गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स - ये कहानियां मेरी नज़र में - 2 Neelam Kulshreshtha द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स - ये कहानियां मेरी नज़र में - 2

एपीसोड ---2

डॉ. रंजना जायसवाल की कहानी में वही जद्दो जेहद है --' रोज़ सुबह आँख खुलते ही ज़िंदगी उसका इम्तिहान लेने के लिए खड़ी रहती ...और अपने आप से सवाल करती... आज मैं पास तो हो जाऊँगी न...?

उसने वही किया वही जो हर आम औरत करती है -'विश्व के मानचित्र को हटाकर वर्णमाला और पहाड़े के पोस्टर चिपका दिए। ' रंजना की 'आधे अधूरे 'कहानी से कुछ नीचे दये सूक्ति वाक्य पढ़िए जो कमोबेश हर लड़की के जीवन का हिस्सा हैं :

------आज कल की लड़कियों को अपने सारे सपनें ससुराल में ही पूरे करने होते हैं... मायके वालों से क्यों नहीं कहते कि हमारे कुछ सपने है पहले उसे पूरा कर दो फिर ब्याहना...सारे सपनें पूरा करने का ठेका ससुराल वालों ने ले रखा है ? "

-----लड़कियों के सपने हम नहीं समझेंगे तो फिर उन अनजान लोगों से क्या उम्मीद रखना ?

----पुरुष के सपनें पूरा करने के लिए औरत हमेशा परछाईं की तरह उसके पीछे खड़ी रहती है पर एक औरत के लिए?

-------पुरूष या तो स्त्री को जूते की नोंक पर रखते हैं या फिर सीधे सिर पर ही चढ़ाते हैं .बराबरी का हक देना तो उन्हें आता ही नहीं.

ये बहुत बड़ा संकेत है समाज व परिवार पति के लिए कि उसे कहां पर अपने में सुधार करना है।

अनीता दुबे की 'एक चिठ्ठी 'की नायिका के अनुभव हैं ----' पत्नी के लिए पति तो जंगल का राजा सिंह के समान था. जो दो कदम कमरे में रखे तो धरती कांप जाये . दिशा के सारे सपने छूमंतर हो जाते रहे। कभी भी दिशा मन मुताबिक़ काम ना कर सकी। दिशा के मन में कम पढ़े लिखे दूधवाले तेजसिंह का स्थान किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं था। जो अपनी पत्नी को पूरी सुरक्षा के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए चल पड़ा था।'

ये अपनी सेविका दिशा, कम पढी लिखी लड़की को आँखे फाड़ कर सुनती और सोचती है- इसके पास छत ज़रूर किराये की है लेकिन इसकी उर्जा, संसार, शरीर और मन उसका ही है । दिशा तब स्वयं के बारे में भी सोचती कि इधर उसकी उर्जा बस स्वयं को छुपाने, नक़ली खुशी का संसार दिखाने में लगा था और शरीर जैसे बिना धड़कन के मिट्टी और मन कठपुतली बन चुका था । क्रांक्रीट की छत तो खुद की थी पर उसमें रहने वाली दिशा का मन किसी खाई की गहराई में गुम क़ैदी सा था। '' -- ये उलझन, ये तड़प उस स्त्री दिल की है जो चाहकर भी अपनी ज़िंदगी में कोई काम नहीं कर पा रही।

कितनी ही स्त्रियों को शादी के बाद सुनना पड़ता है - 'तुम नौकरी नहीं करोगी क्योंकि नौकरी करते ही स्त्री चालू हो जाती है।' या शादी के कुछ बरसों बाद -''इतना बड़ा शहर है तुम एक नौकरी भी नहीं ढूँढ़ सकतीं ?''या '' रूपा [पति की मित्र की पत्नी]को पचास हज़ार रूपये बोनस मिला है। ''[आँखें जता रहीं होतीं हैं - एक तुम हो जो मुफ़्त में रोटी तोड़ रही हो. ]. ये बात और हैं की रूपा के बच्चों व नायिका के बच्चों के व्यक्तित्व में ज़मीन आसमान का अंतर है। यही बात इन कहानियों में पढ़ने को मिलेगी। स्त्री नौकरी करती है तो ताने --नौकरी छोड़ती है तो घरवालों की बौखलाहट।

' ग्यारहवीं कक्षा की, छमाही परीक्षा वाली कापियां जांचकर, शीघ्रातिशीघ्र जमा करनी थीं. रिपोर्ट- कार्ड में नम्बर चढ़ाने का काम तो स्कूल के फ़्री - पीरियड में भी हो सकता था ---. '' ये ताना विनीता शुक्ला की नायिका को मिल रहा है. घर में स्कूल के काम में समय लगना था...और अपेक्षित थी मानसिक शांति भी! उसके भाग्य में, दोनों नहीं थे. '

बकौल विनीता शुक्ला कि सुहागन कहलाने के लिए, खुशियों की बलि देनी होगी. विनीता शुक्ला की कहानी बहुत अलग उस जी तोड़ मेहनत करने वाली उस अध्यापिका की है जो डेली अपडाउन करती है। बदले में उसे क्या मिलता है ?

प्रभा जी की कहानी से --'-याद आता है स्त्री अधिकार पर किसी परिचर्चा के दौरान उसकी सीनियर रेखा दी बोली थीं- “सिमोन दा बाऊवा के ही कथन को थोड़ा और विस्तारित करें, तो- 'माँ' पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं। 'सच, पैदा होते ही घरों के निर्देशों- संस्कारों से, स्कूल की शिक्षा से, समाज धर्म के विधि विधानों से, कविता-कहानी, गीतों से, फ़िल्मों और धारावाहिकों के घिसे-पिटे संवादों से, हर औरत के मन में 'आंचल में है दूध और आँखों में पानी ' वाली माँ की ऐसी अमिट छवि उकेरी गई है कि उससे जरा भी दांये बांये होना, अक्षम्य अपराध जैसा लगता है। ''

मैं इस बात से अर्द्ध सहमत हूँ क्योंकि स्त्री के दिल में कोमलता, ममत्व प्रकृति दत्त है लेकिन सिमोन की इस बात का प्रमाण है सीमा जैन की 'रेवा और रंग 'की नायिका के पति की ये हिदायत, '', बाद में यह ना हो कि तुम्हारा सारा फ्रस्ट्रेशन हमारे उस मासूम बच्चे पर निकले। तुम उससे यह कहो कि ‘मेरा कैरियर इसके कारण बर्बाद हो गया। तुम्हें उस पर झुंझलाहट होने लगे। उसका आना कैरियर से भी ऊपर है। यदि तुम ऐसा सोचती हो तभी बच्चा होना चाहिए!”

हाँलाँकि स्वत : अधिकतर स्त्रियों में बच्चे का आना कैरियर से ऊपर हो ही जाता है।

इसी कहानी की नायिका आज की सास है इसलिये बहू को उसके कैरियर व परिवार में पूरा सहयोग करने की बात करती है। हाँलाँकि उसकी बहिन नसीहत देती है, ''साफ़ मना क्यों नहीं कर देती उसको? तूने कबीर के जन्म के समय अपनी पेंटिंग छोड़ी थी ना! तेरी सास ने भी तो साफ़ मना कर दिया था कि अब तुम्हें ही घर और बच्चे को देखना है।”

अब दूसरी पारी यानि की संतान को पालकर बड़ा कर देना ।जिनके पास कैरियर नहीं होता वे डॉ .लता अग्रवाल की नायिका की तरह घर में उलझी रहती है ---' बाज़ारवाद एवं देश दुनिया से बेखबर रोज इसी ताने-बाने में रहती रोहित को क्या पसंद है.... आज राहुल की क्या फरमाइश है, उनके स्कूल के आने का वक्त हो गया है, उन्हें होमवर्क कराना है, रात को सोते वक्त कहीं चादर तो नहीं सरक गई बच्चों पर से.'

डॉ. लता अग्रवाल की नायिका की वृद्धावस्था में बच्चे परदेस बस गये हैं. इन महिला अवसाद में घिरा देखकर पड़ौसी व एक डॉक्टर के संवादों से - ‘‘ममता के छले जाने और अरमानों के टूटने का ग़म है आंटी को.''

घर को समर्पित स्त्री की दूसरी पारी की व्यथा किस तरह ज्योत्सना कपिल की कहानी में छलकी है ये आपको 'और कितने युद्ध ?'पढ़कर पता लगेगा----- " पागल हो गई हो क्या ? इतनी बढ़िया नौकरी छोड़ दी ! पर मुझसे पूछती तो। " अम्बर को उसकी मोटी सैलरी से वंचित रह जाने का बेहद मलाल हो रहा था। " ऐसी स्त्री बहू की नौकरी के कारण पोते पोती भी पालती है लेकिन उसे क्या मिलता है ?

बेटे जब छोटे थे कुछ शैतानी करते तो मैं कहती कि, ''जब पता लगेगा जब मम्मी सुबह से शाम तक की नौकरी कर लेगी। ''मेरा छोटा बेटा पांच वर्ष का हो गया था. उसने कमर पर दोनों हाथ रखकर जवाब दिया, ''जाइये कर लीजिये नौकरी।ओये --होये हम तो बड़े हो गये हैं। ''बात साधरण थी लेकिन ये बात मेरे कि दिल में एक ज़बरदस्त घूँसे की तरह लगी थी। बस ऐसा लगा कि घर में मेरा कोई रोल नहीं बचा है। मैंने कहानी लिखी थी, 'लौटी हुई वह 'जिसमें नायिका को लगता है कि वह अँधेरे कुँये के तल में जी ही है, दुनियाँ के उजाले में अपनी हिस्सेदारी के लिये तड़प उठी है।

और संतान पालकर वापिस लौटने की यात्रा इतनी आसान है ? बाहर की दुनियाँ में आकर लगता है हर स्त्री को कि वह अपने को ज्ञान शून्य उजबक सा क्यों महसूस कर रही है ?या प्रगति गुप्ता की नायिका किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ के हाथ ऑपरेशन थिएटर में बरसों बाद जाकर औज़ार पकड़ने पर कांपने लगते हैं। क्यों ?

समय बदला है इसलिए अब सिर्फ़ अध्यापिका, प्राध्यापिका या डाक्टर की कहानियां ही नहीं लिखीं जातीं हैं।बहुत सी महिलायें घर पर अपना कुछ आमदनी का ज़रिया ढूंढ़ लेतीं हैं। आप इस संग्रह में इनके साथ मिलिये कत्थक, भारत नाट्यम नृत्यांगना, कवयित्री, पेंटर, हैंडी क्राफ़्ट मेकर , एक संस्थान की उच्चाधिकारी, पत्रकार व अपने जीवन की दूसरी पारी जीती आभासी दुनियां में अपने को तलाशती स्त्रियों से जिन्होंने कैरियर में ख़ुद ब्रेक लिया। अपने मातृत्व को सहेजा है. कहना होगा ये संग्रह वर्तमान में स्त्री जीवन में हुए बदलाव का भी दस्तावेज है।

स्त्री जीवन के इन्हीं दुखते बिंदुओं पर ऊँगली रखना भी इस पुस्तक का उद्देश्य है। बस थोड़ी होशियारी की ज़रूरत है। स्त्रीं दोनों नावों पर सवार होकर जीवन यात्रा कर सकती है। ज़िम्मेदारी निबाहना बहुत अच्छी बात है लेकिन कहीं स्त्री का निजत्व न खो कर रह जाए। वह उसे बंद आँखों में, किसी कोने में संभालकर ज़रूर रक्खे जिससे वह अपनी संतानों से कह सके, ''बस तू ही नहीं, मैं भी। ''

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नीलम कुलश्रेष्ठ

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