काव्यांजलि, कविता संग्रह - 2 Bhupendra Kuldeep द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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काव्यांजलि, कविता संग्रह - 2

अर्थ दिया गया है। इस संग्रह में विभिन्न् विषयों वाले काव्यों का संकलन है। यह आवश्यक नहीं है कि मेरी सभी भावनाओं से आप सब सहमत हों परंतु प्रोत्साहन स्वरूप सकारात्मक रूप से इसका आनंद लेंगे तो मुझे ज्यादा खुशी होगी। बहुत सारी पंक्तियों में हिन्दी की बोलचाल वाली भाषा का उपयोग है अतः साहित्य प्रेमी उसका वैसा ही आनंद ले यही मेरा आग्रह है। आपकी शुभकामनाओं की अपेक्षा में अनवरत प्रार्थी।।

भूपेन्द्र कुलदीप
आकाश
मेरी बदनामी की लकीरें
मेरा दामन नहीं छुएंगी
पर हल्का सा अहसास जरूर दे जाएंगी
जैसे हवा के झोंके से रोआं-रोआं खड़ा हो गया हो
क्योंकि मैं तो नश्वर हूँ,
मेरा कोई नाम नहीं
हाँ याद आया नाम
नाम तो सीमा बाँध देती है
पर मेरा अस्तित्व वो इतना विस्तृत है
जितना आकाश
सितारों से सजी, जगमगाती
महबूबों के कदमों पर बिछने को तत्पर
फिर भी शून्य, अथाह, अंनत
संतृप्त, आकांक्षाओं से परे,
इच्छाहीन, न किसी के लिए विषाद
मैं इतने जीवों के मध्य
लाखों अपनेपन के बावजूद
शायद अकेला ही खड़ा है
जैसे किसी गरीब के वीरान झोपड़े में,
टूटी छप्पर से झाँकती
अथाह प्रकाश में से अलग
अपनी और अपनी ही विशिष्टता करती
हल्की सी किरण
मुझे तो हर पल इंतजार है
ढलती शाम का
जो मुझे नये उजाले का संकेत दे जाती है।।
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आह
एक दिन न जाने किन गहराइयों में डूबा था
आज से बहुत दूर
किन विचारों में
कि अचानक
इन कर्कश घ्वनियों को चीरते
एक निर्मम तीखी सी आह
मेरे मन को बेधते उस पार निकल गई
शरीर झनझना उठा
होश आया,
कर्कश घ्वनियों को बौछार सी लगी
पर इन घ्वनियों के बीच
निस्तब्धता की लकीर में
अस्तित्व के लिए
अब तक दो आह
धीमे-धीमे उबल रही थी
मैंने जोर डाला


आप जानना चाहेंगे
वो आह किसकी थी
वो आह
न तो भूख से बिलखते बच्चे की थी
क्योंकि उसे तो क्षण भर बाद मौत आ जाती
वह निश्चिंत सो जाता
न तो उसकी माँ की थी
जिसकी कोख हरी न हो पायी
क्योंकि वह बच्चा गोद ले लेती
अपनी ममता लुटाने को
यह तो आह थी उस मासूम की
जिससे लब्ज ढंग से खुल न थे
और पापी समाज ने
उसपे सफेदी पोत दी थी
गाढ़ी, सफेद, रंगहीन
जीवन भर की तड़प लिए
धीमे-धीमे सुलगता
हर एक की आँखों में जो अब
विधवा का रंग था। ।
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आवरण
कितनी आश्चर्यजनक बात है कि
तन की दुर्बलता को
मंहगे वस्त्रों से ढंककर
सुंदर बना लेते हैं लोग
मेरा मन भी कभी कभी
तलाशत है यही आवरण
चाहे मन के किसी भी कोने पर हो
ये आवरण
बस मुझे संसार सागर के
बुराइयों से उथला कर दे
उसी तरह जैसे हँस के
उंगलियों की जाली उसे
जल में उथला कर देती है
पर प्रश्न वही पर है कि
कैसा हो आवरण और क्या हो
बहुत तलाशता हूँ
महापुरूषों के जीवन में
पर मेरे मोटे दिमाग को
कुछ समझ में नहीं आता
और मैं इन ऊँचे विचारों से
नीचे उतर आता हूँ
अपनी इस दुनिया में
मैं नही तलाश पाऊँगा ये आवरण
पर मुझे संतोष है कि
मेरा मन किसी के खुशी में खुश होता है
तथा किसी के दुःख में दुःखी
कभी भी जाने अंजाने
किसी के मन को तकलीफ नहीं देता
और मैं अपने इसी आवरण में खुश हूँ।
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 मन का तिनका
अरे सुनो तो कहाँ बढ़े जा रहे हो
मैंने पलटकर देखा
कोई तो नजर नहीं आ रहा है
तभी आवाज आई
यह मैं हूँ
स्वच्छंद, स्वतंत्र, निश्च्छल
और हल्का
एक तिनका
मैं हँसा
तेरी क्या हैसियत है
जो मुझे रोक रहा है
मुझे अहम नहीं है
पर मैं वो हूँ
जिसने रावण रूपी पाप को
पवित्र सीता की ओर
बढ़ने से रोक दिया था
और आज भी तू सुन
पलट जा यहाँ से
अपने मन के रावण के साथ
मुझे मत लांघना

मैं पलट गया क्योंकि
मुझे जीना है इसी दुनियां में
कितनी ही लोग जाने अंजाने में
उसे पार किए होंगे
और कदाचित न उन्हें आवाज आई
और न ही उन्हें स्वर्ग मिला होगा
मुझे स्वर्ग की लालसा नहीं है
पर मुझे संतोष है कि
मेरे मन के किसी कोने पर
ये तिनका आज भी जीवित है और
मुझे हर गलत कार्य पे आवाज देता है।
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