मेरी पहचान bhagirath द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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 मेरी पहचान

 मेरी पहचान 

 

मेरा नाम मेरी पहचान है। लोग मुझे मेरे नाम से पहचानते हैं। जो लोग मुझे आते-जाते देखते हैं और जो मेरा नाम नहीं जानते वे मुझे मेरे चेहरे से पहचानते हैं। चेहरा ही मेरी पहचान है कोई भी मेरा फ़ोटो देखकर कह सकता है कि ये मिस्टर अरविन्द ही है। कई की आब्ज़र्वैशन इतनी तगड़ी है कि वे मुझे मेरी चाल से पहचान जाते हैं। उनमें से कईं मुझे मेरे फिगर ‘फिट एण्ड हैन्डसम’ से पहचानते हैं। बिल्कुल फिल्मी हीरो की तरह।

जो लोग मेरी जान-पहचान के है वे मुझे मेरे पद से पहचानते हैं। ये शख्स थर्मल पॉवर का चीफ इंजीनियर है। जानते हैं चीफ इंजीनियर माने पॉवर प्लांट का सब कुछ इसके अन्डर में। नियुक्ति, निविदा, ठेके, पर्चेज इत्यादि सब कुछ। मेरी इज्जत जो है वो इसी पद के कारण है। अगर पद छिन जाय तो मेरी वैल्यू कितने कौड़ी की रह जायगी! सोचकर ही रुह कांप जाती है।

परिवार में मैं रिश्तों से पहचाना जाता हूँ जैसे घर में बच्चे मुझे डैडी के रूप में, पत्नी के लिए में पति हूँ मात-पिता के लिए पुत्र, किसी का चाचा तो किसी का भतीजा, किसी का बहनोई तो किसी का जमाई, किसी का मामा, किसी का फूफा आदि कितनी पहचान है मेरी ? फिर भी मैं कन्फ्यूज़ नहीं होता हूँ सभी पहचानों को स्वीकार करता हूँ। 

मान लीजिए मैं एक ऐसी अनजान जगह हूँ जहाँ मुझे कोई नहीं जानता, तब मेरी पहचान क्या होगी? औरों की तरह एक इंसान हूँ यानी इंसान होना मेरी पहचान बन जाती है। इंसान के रूप में भी मेरी पहचान तब तक है जब तक मैं जिंदा हूँ, मरने पर मैं एक लाश हूँ, और लाश फूंकने के बाद, राख और हड्डियाँ क्या मेरी पहचान हो सकती है? नहीं, राख और हड्डियाँ तो दूसरों की भी ऐसी ही होती है। फर्क करना मुश्किल है तो क्या मेरी पहचान बिल्कुल मिट गई?

जिस पहचान की वजह से इतराया फिरता था वह तो नष्ट हो गई। हंसा सुंदर काया रो मत करजे अभिमान आखिर एक दिन जाणो रे मालिक रे दरबार।  गुरुजी कहते हैं, ‘तुम मिटे नहीं तुम्हारी आत्मा अभी भी ब्रह्मांड में विचरण कर रही है।’

‘पर मुझे तो इसका ज्ञान नहीं। क्योंकि आत्मा के इंद्रियाँ नहीं होती मस्तिष्क नहीं होता एक चेतना  भर रहती है। जब यही आत्मा नया शरीर धारण करेगी तब तुम्हारी नई पहचान बनेगी।  हो सकता है नया जन्म पुरुष का न होकर स्त्री का हो सकता है आत्मा तो लिंगहीन होती है। यह जिस तरह के जीव में प्रवेश करती है वैसी ही हो जाती है कव्वे के शरीर भी धारण कर सकती है।

“क्या कह रहे हैं गुरुजी ? जिस पहचान को मैं अपने दिल से लगाये रखा वह अंततः खाक होनी है।” “बिल्कुल, तुम्हारी पहचान तुम्हारे घर की दीवार पर तस्वीर के रूप में टँगी रहेगी। श्राद्ध के दिनों उस पर माला टाँग देंगे कुछ भोजन भी परस देंगे तुम खा तो नहीं पाओगे इसलिए वे इसे  गाय, कुत्ते और कव्वे को दे देंगे। हो सकता है तुम्हारा जन्म उनके रूप में हुआ हो।

कितना भयानक है यह पहचान का संकट। जीवन भर जिस पहचान को बनाने में लगाया उसे अंततः मिटना ही है। जीवन भर का श्रम व्यर्थ गया।