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उत्पल के कंधे को आँसुओं से भिगोने के बाद मैं शायद कुछ सहज हुई, नहीं सहज तो नहीं हुई लेकिन इतने आँसु निकल जाने के बाद मेरे मस्तिष्क ने शायद कुछ सोचना शुरू कर दिया था | कर तो मैं वही रही थी जिससे भागती रही थी फिर इतने दिन इस भाग-दौड़ का क्या अर्थ रहा?
दो-तीन दिनों तक मेरी मनोदशा अजीब सी तो रही लेकिन मैं तो ठान चुकी थी अपने मन में, मैंने शीला दीदी से कहा कि मैं अब इस रिश्ते को लटकाए नहीं रख सकती | उन्होंने जाने कब यह बात अम्मा से बता दी थी, वैसे बतानी तो थी ही और मेरी पेशी हुई, सबके सामने !
“अमी !तुम्हें लगता है कि तुम प्रमेश के साथ खुश रह सकोगी ? ”पापा ने बहुत गंभीर स्वर में मुझसे पूछा था | अधिकतर वे इन मामलों में चुप ही बने रहे थे | प्रमेश का घर कहीं से भी कोई एक सितार के अध्यापक का घर नहीं था, वह पूर्णता एक ऊँचे खानदान का निवास लगा था | जिसमें कहीं कोई कमी नहीं लगी थी पापा को | मेरे लिए कोई बिलकुल ऐसा साथी तो मिलने से रहा था जैसा हमारे संस्थान की ऊंचाई और रौब-दाब था लेकिन उसके घर में कोई कमी नहीं थी और देखा जाए तो शादी के बाद भी यह संबंध तो अधिकतर संस्थान से ही बंधकर रहना था | बेशक शीला दीदी और रतनी व सब लोग थे जिन पर अम्मा ने सब कुछ छोड़ा हुआ था लेकिन जब मैं उनकी अपनी बेटी थी तब मेरा कर्तव्य भी तो कुछ बनता था | इसीलिए मैं मन से चाहती थी कि बेशक मेरा विवाह हो जाए लेकिन रहूँ भारत में ही, ऐसी जगह पर ही जहाँ संस्थान से जुड़ी रह सकूँ |
काफ़ी देर हो चुकी थी पापा ने प्रमेश के बारे में मुझसे पूछा था, उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि मेरी ओर उठी हुईथी | थी, मैंने कहा;
“पापा! एडजस्टमेंट तो हर जगह, हर इंसान के साथ करना पड़ता है | अब इतनी बड़ी बात शायद किसी कारण से ही हुई होगी | ”मैं जानती थी कि यह सब कहते हुए मेरे मन पर न जाने कितना ज़ोर पड़ रहा था | अपने ढेरों आँसु मैं उत्पल के कंधे पर गिराकर हल्की हो चुकी थी और जो अभी बाकी थे, उन्हें पीने की कोशिश कर रही थी | कभी भी, कहीं भी उनके निकलने की आशंका बनी रहती |
“रो लो, कर लो हल्का खुद को | है न मेरा कंधा---”उत्पल ने मुझे सहलाते हुए कहा था | भावावेश में मैं उससे और चिपट गई थी। क्या करूंगी इसके बिना ? ?
पापा ने मेरी बात सुनी, उनके चेहरे से लगा कि वे कुछ संतुष्ट नहीं हैँ लेकिन उनकी इस असंतुष्टि का मैं कुछ नहीं कर सकती थी | निर्णय लेने, न लेने के बीच लटकी हुई स्थिति में मुझे अपना जीवन सदा ही बैसाखियों के बीच लटकता महसूस हुआ है | होने, न होने के बीच बहुत सी चीज़ें मेरे लिए एक आम जीवन जीने में व्यवधान बनती रहीं |
“मैं कल प्रमेश की बहन से बात कर ही लेती हूँ, शायद ईश्वर ने तुम्हारे लिए इनको ही बनाकर भेजा है | ”अम्मा ने कहा जिसका मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया | मैं अपने चैंबर में आकर कुछ काम करने की कोशिश करने लगी थी लेकिन क्या? कुछ समझ ही नहीं पा रही थी | एक ओर प्रमेश से विवाह कर लेने की बात से महसूस हुआ कि मैंने बहुत बड़ी समस्या हल कर ली है और दूसरी ओर उत्पल की गंध मुझे छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थी |
थोड़ी देर बाद सब अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए | पापा भी संस्थान में राउंड मारने चले गए, वे अक्सर संस्थान में चक्कर लगाते ही रहते थे | अम्मा के मुख पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं | ये क्या है भई, मैं उनकी बात मानूँ तब भी वे परेशान और न मानूँ तब तो परेशान होना ही है | कैसी रेत सी फिसलती है ज़िंदगी !मेरा दम घुटने लगता है कभी भी | हो सकता था मैं अपने शरीर की ज़रूरत को दबाने की चेष्टा में और भी असहज होती जा रही थी |
आखिर वह क्षण आ ही गया कि अम्मा ने प्रमेश की बहन से मेरी ओर से ‘हाँ’ कर दी |
“तब तैयारियाँ शुरू कर देते हैं---“अम्मा ने बताया कि प्रमेश की दीदी उत्साह से भर उठी थीं----और प्रमेश? मन में विचारों का झंझावात उठना शुरू हुआ जिसमें हम सभी एक डूबती हुई नौका में जैसे हिचकोले खा रहे थे |
“अम्मा !उनसे कह दीजिए कि मैं शादी में कोई दिखावा नहीं करूँगी | कोर्ट में शादी होगी बस ---मेरे नाम के साथ प्रमेश का नाम जुड़ जाएगा और क्या ? ”मैंने उदासी से उत्तर दिया था और मन के भीतर जैसे उदासी की परत उतरती महसूस की | कोई तीक्ष्ण छुरी से मेरा अंतर चीर रहा था जैसे---
“ऐसा क्यों कह रही हो अमी? ”अम्मा भी उलझ गईं थीं, मैं तो उलझी हुई थी ही | वह दिन बड़ा कसमसाहट में बीता | अम्मा ने बताया था कि प्रमेश की दीदी बहुत खुश हो गईं थीं और मुझसे मिलना चाहती थीं |
“लेकिन क्यों? अभी तो मिली थीं ? ”मैंने कहा तो अम्मा और परेशान हो उठीं |
“देखिए अम्मा, आप परेशान मत होइए । अब मेरी या प्रमेश की ऐसी शादी की उम्र तो है नहीं कि बाजे बजाकर शादी की जाए | आप मेरी ओर से निश्चिंत हो जाएंगी, यह बहुत बड़ी बात हो सकेगी | आपको मेरी ही चिंता लगी रहती है, यह तो गलत है न ? ”
मुझे इस बात का और आश्चर्य हो रहा था कि प्रमेश संस्थान में आते हैं और मुझसे कोई बात करने या मिलने का उनका कोई मन नहीं होता था | क्या दो बार में ही उनकी ‘डेटिंग’पूरी हो गई थी ? अगर हम एक परिवार बनाने की बात कर रहे थे तो मन में कोई उत्सुकता, कोई थ्रिल तो होना चाहिए था कि नहीं ? अजीब सी ही स्थिति थी और हम आगे बढ़ते जा रहे थे | बिना कुछ महसूस किए, बिना किसी कोमल अहसास के!
जहाँ श्रेष्ठ मुझसे मिलने पर इतनी इंटीमेसी कर लेना चाहता था, वहीं यह आदमी शादी के लिए तैयार था लेकिन इसके मूड और व्यवहार का मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था | इस गुंजलक से निकलना मेरे लिए और भी कठिन लेकिन जरूरी भी था | कुछ ऐसा प्रभाव था प्रमेश की दीदी का कि मैं भी अपनी भलाई उसी में सोचने लगी थी जो वे चाहती थीं | अब देखा जाएगा भविष्य में जो होगा, यह काफी था कि वे रजिस्टर्ड मैरेज के लिए मान गई थीं | वैसे मुझे लग रहा था कि पापा भी बहुत खुश नहीं थे लेकिन मेरे कहने पर ही तो सब तय होना था | तय यह हुआ था कि शादी के बाद बहुत करीबी लोगों के साथ एक छोटी सी पार्टी हो जाएगी |