छाह देते दरख्तों की जड़ों पर अतिक्रमण Gunavathi Bendukurthi द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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छाह देते दरख्तों की जड़ों पर अतिक्रमण

मनुष्य समाज मे व्याप्त संस्कृति का निर्माण कर इसे सहेज कर रखता  है तथा इसे एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक सम्प्रेषित  भी करता  है।  किसी भी समाज की आत्मा वहां की  संस्कृति होती है | इसमें उन सभी संस्कारों तथा उपलब्धियों का बोध होता है जिसके सहारे सामूहिक अथवा सामाजिक जीवन व्यवस्था, लक्ष्यों एवं आदर्शों का निर्माण किया जाता है | हम स्वयं को उस संस्कृति के लक्षणों से जान सकते है जो हममें व्याप्त है। संस्कृति मात्र भोजन, सुंदर कलाकृतियाँ डिज़ाइनर वेशभूषा और एथनिक कपड़ों की पहचान नही है, लेकिन उस भोजन को खाने , कपड़ों को पहनने मे जो कला दिखाई पड़ती है वही सही अर्थ में संस्कृति की सही पहचान  होती  है। अनेक शताब्दियों से लोग सांस्कृतिक प्रथाओं के अनुसार  खाने - पीने  , धर्म - कर्म करने ,सोंचने  - समझने का कार्य करते है उनके इन कार्यों से उनकी  संस्कृति उत्पन्न होती है। हमारी संस्कृति  का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ  हमारे जन्म जन्मांतर तक चलता है। 

भारत देश की संस्कृति हम भारतीयों की पहचान रही है। भारत देश के विभिन्न राज्यों की अपनी एक अलग संस्कृति की महत्ता के साथ भाषा के रेखाचित्र का निर्माण किया गया है जिसे मातृभाषा कहा जाता है। संस्कृति की संचयी और निगमन युक्त प्रवृत्ति नूतन समाजिक आदर्श को जन्म देती है। मातृभाषा के माध्यम से सामाजिक आदर्शों का प्रवासियों के मध्य संचार  (संतान ) उन्हें अत्यधिक रूप से प्रभावित करता है । भाषा संस्कृति का हिस्सा है। रीति-रिवाजों और समाज को जोड़ने का एकमात्र तरीका मातृभाषा है। नमस्कारम (तेलुगु भाषा में )और (वणक्कम तमिल भाषा में ) और (हलाया मलयालम भाषा में ) आदि जैसे सांस्कृतिक कथन एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से और आगे चलकर यह उन व्यक्तियों को पूरे स्थानीय समूह से बांधते है। अपने ऐतिहासिक काल से ही भारत में भाषा और भाषा से जुड़े अन्य तथ्यों पर काफी नुकसान और हमला हुआ है। इसे ध्यान में रखते हुए, प्रख्यात हिंदी साहित्यिक दिग्गज प्रभु जोशी ने कहा कि, ‘एक तरफ ताजमहल और लाल किले जैसी राष्ट्रीय विरासत की एक ईंट को तोड़ने से अपराध कायम रहता है, जबकि दूसरी तरफ भाषा जैसी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विरासत को पूरी तरह से नष्ट किया जा रहा है जबकि हम चुप रहते है।” यहां इसी चुप्पी को तोड़ने का मेरा प्रयास रहा है।

गत वर्षों में तेलंगाना राज्य की आधिकारिक तेलुगु भाषा और तेलंगी डायलेक्ट पर किये जा रहे हमले के प्रति प्रभुत्व की तरफ से सामूहिक मौन दिखाई पड़ रहा है। उनके इस उदासीनता के परिणामस्वरूप हैदराबाद शहर और उसकी परिधि के आस-पास आने वाले तेलंगाना इलाकों में एक विशिष्ट सांस्कृतिक वर्चस्व और आधिपत्य का उदय हुआ है। भारत देश के आधुनिकतम राजधानियों की सूची में आज तेलंगाना  की राजधानी हैदराबाद शहर अपना नाम दर्ज़  कराने की अंधाधुंध दौड़ में  शामिल है। इस होड़ में  यह शहर अपनी   प्राचीन पारम्परिक  संस्कृति की पहचान को उससे दूर कर रहा है ठीक उस छाह देते दरख्तों के सामान जिसका यहां कभी अस्तित्व हुआ करता था। यह तथ्य स्पष्ट करता है कि अब शायद ही यहां तेलुगु (तल्ली) की छाह भरी आँचल  में सुकून के आशियाने लिए परिदृश्य  कही देखने को मिल जाए। हैदराबाद शहर में बड़े -बड़े आसमान छूते अपने अस्तित्व को अनदेखा करते सीमेंट से बने बिल्डिंग रूपी कंकालों का  बड़ी तेज़ी से विस्तार हो रहा है।  यहां का यह भौगोलिक विस्तार राक्षसी रूप लेकर इसके बाहरी इलाकों तक भी अपने खूंखार पंजे गाड़ विकास के नाम पर इसे निगल रहा है। यह न केवल पारंपरिक ग्रामीण क्षेत्रों की सुंदरता को बल्कि शहरीकरण के नाम पर उनकी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को भी आस्तित्वहीन कर रहा है। यहां की बढ़ती आबादी और इस भयावह परिस्थिति का मुख्य कारण निःसन्देह यहां की अप्रवासी आबादी है। स्त्रोत अनुसार वर्ष 1980 से दक्षिण भारत में उत्तर भारत के प्रवासियों का पलायन इस बढ़ती आबादी का एक मुख्य स्त्रोत माना जा सकता है। हैदराबाद शहर में हो रहे आबादी विस्तारीकरण ने विचारणीय तथ्य को उभार हमारे समक्ष जो महत्वपूर्ण सवाल खड़ा कर दिया है वह यह कि “हैदराबादियों को कब तक और कितनी अवधि के लिए एक सहनशील  हैदराबादी बन यहां  की स्थलाकृति और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर थोपे गए बदलाव को अनदेखा कर इन तथ्यों से अनजान बने रहना चाहिए” ?! 

 

गत दो दशकों से हैदराबाद के विस्तृत क्षेत्र में ऐसी परेशान करने वाली हानिकारक प्रवृत्ति का उदय हो रहा है जिसमें विशेष रूप से दुकानों के नाम पटल पर लिखे जाने वाली भाषा में हानिकारक बदलाव दिखाई पड़ता है। यह एक विशिष्ट भाषा के साथ नामों को प्रतिस्थापित करने की समस्याग्रस्त प्रथा है। यह प्रथा हैदराबाद के वाणिज्यिक क्षेत्रों  में उदाहरण के तौर पर कोटी, पंजागुट्टा, अमीरपेट, चंदानगर, कुकटपल्ली, बेगमबाज़ार और सिकंदराबाद जैसे कई अनेक स्थलों पर अपने पैर पसार रही है। दुकानों पर लिखी गई नाम-पट्टिकाएँ और मंदिरों  के सामने प्रदर्शित नाम-पट्टिकाएँ वाणिज्यिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों  में एक प्रमुख स्थान रखती हैं। ये नाम-पट्टिकाएँ ग्राहकों और भक्तों के लिए एक सम्मानपूर्वक और स्वयं सूचित साधन है। इसमें कोई दोराह नही कि मंदिर पर मुद्रित नाम पट्टिकाओं पर देवता की छवि के साथ-साथ मंदिर के नाम को  प्रिंट करवाए जाने की पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान यहां के  क्षेत्रीय विशिष्ट भाषाई महत्व को भी दर्शाता है। तेलंगाना राज्य में यहां की स्थानीय तेलंगाना डायलेक्ट की तेलुगु भाषा में देवियों के नाम  ‘मैसम्मा’ या पोलेरम्मा’ (नाम के पीछे अम्मा शब्द लगाकर ) सम्मान के साथ लिया जाता है जो उनके नाम की महत्ता को बताते  है। यह देवियां जो ‘दुर्गा देवी’, और ‘काली माता’  की प्रतिरूप मानी जाती है , आज तेलंगाना राज्य में   ‘अम्मा’ शब्द के बजाय ‘माता’  शब्द से अपनी प्रतिष्ठा और परिचय पाने हेतु बाध्य है। विचारणीय है कि यहां के स्थानीय नामों को अनदेखा कर अन्यत्र प्रचलित नामों को प्रतिस्थापित करने का चलन इस प्रदेश में शुरू हो गया है। तेलंगाना के सांस्कृतिक लोकाचार को, स्थानीय नामकरण को विभिन्न कारणों से नजरअंदाज कर दिया गया है और इसका उल्लंघन किया जा रहा है। यह ध्यान देने योग्य है कि तेलुगु भाषा में उच्चारण किए जाने वाले 'अम्मा' शब्द की जगह हिंदी के 'माता' शब्द ने ले ली है।

 

नाम पट्टिकाओं को प्रदर्शित करने के  तथ्य में विचारणीय है कि यहां के क्षेत्रीय पहचान को क्षतिग्रस्त करते हुए हम अन्य सांस्कृतिक प्रभुत्व के साथ -साथ अन्य भाषाई आधिपत्य के एक गंभीर संकट को अनायास ही बढ़ावा दे रहे है। इस संदर्भ में, हैदराबाद शहर के ऐतिहासिक स्मारक चारमीनार से सटे पूर्ववर्ती "मैसम्मा मंदिर" को फिर से देखना अत्यंत  महत्वपूर्ण तथ्य हो जाता है । ध्यातव्य है कि कुछ ऐतिहासिक, धार्मिक और रजनीतिक कारणो से इसे " श्री भाग्यलक्ष्मी मंदिर" कहना शुरू कर दिया गया। हालांकि, इतिहास में इस सांस्कृतिक विरासत के नाम बदलने की इस घटना को धार्मिक-पौराणिक कथाओं पर आधारित कथाओं से जोड़ा गया है। उनमें से एक यह कि हैदराबाद शहर का नाम ‘भाग्यनगर’ था जहां से इसे लिया गया है । बताया जाता है की हैदराबाद के पूर्व शासक और शहर के संस्थापक कुली कुतुब शाह को भागमती नाम की एक नर्तकी से प्यार हो गया और उन्होंने शहर का नाम उनके नाम पर रखा।  एक अन्य मौखिक इतिहास का स्त्रोत यहां की धार्मिक गाथा पर आधारित है। प्रमुख धार्मिक-पौराणिक कथा जिसे (मिथक) रूप में  एक दूसरे को ज़बानी बोली और सुनाई जाती है  वह कहानी  हैदराबाद शहर में विनाशकारी बाढ़ से और यहां के माता की शक्ति और लोगों की निष्ठा से जुडी है। यह मान्यता रही कि  हैदराबाद शहर में पानी का  सैलाब उमडा और मूसी नदी का जल स्तर उफान भरता चारमीनार मैसम्मा मंदिर की ओर  बहने लगा। तब देवी मैसम्मा ने इस शहर की रक्षा की। यह उनकी कृपा थी कि उन्होंने पानी को चारमीनार से आगे नहीं जाने दिया। समय के बीत जाने के साथ, मूसी नदी का पानी और इस घटना से सम्बन्धित उनका यह विश्वास भी एक पीढ़ी तक सीमित रह अतीत की गर्त में  कही खो गया । बताया जाता है की चारमीनार  के पास स्थित एक पत्थर को यहां  के स्थनीयों ने  चारमीनार मैसम्मा की मूर्ति के प्रतीक रूप में विराजमान किया। मूर्ति की सजावट के लिए  उसके मुख को हल्दी से हल्दिमय किया जाता जो पीले रंग यानी  शक्ति का प्रतीक था। उनकी आंखों के बीच स्थित उनके माथे को लाल कुमकुम बिंदी से सजाया जाता । माता की  मूर्ति को दक्षिण भारत में निर्मित पट्टू की साडी से यहां के विधि विधान अनुसार बांधने की प्रथा प्रचलित थी। इतिहास के गर्त में लुप्त मैसम्मा गुड़ी में विराजमान मैसम्मा मूर्ति की छवि  की कुछ मुख्य विशेषताओं को यहां बताया गया है। लेकिन अब यह इतिहास बन चुका है जिसके बारे में यहां के आने वाली पीढ़ी अनजान है जिसे एक विचारणीय तथ्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। वर्तमान में मंदिर के नाम के साथ -साथ मंदिर में विराजमान मूर्ति का आकार भी अपने पिछले रूप से भिन्न  एक विदेशी रूप का द्यौतक जान पड़ती है। यहां पूजा के विधि विधान में और मंदिर में स्थापित मूर्ति की सजावट में स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है। अधिकतर हिंदी भाषा के भजनों को चलाये जाना और इंटरनेट में फेसबुक जैसे माध्यम से हिंदी भाषा में ही दिन की गतिविधियों को बताया जा रहा है जो यहां के प्रवासियों की नर्लिप्तता युक्त प्रवृत्ति को उजागर करती है।

 

हैदराबाद के पुराने शहर में  पुरानापुल , लालदरवाजा और चंद्रयानगुट्टा जैसे स्थानों पर रहने वाले वयोवृद्धों ने बताया कि मंदिर की नाम पट्टिका पर स्थानीय भाषा के अक्षरों से मैसम्मा गुड़ी नाम मुद्रित था। हालाँकि,विचारणीय है कि  वर्तमान परिदृश्य में वही तेलुगु अक्षर सबसे निचले स्थान पर मुद्रित  है,  जिसने  तेलुगु भाषा के महत्व को कम कर दिया है। मंदिर के नाम पट्टिका पर लिखे गए भाषाओं के क्रम में प्रथम श्रेणी में अंग्रेजी भाषा के बड़े अक्षरों के साथ "श्री भाग्य लक्ष्मी टेम्पल" , दूसरे क्रम में हिंदी भाषा में "श्री भाग्य लक्ष्मी मंदिर" और पदानुक्रम में सबसे निचले क्रम में तेलुगु भाषा में "श्री भाग्य लक्ष्मी देवालयम" लिखा गया है। नाम पट्टिका पर मुद्रित अंग्रेजी और तेलुगु  दोनों भाषा के अक्षरों को एक महत्वपूर्ण फ़ॉन्ट और सुनहरे पीले रंग की चमक, में लिखा गया है  जिसके परिणामस्वरूप यह अक्षर पढ़ने और ध्यान देने योग्य नही है जिसे इसके सांकेतिक विश्लेषण के रूप में समझा जा सकता है।  अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषाओं के बीच में हिंदी के अक्षर को पठनीय फ़ॉन्ट आकार में  लिखा  गया है जिन्हे गुलाबी रंग की पृष्ठभूमि पर मोटे काले रंग के बड़े-बड़े आकार में  पढ़े और देखे जा सकते है । बदलती लहर के मद्देनजर भाषाई महत्व को उजागर करने के लिए स्थानीय भाषा को निम्न स्तर पर लाया गया है। स्पष्ट है की क्षेत्रीय तेलुगु भाषा का स्तर कम कर दिया गया। इसकी रंग संरचना और क्रम के पदानुक्रम का स्थान भी  स्वयं में दयनीय स्थान रखता है। यह अक्षर गुलाबी रंग की पृष्ठभूमि में अपना अस्तित्व खोजने के लिए मजबूर है। गुलाबी रंग तेलंगाना राज्य के पूर्व सत्तारूढ़ हिस्से का रंग रहा है। कह सकते है कि इस धार्मिक स्थान को उस समय की राजनीति परिपेक्ष्य के साथ संबद्धता के संकेत के रूप में गुलाबी रंग को अपनाने के लिए लागू किया गया है। संभवतः इसे हैदराबाद के धार्मिक क्षेत्र में उसके अस्तित्व के साथ किये जा रहे  एक अक्षम्य परिवर्तन के रूप में देखा जाना चाहिए।  अतः इसे हाल के इतिहास में ऐतिहासिक भाषाई अर्थ के सार को खोने की कीमत पर चल रही घटना से परिचय प्राप्त करने के महत्वपूर्ण पेंच के तौर पर देखा जाना चाहिए।

 

तेलंगाना राज्य का वार्षिक क्षेत्रीय सामयिक उत्सव “बोनालू ” है. परंपरागत रूप से, इस त्योहार की विशेषता तेलंगाना  तेलुगु लोककथाओं और तेलंगाना तेलुगु भजनों की प्रमुखता रही है । यह ध्यान देने योग्य है कि इसके संगीत परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। हालांकि, एक उल्लेखनीय अवलोकन से पता चलता है कि इस आयोजन में  हिंदी भजनों के प्रचलन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, जिससे प्रचलित प्रवृत्ति में बदलाव आ गया है। बोनालू के दौरान संगीत की प्राथमिकता में सांस्कृतिक गतिशीलता और त्योहार की पारंपरिक जड़ों पर संभावित प्रभाव के बारे में सवाल उठाता है। बोनालू जुलूसों के आसपास के विमर्श में  "मैसम्मा की जय" के बजाय "जय श्रीराम" वाक्यांश का समर्थन करते  नारों की व्यापकता ज़ोर पकड़ रही है जो यहां के  सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन के भीतर अंतर्निहित गतिशीलता और वैचारिक धाराओं को केंद्रित करती है। वाक्यांश "जय श्रीराम" राजनीतिक परिदृश्य के भीतर एक महत्वपूर्ण नारे के रूप में उभरा है, विशेष रूप से एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी से जुड़ा हुआ है। इसका हर्षनीय उद्देश्य हिंदू विचारधारा को जगाना और राष्ट्र के नागरिकों में राष्ट्रवादी भावना को बढ़ावा देना है किन्तु बोनालू जुलूसों के दौरान किसी विशेष नारे का उपयोग स्वाभाविक रूप से आपत्तिजनक तब हो जाता है जब यह स्थानीय नारों जैसे "पोचम्मा तल्लि की जय",  “मानकालम्मा  की जय के महत्व को हटा देता है। यह अमुख घटना हमें इंगित करती  है कि यह केवल एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से उत्पन्न सांस्कृतिक वर्चस्व और आधिपत्य की अभिव्यक्ति है।

 

हैदराबाद के दुकानदारों की बात करने पर हम पाते है कि इनमे अधिकतर दुकानदार  गैर-तेलुगु व्यवसायी हैं जिन्होंने मोज़मज़ाही बाज़ार या बेगम बाज़ार (दोनों बाज़ारों के उर्दू नाम हैं) जैसे स्थानों पर स्वयं को स्थानांतरित और स्थापित किया है। सरकार की आय में उनका दैनिक योगदान जीएसटी, माल यात्रा और अन्य करों के रूप में करोड़ों में होता है। शहर के केंद्र में ऐसे स्थान का एक लंबा इतिहास है जहाँ तेलुगु / दक्किनी भाषा  व्यापक रूप से बोली जाती है। मामला चाहे जो भी हो, ग्राहकों को दुकानदारों के साथ पूरी तरह से हिंदी में बातचीत करनी के लिए बाध्य होना पड़ता है, भले ही उन्हें वह भाषा बोलने में परेशानी होती हो या झिझक  होती ही या भाषा खराब हो। दुकानों को सजाने वाली सभी नेम प्लेटें, साथ ही चालान और रसीदें जो लेन-देन पूरा करने के बाद मिलती हैं, पूरी तरह से अंग्रेज़ी और हिंदी भाषा को प्रमुख्यता देने वाले और तेलुगु भाषा की अवहेलना करते दिखाई  पड़ते हैं। इन बाज़ारों की नामपट्टिकाओं  का अन्वेषण और अवलोकन करने के बाद इस कटु सत्य को स्थापित किया जा सकता है कि इन् अप्रवासियों द्वारा संचालित दुकानें तेलुगु भाषी भूमि में लाखों रुपये में व्यापार कर रही होंगी लेकिन यह तेलुगु भाषा युक्त नामपट्टिकाओं को  प्रमुख्यता देने में अपने कदम पीछे हटाते है।  हालाँकि, यह स्पष्ट है कि वे अपनी दुकानों के नामों को खड़ा करने में तेलुगु के उपयोग की उपेक्षा करते हैं, और उनके रोजमर्रा के व्यावसायिक संचार के लिए तेलुगु भाषा का न के बराबर ही उपयोग किया जाता है। यहाँ की दुकानों में उत्तर भारतीय भोजन, बर्तन, पोशाक, देवताओं की मूर्तियाँ और अन्य सामग्री बेचने में शायद कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन समस्या यह है कि इस घनी आबादी और संकीर्ण रूप से निर्मित बाजार में व्यावसायिक संचार के साधन के रूप में तेलुगु भाषा के प्रति जानबूझकर उदासीनता का भाव व्याप्त है।

 

सांस्कृतिक प्रथाओं और सांस्कृतिक आधिपत्य में इन परिवर्तनों के गहरे निहितार्थ और ऐसे तत्व हो सकते हैं जिनकी आसानी से पहचान नही की जा सकती है। इसका कारण  हैदराबाद शहर में आने वाली कंपनियों की लगातार बाढ़  है  जो रोज़गार की संभावनाओं का उत्पादन कर रहा है और देश के सकल घरेलू उत्पाद में काफी वृद्धि भी होती है। लेकिन भारी उत्पाद और मुनाफे का मामलों में ही यह तथ्य सीमित नहीं रह जाता है। इसके आगे यह सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में इसके ऐसे विनाशकारी परिणाम ला सकता है जिनका अनुमान इन फर्मों और उद्योगों की स्थापना के समय नहीं लगाया गया था। लोगों की आमद या पलायन जैसे मुद्दे शहर के भौतिक क्षेत्रों पर अपना दबाव डालते है इसके अलावा   यहां के वाणिज्यिक स्थानों स्थित दुकानों के नामों को संशोधित करने के अप्रवासियों के यह तरीके स्वागत योग्य संकेत नही देते है। यहाँ तक कि तेलुगु विक्रेता (यदि कोई है!) इन व्यवसायों में तेलुगु बोलने वालों के साथ हिंदी में बातचीत करने के लिए बाध्य महसूस करते हैं। स्थानीय भाषा के भजनों की उपेक्षा करते हुए समारोहों के दौरान केवल हिंदी के भजनों और नारों को उठाने की अनुमति देना स्थानीय भाषा और परंपराओं के महत्व को दफनाने का एक कठोर प्रयास है। आपके लक्षित ग्राहक तेलुगु बोलने वाले अधिक होते है  अतः आपके ग्राहक ज्यादातर स्थानीय ही रहेंगे । इसीलिए  मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों की विशेषज्ञता की भर्ती करना महत्वपूर्ण है जो विशिष्ट उपचार प्रदान कर सकते है और उदासीनता के मूल कारणों की पहचान कर सकते है. भाषाई विशिष्टता, विशेष रूप से तेलुगु भाषा और उससे जुड़ी संस्कृति, तेलंगाना राज्य की मांग और गठन के पीछे एक प्रेरक शक्ति रही है , चाहे वह  वर्ष 1956 में हुआ हो जब आंध्र प्रदेश को मद्रास प्रांत से अलग किया गया था या वर्ष 2014 में जब तेलंगाना आंध्र प्रदेश से एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उभरा था। "तेलंगाना" शब्द दो अलग-अलग तत्वों का एक मिश्रण हैः जिसका अर्थ है क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा "तेलुगु", और "गण", जिसका अर्थ है जिस तरह से तेलुगु लोग अपनी आवाज उठाते हैं। शहर में आंदोलनों और सांस्कृतिक समूहों के नेता आंदोलन के दौरान इसके बारे में जोरदार रूप से मुखर थे, हालांकि इन दिनों एक अज्ञात कारण से ये नेता उदासीनता दिखा रहे हैं और तेलंगाना की भाषाई विरासत पर हो रहे अनादर और उल्लंघन के प्रति उदासीन हो गए है।  यह तर्क युक्त है कि, किसी कारण से, वर्ष 2014 में तेलंगाना राज्य के गठन के बाद से तेलुगु संस्कृति और पहचान की रक्षा के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया है। इसके बजाय, हमने उपरोक्त वाणिज्यिक स्थानों में हिंदी के तेजी से विकास, तेलुगु भाषा के साथ हिंदी भाषा के भेड़िया प्रतिस्थापन और एम.जे बाज़ार , बेगम बाज़ार  में हिंदी के प्रभुत्व को देखा है। इन परेशान करने वाले जबरन सांस्कृतिक परिवर्तनों और जिस गति से वे हो रहे हैं, उसके आलोक में हमें अकेले हैदराबाद में एक अलग सांस्कृतिक पुनरुद्धार आंदोलन की आवश्यकता हो सकती है।

 

विशेष रूप से हैदराबाद में और सामान्य रूप से तेलंगाना राज्य में तेलुगु भाषा और संस्कृति को पहले ही काफी नुकसान हुआ है। यह कथित और अनकहे कारकों के कारण भी एक अपूरणीय क्षति हो सकती है। यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक उदासीनता, बौद्धिक समुदायों की घोषणाओं की अनुपस्थिति और सांस्कृतिक समूहों द्वारा अपनी चिंताओं को व्यक्त करने में असमर्थता के कारण एक निश्चित प्रकार के गैर स्थानीय  भाषा बोलने वाले समुदायों द्वारा किए जा रहे सीमाहीन नुकसान ही  हैदराबाद में चल रहे सांस्कृतिक गिरावट के लिए निःसंदेह बाध्य है।  स्थानीय भाषा और संस्कृति के प्रति सम्मान प्राप्त करने हेतु, स्थानीय लोगों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अपनी सांस्कृतिक प्रथाओं और भाषा के संरक्षण और मान्यता की दृढ़ता से मांग करें। यदि आप अपनी संस्कृति को स्वीकार करने और उसका सम्मान करने में विफल रहते हैं, तो दूसरों से उसका सम्मान करने की उपेक्षा रखना अनुचित है। इनके  गहन प्रभाव दूर तक फैले हुए हैं और भविष्य में असाधारण परिवर्तनों को प्रेरित करने की क्षमता रखते है। जब तक हम अपनी भाषा और संस्कृति को बहाल करने और सम्मान देने के लिए खुद को प्रेरित करने में सक्षम नही होते हैं तब तक हमारी भाषा और संस्कृति इसी तरह बाधित और प्रभावित होती रहेगी। इसके अलावा, सख्त नीतियों और अटूट प्रतिज्ञाओं को लागू करने के लिए सरकार के आधिकारिक अधिकार के बिना, वर्तमान में बिगड़ती स्थिति में सुधार असम्भव है। क्षेत्र के बाहर के व्यक्तियों के प्रमुख झुकाव को बहुत सावधानी के साथ संभाला जाना चाहिए, क्योंकि उनकी उपस्थिति राज्य की प्रगति और उन्नति से जुड़ी हुई है।  वर्तमान भयानक घटनाओं के लिए अप्रवासियों को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराना अत्यंत संवेदनशील मुद्दा बन जाता है जो इस पूरे विचार को संकुचित रूप भी दे देता है। विचारणीय है कि  हम, स्थानीय लोग, अपनी सांस्कृतिक और भाषाई विरासत को हो रहे नुकसान के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं, या शायद उससे भी अधिक।

 

इस विचारणीय स्थिति को और इसकी पुनरावृत्ति को रोकने  हेतु तत्काल क्षति नियंत्रण तंत्र के रूप मेंआत्म-प्रतिबिंब तकनीकों का निर्धारण कर नैतिक उपकरणों की आवश्यकता  रहेगी। इसके सकारात्मक परिणाम को यहां के सामाजिक और सांस्कृतिक संरक्षण हेतु सरकार द्वारा  बहाल किये जाने वाले कारगर कानूनों का व्यवस्थापन एक मूर्त रूप दे सकता है। एक सार्थक व्यवस्था को  बहाल करने के लिए कानूनों, विनियमों और कार्यक्रमों के निर्माण में संवैधानिक सिद्धांतों का  पालन अनिवार्य है। निःसन्देह , मेरे द्वारा प्रस्तावित तरीकों के अलावा तेलंगाना और तेलुगु संस्कृति की समृद्धि की गारंटी के लिए अन्य तरीके और रणनीतियाँ मौजूद हो सकती है। यह हम सभी का दायित्व है कि हम इस मामले पर व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से विचार करें और जिम्मेदारी लें। इस चर्चा में, मेरा यही  मानना है की हैदराबाद की सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण और सम्प्रेषण नूतन सामाजिक आदर्श को प्राप्त के लिए निःसन्देह अनिवार्य है पर उससे भी अधिक यह कि एक उत्तरदायी हैदराबादी  (संतान) बन  उस  कार्य का निष्पादन इस सार्थक उद्देश्य की पूर्ति करता है।