जिंदगी के रंग हजार - 7 Kishanlal Sharma द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी के रंग हजार - 7

और पहली ड्यूटी इसी खिड़की की मिलीथी।परेशानी आयी।उन दिनों लकड़की की ट्यूब होती थी।इसमें कार्ड टिकट की साइज के खांचे होते थे।जिसमें टिकट भरने पड़ते थे।हर स्टेशन का एक खाँचा और चाइल्ड टिकट का अलग
औऱ जिन मेहताजी को लोग गुस्से वाला कहते या उनसे डरते थे।वह वैसे नही थे।
मैं उनके करीब आने लगा।कैसे
सर्विस में काम का बड़ा महत्त्व होता है।और हर इंचार्ज अपने उस सहायक को पसन्द करता है जो काम करे और ओबीडेन्ट हो
बुकिंग ऑफिस में उन दिनों बहुत काम होता था।आजकल कम्प्यूटर न बहुत कुछ आसान कर दिया है।जैसा मैंने कहा उन दिनों कार्ड टिकट का जमाना था।साल में दो बार टीकट का इंडेंट करना पड़ता था।वेस्टर्न रेलवे की प्रेस और लेखा कार्यालय अजमेर में था। लाखो की संख्या में टिकट आते थे।उन टिकटों को गिनना पड़ता था।एक पैक्ट में 5 हजार टिकट आते थे।एक पैकेट में20 बंडल होते और एक बंडल में250 टिकट।इन्हें गिनना पड़ता था।और सब मिलकर गिनते थे।
मेरी उन दिनों शादी नही हुई थी।मैं अकेला रहता था।अमूमन मेरी ड्यूटी2 बजे से रहती थी।मैं ऑफिस 12 बजे के आसपास पहुँच जाता और टिकट गिनता।मेरे को काम सीखने कि ललक थी।मैं मेहताजी से इंचार्ज के काम टिकटों को अलमारी में सेट करना, बेलेंस शीट बनाना औऱ पिरियोडिक्ल ग्रॉस अर्निंग आदि सीखने लगा।अन्य लोग इनसे बचते है।वे सिर्फ अपनी8 घण्टे की ड्यूटी ही करना चाहते है।लेकिन मेरा सोचना अलग था।और मै महताजी जिनहै हम बड़े बाबू स बुलाते थे से कुुुछ ने कुुुछ
सीखने कि कोशिश करता।मुझे अपने पिता की असामयिक मृत्यु के कारण बी एस सी की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी थी।अपना ग्रेजुएशन पूरा करने के लिए सेंट जोहन्स कॉलेज में बी ए में रेगुलर एड्मिसन ले लिया।इसमें जे सी शर्मा ने मदद की थी।मेरी ड्यूटी ज्यादातर रोस्टर में रहती थी मतलब6 बजे से 2 बजे तक,या 2 बजे से 10 बजे तक या रात को 10 से सुबह 6 बजे तक।कॉलेज का समय 10 बजे से एक बजे तक का था।सुबह की ड्यूटी यानी 6 बजे से 10 बजे तक कि में सुबह 8 बजे एक गाड़ी जाती थी।उसकी बुकिंग करनी पड़ती थी।उसके बाद आरक्षण के लिए टिकट बिकते थे।मैं9 9 बजे कॉलेज चला जाता उसके बाद बड़े बाबू यानी मेहताजी मेरी खिड़की देखते थे।मैं करीब डेढ़ बजे कॉलेज से आता और हिसाब लगाता था।कॉलेज में पढ़ाने वाले कुलदीप,कमला पांडे, चतुर्वेदी,रेनिक आदि थे।
कहने का मतलब कुछ समय बाद ही मेरा मेहताजी से जुड़ाव हो गया था।इसका एक कारण और था।मेहताजी के कोई इशू नही था।मतलब निसंतान थे।इसलिए भी उनका स्नेह मुझे मिला।
मैं उनके घर भी जाने लगा।वह खाने के लिए इतवार को मुझे बुला लेते थे।मेरे पर स्नेह देख कर ऑफिस के लोग ईर्ष्या भी करते।इसका एक कारण और था।वह एक दो दिन कि छुट्टी जाते या कोटा ड्यूटी पर या यूनियन की मीटिंग में जाते तो मुझे इंचार्ज बना जाते और अलमारी की चाबी दे जाते।जबकि मैं ऑफिस में ही नही स्टेशन पर भी सबसे जूनियर था।यह बात सीनियर लोगो को बुरी लगती।लगनी भी चाहिए थी।इंचार्ज का चार्ज सीनियर को ही मिलना चाहिए था।
लेकिन वह इसकी चिंता नही करते थे।वह मजदुर संघ के चेयरमैन भी थे।