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काव्यांजलि, कविता संग्रह - 1

भाग1
यह कृति मन से उपजी हुई भावनाएँ है जिसे काव्य के रूप में अर्थ दिया गया है। इस संग्रह में विभिन्न् विषयों वाले काव्यों का संकलन है। यह आवश्यक नहीं है कि मेरी सभी भावनाओं से आप सब सहमत हों परंतु प्रोत्साहन स्वरूप सकारात्मक रूप से इसका आनंद लेंगे तो मुझे ज्यादा खुशी होगी। बहुत सारी पंक्तियों में हिन्दी की बोलचाल वाली भाषा का उपयोग है अतः साहित्य प्रेमी उसका वैसा ही आनंद ले यही मेरा आग्रह है। आपकी शुभकामनाओं की अपेक्षा में अनवरत प्रार्थी।।

भूपेन्द्र कुलदीप


ज्योत्सना

रजत सोम को खोज रहा हैू,
नील गगन के सावन में
टूटा चंदा गिरा हुआ है,
मेरे मन के आंगन में

ख्वाब आईना छिपा रहा है,
निमलित करके मेरी आँखें
चुपके से वो खींच रहा है,
उपधाने निसर्ग की सांखे
निर्झरणी कुत्सा स्पंदन,
डोल डोल कर मचा रही है।
चीख-चीख कर चिल्ला-चिल्ला
अलके अविरल छटा रही है
मैं बैठा आलोक ढूँढता,
रोज निशा के जीवन में
टूटा चंदा गिरा हुआ है,
मेरे मन के आंगन में


अमित क्लांति है नजर आ रही,
सद्यस्नाता चंदा में
रजतधार विवर्ण है लगता,
डूबे फिर भी गंगा में
विगह वृंद की आवाजें भी,
श्रांत सुरो में लहरें करती
लिए जा रही अपने ही संग
सोम पटल की ज्योत्सना हरती
विभावरी भी सिमट रही है,
सविता के अब जेहन में
टूटा चंदा गिरा हुआ है
मेरे मन के आंगन में।

सायंकाल तुषार निहारे
अधरों पर सब कंचन रोके
आयेगा कब चाँद गगन में
झूमेगा कलियों पर सोके
रात रानी को खंडित करके,
दारून क्रंदन कैसी आती
सोच रहा है विस्मय से वो
मानिक की क्यों बुझ गई बाती
ख्वाब कहाँ साहिल पर दिखते
विश्वम्भर के खेवन में
टूट चंदा गिरा हुआ है
मेरे मन के आंगन में।
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मन
मेरे मन की कल्पनाओं में
भरी विष की फुहारें
ढूँढता कैलाश हूँ मैं
छिप गए हैं देव सारे

पाप को समेट धरती
कोख में पड़ी हुई है
जन्मने हैं कितने ही
विष के सपोले फेंस मारे
खोलता हूँ कुंडियाँ,
रजनी उषा के कोपलों की
मुँह छुपा दुबकी पड़ी
जहाँ अमय के श्वेत धारे
गरल लिए परमपिता भी
फिर रहे हैं मारे मारे
ढूँढता कैलाश हूँ मैं,
छिप गए हैं देव सारे



तम को ही लपेट के मन,
आँसुओं को सेंकता है
खींच के गरल यहीं से
विष्णुओं को फेकता है
कितने राहु आ गए
सर पे जरा सा पिंग लेके
दूर से ही चक्रधारी
इन सभी को देखता है
मेरा मन अंतर्निहित
चुपचाप ये बुत्ता निहारे
ढूँढता कैलाश हूँ मैं
छिप गए है देव सारे

किसलयों सी स्निग्ध धरती
उद्भिजे लेती हिंडोले
व्योम को भी चीरते हैं
तांडवों के लेके गोले
मन की ऊँची भावनाएँ
ले प्रकाश पल्लवित हो
कालकूट चूष करके
बन गए हैं आज शोले
मेरे मन का ये विरूध
है आज देखता सहारे
ढूँढता कैलाश हूँ मैं
छिप गए हैं देव सारे।
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आकाश
मेरी बदनामी की लकीरें
मेरा दामन नहीं छुएंगी
पर हल्का सा अहसास जरूर दे जाएंगी
जैसे हवा के झोंके से रोआं-रोआं खड़ा हो गया हो
क्योंकि मैं तो नश्वर हूँ,
मेरा कोई नाम नहीं
हाँ याद आया नाम
नाम तो सीमा बाँध देती है
पर मेरा अस्तित्व वो इतना विस्तृत है
जितना आकाश
सितारों से सजी, जगमगाती
महबूबों के कदमों पर बिछने को तत्पर
फिर भी शून्य, अथाह, अंनत
संतृप्त, आकांक्षाओं से परे,
इच्छाहीन, न किसी के लिए विषाद
मैं इतने जीवों के मध्य
लाखों अपनेपन के बावजूद
शायद अकेला ही खड़ा है
जैसे किसी गरीब के वीरान झोपड़े में,
टूटी छप्पर से झाँकती
अथाह प्रकाश में से अलग
अपनी और अपनी ही विशिष्टता करती
हल्की सी किरण
मुझे तो हर पल इंतजार है
ढलती शाम का
जो मुझे नये उजाले का संकेत दे जाती है।।
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भूपेंद्र कुलदीप

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