श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 6 Ashish Kumar Trivedi द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रीमद्भगवद्गीता मेरी समझ में - अध्याय 6



अध्याय 6

ध्यानयोग

पिछले अध्याय कर्मसन्यास योग में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि सन्यास की अवस्था को प्राप्त करना कठिन है। इसके लिए निष्काम कर्म का रास्ता अपनाना ही सबसे उत्तम है।
इस अध्याय के आरंभ में श्रीकृष्ण अर्जुन को सन्यास और योग की समानता के बारे में बताते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि योग और सन्यास दोनों में ही स्वयं को इंद्रियों और उनके विषयों से अलग करना आवश्यक है। जो ऐसा करने में सफल होता है वह योगी कहलाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन अपने मन को एकाग्र कर उस पर नियंत्रण प्राप्त करो। उसे भटकने न दो। मन मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु हो सकता है। संयत मन उत्थान की तरफ ले जाता है। अनियंत्रित मन विषय भोग में उलझाकर पतन की तरफ ले जाता है।
मन पर विजय प्राप्त करने वाला व्यक्ति सुख दुख, मान अपमान, गर्मी जाड़े आदि द्वंद्वों से ऊपर उठ जाता है। उसके लिए कंकड़ और बहुमूल्य रत्न एक समान रहते हैं। वह सदैव आत्मसंतुष्टि की स्थिति में रहता है। योगी अपने शत्रुओं एवं सगे संबंधियों के प्रति तटस्थ रहता है। वह पुण्यात्माओं और पापियों के बीच निष्पक्ष रहता है।
योग की कामना करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह एकांतवास करे‌। अपने शरीर व मन पर नियंत्रण प्राप्त कर सदैव अपना मन ईश्वर में लगाए। वह भूमि पर कुशा बिछाकर उस पर मृगछाल डालकर शांत भाव से बैठे। उसका आसन न बहुत ऊँचा हो और न ही बहुत नीचा। अपने मन को एकाग्र करने का प्रयास करे और ईश्वर में अपना मन लगाए।
एक योगी के लिए संतुलित रहना बहुत आवश्यक है। उसे न तो आवश्यकता से अधिक भोजन करना चाहिए न कम। बहुत अधिक सोना या बहुत कम सोना भी ठीक नहीं है। पूर्ण रूप से अनुशासन में रहकर ही योग की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। योग की अवस्था में मन उसी प्रकार शांत रहता है जैसे वायुरहित स्थान पर दीपक की ज्योति स्थिर रहती है।
योग की परम अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधि की अवस्था में योगी आत्मलीन होकर परम आनंद प्राप्त करता है। इस अवस्था में न तो वह कोई कामना करता है और न ही कठिनाइयों से विचलित होता है। जिस अवस्था में सारे दुखों का विनाश हो जाता है उसे योग कहते हैं।
मनुष्य का मन चंचल होता है। अभ्यास द्वारा उसे नियंत्रित कर आत्मा में स्थित करना पड़ता है। धीरे धीरे अभ्यास से मन को एकाग्र किया जा सकता है।
अपने चित्त को एकाग्र कर योगी ईश्वर में लगा देता है। इस अवस्था में वह सबको समान दृष्टि से देखता है। सभी में ईश्वर के दर्शन करता है। ऐसा योगी सदा मेरे निकट रहता है।
श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन परेशान होकर कहता है कि हे मधुसूदन जो आपने बताया वह अत्यंत कठिन काम है। मन बहुत चंचल होता है। उसे वश में करना पवन के वेग को रोकने के समान है।
अर्जुन की समस्या सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा कि यह सच है कि मन को भटकने से रोकना कठिन है पर एक व्यक्ति धैर्यपूर्वक अभ्यास द्वारा मन को नियंत्रित कर योग की अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि अभ्यास द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। पर अर्जुन के मन में अभी भी दुविधा थी। उसने अपने मन का संशय प्रकट करते हुए पूछा कि यदि कोई पूरी आस्था से मन को नियंत्रित करने का प्रयास करे पर असफल रहे तो उसकी क्या गति होगी ? क्या वह बिखर गए बादल की तरह नष्ट हो जाएगा ? हे प्रभु आप ही मेरे मन के इस प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।
अर्जुन के प्रश्न का जवाब देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ जो व्यक्ति सही प्रकार से से प्रयास करके भी असफल हो जाता है वह भी कष्ट नहीं भोगता। मनुष्य के सत्कर्म बेकार नहीं जाते। ऐसा व्यक्ति स्वर्ग का सुख प्राप्त करता है। अपने अगले जन्म में वह किसी समृद्ध और उच्च कुल में अथवा योगी के परिवार में जन्म लेता है। अपने पूर्व जन्म के संचित कर्मों के कारण वह पुनः योग की तरफ अग्रसर होता है।
योगी किसी भी तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी से बड़ा होता है। योगियों में भक्ति‌ योगी मुझे सबसे प्रिय है क्योंकि वह पूर्ण श्रद्धा से मेरे प्रति समर्पित होता है।


अध्याय की विवेचना
इस अध्याय में योग के विषय में समझाया गया है। योग का शब्दिक अर्थ है जोड़ना‌‌। आध्यात्मिक दृष्टि से योग का अर्थ है अपनी समस्त इंद्रियों को विषयवस्तुओं से समेट कर परम सत्य में लगाना। अर्थात योग वह अवस्था है जब व्यक्ति अपनी आत्मा में लीन होकर परम सत्य को जान लेता है।
पिछले अध्याय में कहा गया था कि निष्काम कर्म करते हुए सन्यास की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। पर वास्तविकता यह है कि मनुष्य का मन सबसे अस्थिर वस्तु है। वह कभी भी स्थिर रहकर एक वस्तु पर केंद्रित नहीं रहता है। मनुष्य उसे जिस ठौर पर लगाना चाहता है वह उससे हटकर दूसरी तरफ चला जाता है। उसका यह भटकाव मनुष्य को उसके लक्ष्य से भटका देता है। अतः ऐसा हो सकता है कि निष्काम कर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति अपना कर्म करते विषयों में उलझ जाए और अपने लाभ के बारे में सोचने लगे।
मनुष्य का मन उसे बनाने की शक्ति रखता है तो उसका सर्वनाश भी कर सकता है‌‌। मन एक अश्व के समान है। अश्व की लगाम को यदि सही प्रकार से पकड़ कर रखा जाए तो वह आपके नियंत्रण में रहकर आपके हित में काम करता है। उसे अपने अनुसार निर्देशित किया जा सकता है। परंतु यदि अश्व की लगाम ढीली पड़ जाए और वह आपके नियंत्रण से बाहर निकल जाए, तब वह आपके निर्देश का पालन नहीं करता है। अनियंत्रित अश्व अपने हिसाब से भागता है। वह आपको आपके लक्ष्य से दूर तो ले ही जाता है बल्कि आपको मुश्किल में भी डाल सकता है।
मनुष्य जब मन रूपी अश्व को नियंत्रित नहीं कर पाता है तब वह उसके निर्देश पर काम करने लगता है। अनियंत्रित मन विषय भोगों की तरफ भागता है। व्यक्ति को लगता है कि विषयों का भोग ही सबकुछ है। अतः वह अपनी इंद्रियों की संतुष्टि में लग जाता है और अपने उद्देश्य से विमुख हो जाता है।
एक छात्र का उदाहरण लेते हैं। उसने मेहनत करके प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होना अपना लक्ष्य बनाया है। वह उसके लिए एक टाइम टेबल बनाता है। परीक्षा की तैयारी के लिए उसका अनुसरण आरंभ कर देता है। उसके पास लक्ष्य है और वह मेहनत भी कर रहा है। पर उसका मन अपने टाइम टेबल का अनुसरण करते हुए भटक जाता है। वह अपने साथियों की तरफ देखता है जो उस समय में सैर सपाटे पर जाते हैं, दूसरी बहुत सी चीज़ों का मज़ा लेते हैं। उसका मन रह रहकर भटकने लगता है।
यदि वह समय पर चेतकर अपने मन को वश में नहीं करता है तो मन उसके निश्चय पर हावी हो जाता है। वह सोचता है कि कुछ देर टाइम टेबल में ढील देने से क्या नुकसान। वह थोड़ी सी ढील देता है। मन और ललचाता है। वह और अधिक ढीला पड़ जाता है। एक समय आता है जब वह पूरी तरह मन के वश में आ जाता है‌। वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है।
उस छात्र के लिए यही उचित था कि वह अपने नियम में बिल्कुल भी ढील न बरतता‌। मन के भटकाव को नियंत्रित करता। पर उसने ऐसा नहीं किया। उसका संकल्प कमज़ोर पड़ गया।
निष्काम कर्म के रास्ते पर चलते हुए भी मनुष्य का संकल्प कमज़ोर पड़ सकता है। अतः आवश्यकता है कि अपने मन को भटकने से रोका जाए। अश्व को नियंत्रित करने के लिए उसे रथ में जोतकर लगाम अपने हाथ में रखते हैं। इसी तरह मन रूपी अश्व को पूरे प्रयास से एकाग्र करके लक्ष्य पर केंद्रित किया जाना आवश्यक है। परम लक्ष्य है परम सत्य का ज्ञान। अतः हर तरफ से मन हटाकर ईश्वर में लगाया जाए।
मन का नियंत्रण बहुत कठिन काम है। इसके लिए पूरी सजगता से प्रयास करना पड़ता है। बार बार के अभ्यास से मन को काबू में किया जा सकता है‌। परंतु यह काम प्रबल इच्छाशक्ति से ही हो सकता है।
काम जितना कठिन हो आपकी इच्छाशक्ति का उतना ही अधिक प्रबल होना अत्यंत आवश्यक है। आधे अधूरे संकल्प से इच्छाशक्ति दृढ़ नहीं होती है। अतः मनुष्य को अपने संकल्प को पूर्ण रूप से दृढ़ बनाना चाहिए जिससे कि वह मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ अपने संकल्प पर खरा उतर सके। संकल्प की दृढ़ता के लिए अनुशासन बहुत आवश्यक होता है।
फिर भी मन को नियंत्रित कर लक्ष्य पर एकाग्र करना बहुत मुश्किल काम है। विश्वमित्र जैसे तपस्वी भी इसमें चूक गए थे। अतः यह संभव है कि मन को नियंत्रित करने का आपका प्रयास विफल हो जाए। अतः अर्जुन ने इसी विषय में अपनी चिंता जताते हुए पूछा था कि यदि पूरे मन से प्रयास करते हुए भी विफल हो जाए तो क्या होगा ?
भगवद्गीता का परम उद्देश्य परम सत्य का ज्ञान अर्जित करना है। पर यह कठिन कार्य है जिसे सफल होने के लिए कई प्रयास लगेंगे। पिछला प्रयास यदि विफल भी हो जाता है तो उसका संचित फल बेकार नहीं जाता है। वह हमारे साथ आगे बढ़ जाता है। जब तक हम परम सत्य को पूरी तरह जान नहीं लेते हैं तब तक हर जन्म में हमारे पास प्रयास करने का अवसर होता है। हम अपने सत्कर्मों के संचय के साथ इस जन्म से अगले जन्म में प्रवेश करते हैं।
हमारा प्रयास विफल हो सकता है पर लक्ष्य प्राप्ति तक प्रयास का अवसर रहता है।

हरि ॐ तत् सत्