार तथा अन्य आभूषण सहेज कर रखवाया। अठारह जून को रात के अन्तिम प्रहर पूरा दल पानी वाले जहाज पर सवार हुआ। लोगों की आँखो में आँसू थे। दूर की यात्रा, क्या होगा कौन जाने? सुबह जहाज ने लंगर उठाई, नवाब की कोठी के सामने से गुज़रा। जाने आलम ने वरामदे में खड़े होकर हाथ उठा ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ कहा। सभी की आँखों में आँसू ग़मों की बरसात। जब तक जहाज दिखाई पड़ता रहा, जाने आलम हसरत भरी निगाहों से उसे देखते रहे।
कुछ दिन बाद ही जाने आलम पर शिकंजा और कसा। उन्हें कुछ थोड़े आदमियों को ही साथ रखने की अनुमति मिली। उनका मन क़ैदखाने से मुक्ति चाहता पर अब यह कहाँ संभव था? ज़िन्दगी की स्मृतियाँ उभरतीं। उनके मन को बार बार कुरेदतीं। बचपन से लेकर शाही जीवन तक की स्मृतियाँ उनका पीछा करतीं। अपने एक पत्र में वे बयां करते हैं, ‘हर तरफ पहरा है। दो रफ़ीक़ हैं एक ख़ौफ़ दूसरा हिरास। एक क़ैदख़ाने में हम पडे़ हुए हैं। चारों तरफ हिरासत है। हमारे साथ बारह आदमी मुसीबत झेल रहे हैं। हर एक अपने दीन से बेज़ार है, क़ैद-ग़म में गिरफ़्तार है। मिश्ती व खाकरू आते हैं, उनके साथ एक एक अँग्रेज भी आता है। मजाल क्या है जो मुँह से बोल सकें। कैदख़ाने की कोठी बहुत वसीह है पर अपने किस काम की? हर वक़्त दरवाज़ा बन्द, गरमी से दिल तंग, परेशान हालते तबा हूँ। जब दरवाज़े खुलते हैं तो घूप की शिद्दत से जान बेतार होती है। कई मर्तबा लाट साहब को भी शिकायती खुतूत भेजे, किसी का जवाब नहीं आया।’ तनहाई उन्हें खल रही थी। उनका दुःख ग़ज़लों व नज़्मों में फूट पड़ता। उन्होंने अपने दर्द का चित्र खींचा-

कोई रंज जिन्दां में ऐसा नहीं
जो इस बेसरो-पा को पहुँचा नहीं
दिले-ज़ार हर्गिज़ सँभलता नहीं
वह कोहे-गरां है कि टलता नहीं
हर इक सम्त पहरा हर सम्त यास
रफ़ीकों-मुलाजिम में ख़ौफ़ो-हिरास।
वे अपनी तुलना उस बुलबुल से करते जिसका कोई ठिकाना नहीं-
वो बुलबुल मरदूदे बहार और खि़जा हूँ
जिसका कि ठिकाना न चमन में न कफ़स में।