अन्धायुग और नारी - भाग(४७) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अन्धायुग और नारी - भाग(४७)

"ओह...तो ये बात है,शमा उस बात को लेकर आपको धमकी दे रही थी",हमने शबाब से कहा...
"हाँ! इसलिए वो हमें इस बात को लेकर अकसर धमकाती रहती है"शबाब बोली...
"ख़ुदा ना ख़्वास्ता अगर नवाब साहब तक ये बात पहुँच गई तो तब क्या करेगीं आप"?,हमने शबाब से पूछा....
"तब की तब देखी जाएगी मर्सिया बेग़म! अब तो हमें आदत सी हो गई है तनहाइयों में रहने की"
शबाब बोली...
"कभी सोचा है आपने कि नवाब साहब रुबाई बेग़म का क्या हाल करेगें अगर उन्हें कुछ पता चल गया तो,आपने जानबूझकर खतरा मोल क्यों ले लिया",हमने शबाब से पूछा...
"अब जो भी अन्जाम होगा सो देखा जाएगा,कब तक हम यूँ ही डर के साए में जीते रहें,हमें क्या खुश रहने का हक़ नहीं है,हम क्या अपने मनमुताबिक नहीं जी सकते,कब तक हमें यूँ ही गैरों के हिसाब से जिन्दगी जीनी पड़ेगी"शबाब बोली...
"कहीं आपकी ये नाफ़रमानी आपको ले ना डूबे",हमने शबाब से कहा....
तब शबाब बोलीं....
मिर्जा ग़ालिब साहब का एक खूबसूरत शेर है...

"आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती "

"यही हाल हमारा भी है,अब तो बस जिएँ जा रहें हैं बेमतलब,कोई ख्वाहिश नहीं,अब कोई भी ख्वाब नहीं,क्योंकि हमें पता है कि हमारे नसीब में ना तो शौहर का सुख लिखा है और ना ही औलाद का"
और ऐसा कहकर शबाब फफक पड़ी और हमने उसे दिलासा देते हुए अपने काँधे से लगा लिया,फिर हमने शबाब से कुछ और बातें की और हम वहाँ से वापस आ गए और अब हमें नवाब साहब की सारी सच्चाई पता थी,इसलिए उस दिन के बाद हमने कभी भी नवाब साहब से दीवानखाने में रुकने के लिए नहीं कहा,वे अपनी मर्जी से आते और अपनी मर्जी से चले जाते,जब कभी वो अपनी पसंद के खाने की फरमाइश करते तो हम उन्हें पकाकर खिला देते,वैसे भी वो परहेज़ी खाना खाते थे जो हमें बिलकुल भी पसंद नहीं था,इसलिए वो खुद ही हमसे साथ खाने के लिए कभी ना कहते थे.....
दिन यूँ ही गुजर रहे थे कि एक रोज़ हमें पता चला कि हमारे बड़े अब्बू ख़ुदा को प्यारे हो गए और जो भी उनकी बची खुची जमीन जायदाद थी,उन्होंने वो भी हमारे नाम कर दी थी,उनका जनाजा निकला तो हम फूट फूटकर रो पड़े क्योंकि मायके के नाम पर एक वही शख्स थे जो अब वो भी इस दुनिया से रुखसत हो चुके थे,अब हम बिलकुल अकेले हो गए थे...
बड़े अब्बू के चालीसवें के बाद हम फिर से लौट आएं,अभी बड़े अब्बू को गुजरे कुछ ही दिन हुए थे कि फौजिया बेग़म चल बसीं,उनके जाने पर हमने मन में कहा कि अल्लाह उन्हें जन्नत बख्शे क्योंकि जहन्नुम क्या होता है वो तो उन्होंने इसी दुनिया में देख लिया था,हमने उनके जाने का कोई अफसोस इसलिए ना था कि क्योंकि वो जिस तरह की जिन्दगी जी रहीं थीं,इससे अच्छा तो उनका मर जाना ही ठीक रहा,हम उनके आखिरी समय में उनसे मिलने ना जाए बस इस बात का अफसोस हमें अभी भी है,उनका जनाजा नवाब साहब ने बड़ी धूमधाम से निकाला क्योंकि वे सुहागन जो मरी थीं....
दिन ऐसे ही गुजर रहे थे कि नवाब साहब को रुबाई और शबाब के रिश्ते के बारें में सब पता चल गया और एक रोज पता चला कि रुबाई अपने घर में मरी हुई पाई गई किसी चोर ने उसका कत्ल कर दिया था और घर से कुछ नगदी और जेवर लेकर भाग गया था,ये तो सभी को पता था कि ये सब किसने करवाया था लेकिन नवाब साहब के सामने किसी की जुबान नहीं खुली और रुबाई के जाने के ग़म में शबाब की तबियत खराब रहने लगी और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया ,अपना ख्याल ना रख पाने की वजह से उन्हें तपैदिक हो गया था ,हम कभी कभी उन्हें देखने चले जाया करते थे लेकिन उन्होंने हमें उनके पास आने से मना कर दिया था,उन्हें डर था कि कहीं हमें भी उनका रोग ना पकड़ ले और फिर अपने आखिरी समय में शबाब ने हमें बुलवाया.....
हम उनके पास पहुँचे तो उन्होंने हमें कुछ कागजात थमाते हुए कहा....
"मर्सिया बेग़म! हमने अपनी जमीन जायदाद सब कुछ आपके नाम कर दिया है,हम ये सब कभी नवाब साहब को नहीं दे सकते थे, हम उनसे बहुत ज्यादा नफरत करते हैं,उनकी वजह से हमारी जिन्दगी बेजार हो गई है,हम उन्हें कभी माँफ नहीं करेगें"
"लेकिन शबाब बेग़म! आपने हमें ही क्यों चुना"? हमने उनसे पूछा...
"क्योंकि आप हमारी छोटी बहन की तरह हैं और हमारी अजीज हैं इसलिए",शबाब बोली...
और फिर उस दिन वो सारे कागजात हम अपने साथ लेकर वापस आ गए ,वो शबाब से हमारी आखिरी मुलाकात थी,उसके बाद हम शबाब से कभी नहीं मिल पाएं क्योंकि उस मुलाकात के दो तीन बाद ही शबाब इस दुनिया को छोड़कर चलीं गईं थीं.....
ऐसे ही पाँच साल और गुजर गए,अब नवाब साहब की हालत खस्ता हो चुकी थी,उनका मर्ज किसी डाक्टर हकीम को समझ ही नहीं आ रहा था,एक मर्ज हो तो वो भी पता चल जाए लेकिन उन्हें तो ना जाने क्या क्या कैसें मर्ज थे,उनका इलाज अब डाक्टर और हकीमों के वश का ना रह गया था,उन्होंने पूरी तरह से बिस्तर पकड़ लिया था,उनके सारे काम अब बिस्तर पर ही होने लगे थे,हम नौकरों को मुँहमाँगी तनख्वाह दे रहे थे इसलिए वे उनकी खिदमत में कोई भी कसर नहीं छोड़ रहे थे,हमने उनके इलाज पर दिल खोलकर पैसा खर्च किया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ और फिर नवाब साहब भी अपना सबकुछ हमारे नाम करके इस दुनिया को छोड़कर चले गए,वैसे उनके पास इतना कुछ तो था नहीं लेकिन जो कुछ भी था उन्होंने हमारे नाम कर दिया.....
हमने अपनी पूरी जवानी यूँ ही काट दी,कभी किसी मर्द की ओर आँख उठाकर नहीं देखा और बुढ़ापे की दहलीज़ पर आकर खड़े हो गए तो हमने अपने अकेलेपन से बचने के लिए हवेली को किराए पर चढ़ा दिया,क्योंकि अब हम पर इस बुढ़ापे में कोई ऊँगली नहीं उठा सकता था कि हमने जवान लड़को अपनी हवेली में किराएदार रख रखा है.....
और अभी कुछ महीनों पहले हमारी तबियत बिगड़ी तो हमें देखने एक नौजवान डाक्टर आएं,जिनका नाम सूर्यप्रताप सिंह था और उन डाक्टर साहब को देखकर हम अपना मर्ज भूल बैठे....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....