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पेट डॉग

व्यंग्य

श्वान और मालिक का प्रात: कालीन भ्रमण

यशवंत कोठारी

रोज़ सुबह इस पोश कोलोनी में घूमने के साथ साथ कई काम एक साथ हो जाते हैं. कचरा फेंक देता हूँ दूध ले आता हूँ, गाय को रोटी दे आता हूँ और घूम भी लेता हूँ. बड़े लोग, बड़े बंगले, बड़ी गाड़ियाँ और छोटे छोटे दिल लेकिन बड़े बड़े पेट्स इनको श्वान या कुत्ता कहना मालिक या मालकिन का अपमान है. 

अक्सर मुझे अमिताभ बच्चन की फिल्म का एक डायलॉग याद आता है जिसमे वे एक सुबह घूमने वाले को देख कर कहते हैं –इस गधे के साथ कहाँ जा रहें हैं पेट- मालिक बोलता है –यह गधा नहीं मेरा पेट डॉग है अमित जी मासूमियत से कहते हैं मैंने यह सवाल आप से नहीं पेट से ही पूछा था. खैर छोडिये. 

अब तो अदालत ने भी गली मोहल्लों के कुत्तों के लिए स्थान सुनिश्चित करने को बोला है कोलोनी वाले उनके लिए खाने की भी व्यवस्था करेंगे. अब तो पेट डॉग्स के लिए पार्क भी बनने लग गए हैं. पेट ट्रेनर की रेट कोचिंग से भी ज्यादा हो गयी है,घुमाने केलिए स्टाफ रखा जाता है. सुबह पेट को घुमाने वाले उसे पट्टे से आजाद कर के खुला छोड़ देते हैं,पेट अपना पेट साफ कर लेता है सुसु से धरा को पवित्र कर देता है तब तक मालिक दूर खड़ा रहता है ताकि आक्षेप करने पर यह कह सके की यह पेट मेरा नहीं है,निवृत्त हो कर पेट मालिक के पास आ जाता है मालिक उसे पट्टे से बांध कर घर की और चल देता है. कुछ समझदार पेट मालिक अपने श्वान की पोट्टी थेली में भर कूड़े दान में डाल देते हैं अपनी संतानों की नेपि भले न बदली मगर पेट के लिए कर देते हैं. कोलोनी में पेट्स का सामना अक्सर आवारा कुत्तों से हो जाता है गली के श्वान बंगले के श्वान से सेमिनार और वर्कशॉप करने लग जाते हैं इस सामूहिक रुदन से देर से उठने वाले परेशान हो जाते हैं, मगर विरोध करने पर पशुप्रेमी स्वयं सेवी संस्था के महारथी लोग आ जाते हैं और आवारा कुत्तों को उठाने वाली गाड़ी के आगे लेट जाते हैं स्थिति हर गली मोहल्ले में एक जैसी है. श्वान प्रेमी होना अच्छा है लेकिन क्या मानवता वादी होना गलत है, हर शहर में नवजात बच्चों, बूढों बुजुर्गों, महिलाओं को ये श्वान अपना शिकार बना चुके हैं एक दान्त गड़ने पर दस हज़ार का मुआवजा देने के आदेश है लेकिन ऐसी स्थिति ही क्यों आये ?

पेट पालें,मगर दूसरों की जिन्दगी से खिलवाड़ न करें. कुत्तों के अलावा बिल्ली, तोता, चिड़िया, खरगोश, कछुआ या अन्य जानवर पाले जा सकते हैं. आवारा जानवरों के खतरें बहुत है. सड़क पर रा त- बिरात निकलना तक मुश्किल हो गया है श्रीमान. पेट्स के भी खान दान होते हैं असली नस्ल को पहचानने के लिए विशेषज्ञ है, नस्ल सुधारने वाले भी मिल जाते हैं. लेकिन मानव की कौन सोचता है? कुत्ते नवजात तक भी पहुँच जाते हैं. चीर फाड़ देते हैं, लेकिन कौन सुनता है ?

डॉग के सामानों की दुकानें हैं और वहां पर खरीदारों की भीड़ भी है,विदेशों मे तो अलग से पूरे बाज़ार है भारत में भी खुलने की प्रक्रिया है लेकिन आम राहगीर,पैदल चलने वाले,सुबह घूमने के शौक़ीन लोग इस पेट प्यार से दुखी परेशान है. नगर निगम सुनता नहीं कभी सुन ले तो एन जी ओ चलाने वाले पशु प्रेमी गाड़ी को घेर कर कुत्तों को छुड़ा लेते हैं. उनका प्रेम आवारा जानवरों के प्रति नहीं उमड़ता है गरीब दलित आदिवासी के लिए भी नहीं केवल पेट प्यार के मारे हैं ये सब. हजारों लोग हर साल कुत्तों के काटने से मर जाते हैं,कुत्ता नियंत्रण क़ानून बना है लेकिन इस से क्या होता है ?पेट मालिक पर मुकदमें चलाये जाने चाहिए. आंकड़ों के अनुसार रेबीज से हर साल हजारों लोग घायल होते हैं या मर जाते हैं

पेट मालिकों को दूसरों की जिन्दगी से खेलने का कोई ह़क नहीं हैं,सुनो कैर सुनो क्या मेरी आवाज तुम तक पहुंचती है ?

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यशवंत कोठारी,७०१,SB-5 भवानी सिंह रोड,बापू नगर जयपुर -३०२०१५

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