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गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स - ये कहानियां मेरी नज़र में - 1

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

एपीसोड ---1

नारी आंदोलन, स्त्री समानता, नारी विमर्श, स्त्री के अधिकार, इन सबकी विभिन्न कलाओं से अभिव्यक्ति, अपना व्यवसाय के अलावा होता है' स्त्रियों की अपने घर परिवार में उनकी अहम भूमिका'। मेरे अभिमत के अनुसार कोई वाद, कोई विमर्श, कोई आंदोलन न उसे बदल सकता, न मातृत्व या गृहणी के रोल का कोई पर्याय है जो उसके महत्व व उपयोगिता को कम कर सके । ये बात हर समझदार स्त्री समझती है चाहे उसे दोयम दर्ज़े का नागरिक समझा जाये, चाहे घर पर पड़ी चीज़। स्त्रियां पीढ़ी दर पीढ़ी इस रोल को निबाहती आ रहीं हैं।

बीसवीं सदी के उत्तर्रार्ध से कुछ अधिक मीडिया, स्वयं सेवी संस्थाओं व सामाजिक संगठनों ने स्त्री को सशक्त होने का, अपने पैरों पर खड़े होने का संकेत दिया, प्रोत्साहन दिया। क्या इतना सरल होता है पैरों पर खड़े होना या नौकरी करना ? परिवार, बच्चों की परवरिश व सामाजिक हदबंदी के ऑक्टोपस में जकड़ी वह कितना संघर्ष करती है, ये उससे जुड़े लोग भी नहीं समझ पाते। अक्सर जब हम किसी भी क्षेत्र की प्रथम शीर्षस्थ पद को तलाशने जायें तो हमारे हाथ में सिर्फ़ कुछ ही स्त्री नाम आएंगे। वैदिक काल के बारे में भ्राँति है कि स्त्री पुरुष समान थे लेकिन वेदों में हज़ार ऋषियों की रची ऋचाओं में नाममात्र की महिलाओं की रची ऋचायें हैं जिन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।

अपने नन्हे को सुरक्षा देता, अपने कोमल हाथों की गिरफ़्त में लिये अपने उत्कट प्रेम की परिभाषा क्या सनातन मातृत्व बदल सकता है ? स्त्री ही समझ सकती है कि उसकी ऊँची उड़ान कितने लोगों की आँखों का ऐसा कांटा बन जाती है कि वे उसमें ही ज़हरीले कांटे चुभा देते हैं। हर समझदार स्त्री अपने पंख कतर कतर कर उड़ान भरती है, अपनी सफ़लता के कम से कम ढिंढोरे पीटती है. उस पर मातृत्व की ज़िम्मेदारी हो तो अधिकतर पड़ला मातृत्व का ही भारी रहता है।

अपने जीवन की दूसरी पारी जीती आभासी दुनियां में अपने को तलाशती स्त्रियों से जिन्होंने कैरियर में ख़ुद ब्रेक लिया। अपने मातृत्व को सहेजा लेकिन उनके इस बलिदान को कौन समझता है ?

स्त्रियों ने जब घर की देहरी लांघी तो इस रोल व कैरियरिस्ट रोल में टकराव तो होने लगा। कभी किसी को नौकरी का त्याग करना पड़ा और कुछ स्त्रियों ने ब्रेक लिया।कैरियर की तरफ़ वापिस लौटीं तो लगा अपने साथियों से कितना पिछड़ गईं हैं। तो आइये स्त्री कलम से तलाश करते हैं उन गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स की जो परिवार की ज़रूरतें पूरे पूरे करते करते पता नहीं एक स्त्री से कहाँ गुम होते चलते हैं, उसे गुमान भी नहीं होता।

मैंने गुस्ताख़ी की है -बरसों पहले लिखी अपनी लघुकथा 'गुमशुदा क्रेडिट कार्ड्स 'को क्रमांक में सबसे पहले इसलिये रक्खा है कि इसे पढ़कर नारी की पीड़ा की उन सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं को आप सब समझ सकें कि आप स्त्री की किस व्यथा की कहानियां पढ़ने जा रहे हैं।जो वह 'घर'नामक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये अपना समय, अपनी भावनायें, अपनी प्रगति, बाहर निकलकर संगी साथियों से मिली ख़ुशियों को कुर्बान कर देती है फिर भी तमगा मिलता है -'घर पर पड़े पड़े क्या रहीं थीं ?'.

ये सम्पादन करने की निरंतर स्थगित हो रही इच्छा को बल मिला अचानक मिले प्रगति गुप्ता जी के फ़ोन से उन्होंने बताया कि उन के पति डॉक्टर थे इसलिए बच्चों के लिए उन्हें अपना मनोवैज्ञानिक चिकत्सा के लिए बनाया अपना क्लीनिक बंद करना पड़ा। सोचिये उस महिला की अपने बच्चों के लिए बलिदान भरी तकलीफ़ जिसके क्लीनिक में चौदह कर्मचारी काम करते हों । मुझे ख़ुशी है मैंने उन्हें प्रेरणा दी कि इस विषय पर कहानी लिखें।

मैंने एफ़ बी की अपनी टाइमलाइन पर इस लघुकथा के साथ इस विषय पर दो बार कहानियां आमंत्रित की थीं। मुझे लगा कि बहुत सी कहानियाँ मुझे मिलेंगी । मेरे पास वरिष्ठ व कनिष्ठ दोनों रचनाकारों के बहुत से फ़ोन, मैसेज एफ़ बी पर, वॉट्स एप पर आ रहे थे लेकिन बहुत सी रचनाकारों को ग़लतफ़हमी थी कि मैंने 'माँ 'पर केंद्रित कहानी आमंत्रित की है।मुझे ख़ुशी है ऐसे चुनौतीपूर्ण विषय की महीन बारीकी को समझकर इस पर कहानियां भेजीं सुप्रसिद्ध संतोष श्रीवास्तव को छोड़कर उन रचनाकारों ने जिन्होंने अभी अभी हिंदी साहित्य में अपनी पहचान बनाई है या बना रहीं हैं। इन सभी को मेरा प्यार भरा हार्दिक आभार कि मैंने जो भी सुझाव देकर इनकी कहानी में बदलाव चाहा इन्होंने बहुत धीरज के साथ वह सुधार करके दिया। किसी किसी ने तो दो बार भी इनमें सुधार करके भेजा। मैंने भी नहीं सोचा था कि गर्भ में संतान धारण करने वाली स्त्री या नर्सरी में दाख़िल करवाने स्त्री से दादी बन जाने तक वाली स्त्री के खोये हुये वजूद, फिर पाने की जद्दोजेहद की दास्तान बन जाएगा ये दुर्लभ कहानियों का संग्रह।

संतोष श्रीवास्तव की कहानी 'पद्मश्री 'में एक कत्थक डांसर की सफ़लता जानिये -' मृणालिनी राय का कहा सच साबित हुआ। आलोक और देविका ने हिंदू माइथोलॉजी के विषयों को आधार बना खूब मेहनत की और जर्मनी, फ़्राँस, इंग्लैंड, सिंगापुर, मलेशिया, हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया में सफ़लतम शो की श्रंखला ही गूंथ दी। भारत में उड़ीसा का कोणार्क मंदिर, मुंबई की एलिफ़ेंटा केव्स और खजुराहो महोत्सव में नृत्य पेश कर तो जैसे जग ही जीत लिया देविका ने। कामयाबी, शोहरत और समृद्धि उसके कदम चूम रही थी ।'

सोचिये जब ऐसी सफ़ल नारी संतान के गर्भ में आते ही कैरियर छोड़ देती है। जानिये उसके लिए 'पद्मश्री 'का क्या अर्थ है।

जबकि प्रभा मुजुमदार व सीमा जैन की नायिका को तंज कसा जा रहा है, '' तुम मेन स्ट्रीम से बहुत पीछे या बाहर ही हो जाओगी! तुम कैसे संभाल पाओगी खुद को? आज सब आगे बढ़ने के लिए भाग रहे हैं! और तुम खुद को ही पीछे धकेल रही हो!”

डॉ .जया आनंद की नायिका का उसके नाल से जुड़ा बच्चा कोख में करवटें लेकर उस में बहुत महीन बुनावट से बुनी कहानी में मातृत्व की हिलोरें पैदा करता है[मैं नहीं तू ही ---]--- 'बाद में उसमें इतना अंतर आता जा रहा था कि जब बच्चा उसकी कोख में तेज़ तेज़ घूमता तो उसका दिल पता नहीं क्यों' कुछ 'मोह में पगा धड़कने लगता लेकिन वह उस ' कुछ' को लैपटॉप पर तेज़ तेज़ उंगली चलाकर कुचल डालती है । ' लेकिन कब तक ?

शेली खत्री की पत्रकार नायिका बच्चा होने के बाद कैसे बदल जाती है - -'-जब स्वस्ति का जन्म हुआ था;उसे लगा था बस इस दुनियाँ में वह है और स्वस्ति। दिन- रात, देश -दुनियाँ की ख़बरों के पीछे पड़ी रहने वाली शुभ्रा को स्वस्ति के अलावे दिखता ही कहां था कुछ। स्वस्ति की मुस्कुराहट ही उसकी ‘हैडलाइन ’ थी, स्वस्ति को नहलाना- मालिश करना उसकी ‘एंकरिंग’, स्वस्ति की नींद, दूध का पूरा ध्यान रखना ‘चौबीस घंटे की खबर’ और स्वस्ति की रूलाई उसके लिए ‘ब्लंडर न्यूज़’ थी। '

'हंस 'एप्रिल २०२१ में जोया पीरज़ाद एक ईरानी लेखिका की यादवेंद्र द्व्रारा अनुवादित कहानी आई है जिसकी लेखिका नायिका कुछ दिन से कहानी लिखने के नोट्स लिखकर किचेन में दीवार पर लगाना चाहती है जिससे जब इसे लिखे तो उसे सुविधा रहे लेकिन अंतत;टमाटर की सूची वहां लगा देती है क्योंकि फ्रिज में वे ख़त्म हो रहे हैं। यही है एक गृहणी का कोलाज।जिन स्त्रियों की इच्छाशक्ति प्रबल है वही इसके पार जा सकतीं हैं।

अंजु खरबन्दा की नायिका क्रेच देखते ही विचलित हो जाती हैकि यहाँ नहीं पलेगी मेरी बच्ची। वह बीच का रास्ता निकलती है की उसका काम भी न छूटे, बच्ची आँखों के सामने बड़ी हो।

मैं जब सन 1976 में शादी होकर बड़ौदा आई थी तो शौकिया पत्रकारिता के दौरान बहुमंज़िली इमारतों में देखती थी आयायें फ़्लैट्स में ज़मीन पर बैठी बोतल से बच्चे को दूध पिला रहीं हैं। मैंने उसी समय तय कर लिया था कि मेरे बच्चे इस तरह से आया की गोद में नहीं पलेंगे। मैंने स्वतंत्र पत्रकारिता व लेखन करने का निर्णय अपने बच्चों की ख़ातिर लिया था, सच मानिये ये परिवार व बच्चों के लिये बहुत सही निर्णय था। इस निर्णय के लिए खुद ही खुश होती रही कि मैंने अपने अपने कैरियर का कितना बड़ा बलिदान किया है, हाँलाकि अंदर से मैं कुंठित ख़ूब थी, ख़ूब तड़फड़ाती थी कि मैं जो अपना काम करना चाहतीं हूँ, वह नहीं कर पा रही।

इसी कोरोनाकल में युवा आई टी प्रोफेशनल लड़कियों के लाइव देखकर समझ में आया है कि मातृत्व नूर की बूँद है जो सदियों से बह रहा है, बहता रहेगा क्योंकि ये ही नहीं आज की बहुत सी युवा माँयें भी समझदार माँ की तरह कैरियर ब्रेक ले रहीं हैं. अपने मातृत्व को एक उत्सव की तरह आनंद से जी रहीं हैं।आपको नहीं लगता इस नैट के कुछ भी परोसने के कारण, मोबाइल, लैपटॉप व तरह तरह के गेजेट्स की दुनियां में बच्चों पर नज़र रखना कितना ज़रूरी हो गया है.जब तक वे इस मायाजाल को समझने लायक नहीं हो जायें। उस कैरियर ब्रेक के बीच एक माँ की कैरियर के प्रति तड़प व बच्चों के प्रति उनकी अनमोल ज़िम्मेदारी के बीच के द्वन्द व तकलीफ़ को समाज समझ पाये व उस स्त्री के जीवन के इस नाज़ुक मोड़ पर वह व परिवार साथ खड़ा हो पाये तब ही इस संग्रह की सार्थकता है। काश ! इस संग्रह को पढ़ने वाले पाठक ही स्त्री के रोल को समझ उसे दोयम दर्ज़े का नागरिक समझना छोड़ दें.

जो संदेश अवकाश प्राप्त अधिकारी डॉ प्रभा मुजुमदार ने अपनी कहानी में दिया है। वे आज की बहुत लड़कियाँ स्वयं सीख चुकीं हैं, ' पूरे आत्मबल और विश्वास के साथ जीना सीखना ही होगा हर माँ को। अपने अरमानों और सपनों का वह उत्सव मनाएगी, न की कंधों पर उनकी गठरी टांग कर मातम और शहादत। उसकी मुस्कान असली होगी और आँखों मेँ आँसू नहीं, संकल्प और हौसले होंगे। ''

ये उन औरतों की कहानियां हैं जो अपने 'संदूक में सपना '[पूनम गुजरानी ] बंद कर देतीं हैं। कुछ वर्ष घर पर निकालने के बाद सोचतीं हैं इसी कहानी की नायिका की तरह --'समय का चक्र घूमता रहा....मैं पिसती रही.... अपना ही कोरमा बनाती रही....सेकती रही वक्त की भट्टी में हकीकत की रोटियां.... परोसती रही अपने ही अरमानों को सबकी थालियों में.''

बरसों बाद वे कहती है -'' सरगम को जीवन में आने वाली चुनौतियों के लिए भी तैयार करना था। मैनें बरसों पहले के अपने सपनों को इस संदुक में बंद कर दिया था जो आज मेरे सामने खुला पङ़ा था।''

अनीता दुबे की कहानी 'एक चिठ्ठी 'की नायिका ---' पति की पुरानी फटी टी शर्ट झट से उठाई और बक्से [बरसों पहले जिसमें अपने बनाये हैंडीक्राफ़्ट बंद कर दिए थे ] की धूल साफ़ करने लगी ।'

------ --यही है बच्चों को थोड़ा बड़ा करके अपने वजूद की तलाश।

प्रभा मुजुमदार व शेली खत्री की कहानी में स्पष्ट द्वंद दिखाई देता है कि पितृ सत्ता मानने को तैयार नहीं है कि बच्चे पालना उसकी ज़िम्मेदारी है लेकिन हमारी पीढ़ी से नई पीढ़ी में कुछ बदलाव आ ही रहे हैं। प्रभा जी के शब्द हर माँ के दिल का आइना हैं- 'आरुष की बीमारी में, उस दिन क्यों नहीं वह कह सकी कि अरुण, यह बच्चा तुम्हारा भी है और आज मुझे जाना ही होगा। थोड़ी सी प्रतिकूल टिप्पणियों से बचाव की मुद्रा में क्यों आ जाती थी वह और हमेशा ? अपने को सर्वगुण सम्पन्न कुशल स्त्री और सर्वश्रेष्ठ माँ साबित करने का ठेका क्यों ले रखा था उसने ?'

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नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail --kneeli@rediffmail.com

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