रुकेगी नहीं वसुंधरा prabhat samir द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रुकेगी नहीं वसुंधरा

डॉ. प्रभात समीर

कॉलिज से घर तक का फ़ासला भावशून्य तरीके से तय करके, दरवाजा़ खोलकर वसुन्धरा कुर्सी पर निर्जीव सी जो गिरी तो उठने का नाम ही नहीं लिया । शाम से रात, रात से सुबह हो गयी, लेकिन वह जैसी थी वैसी ही पड़ी रही । 

अपने करियर की शुरुआत से आज तक की घटना उसकी आँखों के आगे से किसी फ़िल्म की तरह गुज़रती जा रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे कॉलिज में घुसने के साथ ही वह किसी युद्ध में झोंक दी गयी थी और सिर्फ़ लड़ती चली जा रही थी और आज कवच उतारकर उसे अपने हिस्से में आये उस युद्ध के भयंकर परिणाम के बारे में सोचने का मौका मिला था । 

पूरा अतीत उसकी आँखों के आगे था । 

उसे याद है जब पहली बार कक्षा में घुसते ही उसकी दृष्टि उस दुबले-पतले, गौरवर्णीय

मासूम चेहरे वाले लड़के पर पड़ी थी। तीन के स्थान को अकेला घेरकर आगे की सीट पर बैठे, औसत से कुछ अधिक लंबे, उस लड़के पर किसीकी भी नज़र जा सकती थी । चालीस मिनिट के पीरियड में उसकी हरकतों ने यह भी बता दिया था कि पूरी कक्षा का नियंता और नियंत्रणकर्ता वही था । वसुंधरा ने उसका नाम पूछा था, बस। पूछने के साथ ही घण्टी की आवाज़ सुनकर वह चलने को हुई कि उस लड़के ने अपना नाम बताते हुए चुनौती भी दी कि उसकी शिकायत, उसके लिए सज़ा....अगर ऐसा सोचा है तो समझ लें कि उसे दण्ड दिलवाने वाला अभी इस ज़मीन पर पैदा ही नहीं हुआ। 

अगला पीरियड शुरू होते ही स्टाफ़ रूम खाली हो गया था । अकेली बैठी वसुंधरा सामान्य होने की कोशिश में थी कि वह धड़धड़ करता हुआ आकर गरजा--

'क्यों मैडम, नाम भूल तो नहीं गयीं? याद दिला दूँ, मैं हूँ'अभिमन्यु प्रधान'। वैसे नाम याद रखकर मेरा क्या उखाड़ लेंगी?जाओ, चीख-चीखकर सबके सामने मेरे नाम की घोषणा करके कह दो...'इतना कहकर महिलाओं की तरह बारीक आवाज़ में 'सर, अभिमन्यु प्रधान का कुछ करना होगा, उसके होते पढ़ाना मुश्किल है...'कहता हुआ वसुंधरा को अवाक और अपमानित छोड़कर, वह झक्की वक्ता गायब हो गया । 

चीख-चिल्लाहट करके यहाँ-वहाँ चर्चित होना वसुंधरा को आता नहीं है । संज्ञाशून्य सी वह कोई दिशा नहीं पकड़ पा रही थी । वह इतना समझ पा रही थी कि घर-परिवार की या समाज की किसी बिगड़ी हुई विपरीत व्यवस्था ने इस 'अभिमन्यु प्रधान'नाम के जीव में इतनी उदण्डता और अहंकार भर दिया है कि वह सहज होकर जी नहीं पा रहा । बित्ते भर की अभी तक जी ली गयी अपनी ज़िंदगी में असफलताओं से जूझकर उसने सिर्फ अपमान की भाषा सीखी है, जिसे वह बांटता चला जा रहा है । 

वसुंधरा विद्यालय की मनोविज्ञान की नयी अध्यापिका है । उसके पिता स्वतंत्रता-सेनानी थे भी तो क्या, देश की आज की राजनीति में तो वह अवांछनीय व्यक्तित्व ही थे । सम्पत्ति के नाम पर केवल अपने उसूल और दायित्वों को अपनी बेटी को सोंपकर वह कबके चल बसे थे। एक ओर उन उसूलों के बोझ से उसका बोझिल होना और दूसरी ओर इस कॉलिज की अपने ढंग की व्यवस्था!

कालिज के लगभग अध्यापक और स्वयं प्रिंसिपल अभिमन्यु के खानदान की मेहरबानियों के बोझ के बोझ तले झुके हैं । कॉलिज की सुव्यवस्था, स्टाफ़ और विद्यार्थियों की समस्याएं, उन्हें साधना, सम्भालना, नियंत्रण, अनुशासन.... सबके लिए अभिमन्यु के घराने पर ही तो निर्भर रहना पड़ता है । इस संस्था के चप्पे-चप्पे में अभिमन्यु के परिवार की गौरव-गाथा चस्पा है, जिसे समझकर ही किसीकी नौकरी यहाँ निश्चिंतता से चल पाती है । 

ऐसी व्यवस्था के बीच में वसुंधरा अपने आप को किसी अवांछनीय तत्व सा महसूस कर रही है। 

रहीअभिमन्यु की बात तो इस विद्यालय में थोड़ी-बहुत फटकार, मज़ाकिया अंदाज़ में दी गई हल्की-फुल्की शारीरिक, वाचिक प्रताड़ना से अधिक उसके विरोध में किसीको भी सर उठाने की इजाज़त नहीं है । इतना सब तो उसको घर में भी झेल लेने की आदत है । आए दिन की उसकी नागवार गुज़रती कुचेष्टाओं को उसका नटखटपन मानकर बाबा, काका, चाचा या कोई भी और बड़ा उसे चुटकी भर सज़ा सुना देता है और बाद में कई तरह के प्रलोभन देकर उसे दण्ड देने का प्रायश्चित भी कर लिया जाता है। 

अभिमन्यु का पढ़ाई-लिखाई से कोई वास्ता ही नहीं है, उसे तो उत्पात करते रहना है । शिक्षक को अपने सामने दयनीय खड़ा देखकर उसे बहुत सुख मिलता है और वसुंधरा है कि कभी असंयमित ही नहीं होती । वह जितनी शांत और संयत, अभिमन्यु उतना ही असंयत, अशिष्ट और विकराल। वसुंधरा की क्या प्रतिक्रिया रहती है, कोई समझ नहीं पा रहा । 

इस मसालेदार विषय पर चर्चा के लिए एक दिन वसुंधरा की अनुपस्थिति में स्टाफ़ के सदस्यों ने आपातकालीन बैठक बुला ली और वसुंधरा को डिस्कस करने में जुट गए । सबको अपनी भड़ास निकालने का मौका मिल गया था। 

-'अभिमन्यु ने पहले दिन ही इतना छकाया कि वसुंधरा अब रोयी कि तब रोयी...'कामिनी मेहता की आवाज़ सुनाई दी । 

अपने आपको महान वैज्ञानिक मानने वाले फ़िज़िक्स के टीचर जेम्स सिन्हा हैरान थे कि अभी तक वसुंधरा ने उन जैसे अनुभवी से परामर्श ही नहीं लिया !

-'ऐसे विद्यार्थी के खिलाफ़ कदम न उठाना यानी अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी से बचना !'सिन्हा ने उग्रता से कहा। 

-'होगी वसुंधरा मनोविज्ञान की ज्ञाता, लेकिन अभिमन्यु जैसों के मनोविज्ञान से हम जैसे ही डील कर सकते हैं...' अपनी अंग्रेज़ी से सबको चुप करा देने वाली अंग्रेज़ी की पण्डिता मीरा गुप्ता ने एक-एक शब्द को चबाकर अपनी बात कह डाली थी । 

राजनीतिशास्त्र की शांता जोशी ने अभिमन्यु जैसों के लिए बनाए गए अपने निजी संविधान की जब व्याख्या शुरु की तो क्लास में अपना पहला दिन याद करके पसीने की बूँदें उनके ललाट पर लगी बड़ी सी सिंदूरी बिंदी को आज भी गीला कर गयीं । उन्हें याद है कि उस दिन क्लास से प्रिंसिपल के कमरे तक पहुँचने में उनकी आँखें आँसुओं से धुँधला चुकी थीं । अपनी सुरक्षा को लेकर घिसे रिकॉर्ड सा कोई टूटा-फूटा वाक्य ही उनके मुँह से निकल पा रहा था....

शांता जोशी की शिकायत पर उस दिन प्रिंसिपल ने स्वयं क्लासरूम में जाकर सबकी खूब ख़बर ली थी। ऐसी छोटी-मोटी डाँट और सज़ाओं को तो अभिमन्यु और उसके साथी अपनी अग्नि परीक्षा मानकर, उसमें से और भी फौलादी बनकर निकला करते हैं । 

प्रिंसिपल की फटकार के बाद तो लड़कों के असहयोग का ऐसा सिलसिला चला कि शांता जोशी नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हो गयीं । 

अंततः अभिमन्यु के स्वर में स्वर मिलाकर ही उन्होंने अपने स्वस्थ रहने का इलाज ढूँढ लिया । इस सारे सच को छिपाकर शांता जोशी ने वसुंधरा की अक्षम्यता का खूब मज़ाक उड़ाया, मदद के लिए हाथ भी बढ़ाया था, लेकिन वसुंधरा भी अलग मिट्टी की बनी है, मौन बनी रही। 

अंततः इस चर्चा का निष्कर्ष यही रहा कि विद्यार्थियों की हमउम्र सी लगने वाली वसुंधरा अगर उन लोगों की मदद नहीं लेगी तो या तो अध्यापन की जगह विद्यार्थियों से ही सबक सीखती रहेगी और या फिर समूल उखाड़कर विद्यालय से ही बाहर फेंक दी जाएगी । 

वसुंधरा भी अब तक स्टाफ़रूम में आ चुकी थी अपनी नौकरी बनाए रखने के कई सफ़ल उपाय उसे सुझाए गए । सबके अलग सुर के बीच एक बात सामान्य थी, वह थी नयी आई बच्ची जैसी इस वसुंधरा को सहयोग और विशेष प्रशिक्षण देने की। 

'कक्षा में अपने नहीं, विद्यार्थियों के ज्ञान का सुख भोगो और चैन की नौकरी करो...' सबने एक स्वर में निर्णय सुना डाला । 

प्रिंसिपल ने ही एक दिन वसुंधरा को बुला भेजा । अभिमन्यु की कक्षा का ज़िक्र आते ही वसुंधरा की आँखों के आगे से बहुत कुछ गुज़र गया । कभी अपूर्व मौन, कभी बेहिसाब शोर, ब्लैकबोर्ड पर लिखे विशेषण, मेज़ों की थपथपाहटें, सीटियों की आवाज़ें, कॉपी-किताबों की अवमानना, नेतृत्व में खड़ा बेहद मासूम दिखाई देने वाला अभिमन्यु प्रधान...और उन सबके बीच अडिग खड़ी हुई वसुंधरा.... सतत कार्यरत, क्लास को ढर्रे पर लाने के लिए संघर्षरत । 

प्रिंसिपल के कान वसुंधरा की शिकायतों को सुनने को तत्पर थे, लेकिन उसने अपनी बात में अभिमन्यु का नाम ही नहीं आने दिया....

-'मुझे कोई परेशानी नहीं है....' उसने प्रिंसिपल को सुखद आश्चर्य में छोड़ा और बाहर निकल आयी । 

एक ओर वसुंधरा दृढ़ थी कि उसे अध्यापन के अपने दायित्व को पूरी लगन से निभाना है । अपने हाव-भाव से वह एक संदेश लगातार देती चली आ रही थी कि विद्यार्थी उसके प्रतिद्वंदी नहीं हैं कि वह उनसे प्रतिस्पर्द्धा करे। दूसरी ओर कक्षा के लगभग विद्यार्थी अपने नेता की अगुआई में वसुंधरा की इस दृढ़ता पर जोर शोर से कुठाराघात करने में जुटे हुए थे। कभी क्लास धुआँ-धुआँ, कभी पान की पीक के अचानक मेज़ पर छितराये छींटे, कभी जादुई ढँग से वसुंधरा की साड़ी के पल्लू में बंधा कोई निरीह जीव, कभी उसकी साड़ी में उग आते छोटे-बड़े सुराख तो कभी चिपककर अपनी अमिट छाप छोड़ती हुई चुइंगम....इन अज्ञात टोटकों के बीच हाथ में बड़ी सी चेन लटकाए कुंग-फू स्टाइल में तरह-तरह के करतब करता अपने आप को अजेय मानता हुआ अभिमन्यु । 

इस सब के बाद भी सच यही था कि पाँच फ़ीट पाँच इंच की कृशकाय लेकिन इस्पाती वसुंधरा ने अभिमन्यु को भयंकर तनाव दे डाला था। उसके समंदर जैसे शांत और गहरे व्यक्तित्व के अंदर अभिमन्यु को किसी गहरी चाल का अंदेशा होने लगा था।  वसुंधरा का आक्रोश, असन्तोष, पीड़ा, तीखी, कसैली...कैसी भी प्रतिक्रिया को पाने की हवस में अभिमन्यु पगला रहा था । वह सबसे कहता फिर रहा था कि भयंकर मानसिक अस्थिरता ने वसुंधरा को अभी जड़ कर दिया है, लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब घुटनों के बल बैठकर वह उससे और उसके परिवार से अपने अस्तित्व की भीख माँगेगी । इस दुष्प्रचार के उत्तर के लिए वसुंधरा के पास अलग से आँख, कान, जीभ...कुछ भी नहीं है। वह जैसी है वैसी ही रहेगी । नौकरी और पैसा कमाने के लिए वह अपनी निडरता पर आतंक और भय की छाया नहीं पड़ने देगी, बल्कि अभिमन्यु की मानसिकता को समझकर अगर छूत के रोग सी फैलती चली जाती इस आपराधिक बीमारी का वह निदान ढूँढ पायी तो किन्ही निरीह विद्यार्थियों और कुछ एक स्वाभिमानी अध्यापकों का भला ही कर पाएगी वह । 

गुरु के गुरुत्व को कम करके अभिमन्यु जैसों के कद के सामने बौने पड़े कुछ टीचर्स तो राहत पाकर शायद अपने अध्यापन के प्रति भी न्याय कर पाएंगे । 

यह वसुंधरा के व्यक्तित्व और कुशल अध्यापन का ही करिश्मा था कि क्लास अब दो धड़ों में बंटने लग गयी थी । कई एक विद्यार्थी अब अपने नेता अभिमन्यु को छोड़कर अपनी इस नई टीचर को सुनने का संकेत देने लगे थे यानी एक धड़ा अभिमन्यु की गिरफ़्त में तो दूसरा उसकी जकड़ से निकलने को बेचैन । 

अपने दोस्तों के इस व्यवहार ने अभिमन्यु में और भी कड़वाहट भर दी । वह चाहता था कि सिर्फ़ एक बार ही सही वसुंधरा प्रिंसिपल या उसके दादा, काका, पिता से उनके अनुग्रह प्राप्ति की याचना कर ले या सबके सामने इतना ही कहकर उसका मान रख ले कि वह उसकी शरारतों से थक गई है, मुक्ति चाहती है । 

नए अध्यापकों को हमेशा अभयदान और सुरक्षा का भाव जिलाता अभिमन्यु पहली बार स्वयं कमज़ोर और अरक्षित होता चला जा रहा है । 

 

वसुंधरा बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व की महिला है । अप्रतिम सौंदर्य और अपने उच्च बौद्धिक स्तर के साथ वह भीड़ में अलग ही आकर्षण का केंद्र बनती है । घुटनों से भी आगे तक का फ़ासला तय करने की प्रक्रिया में लगे हुए उसके लंबे, काले, घने बाल उसके लिए कुबेर की सम्पदा जैसे हैं, जिन्हें वह सबसे छिपाकर रख लेना चाहती, लेकिन बाल हैं कि प्रदर्शन का मौका छोड़ते ही नहीं हैं । अपने बालों को लेकर सदैव सजग वसुंधरा एक भी बाल के टूटने से रुआंसी हो उठती है । वह कितने भी लौह मास्क अपने चेहरे पर लगा ले, अभिमन्यु ने ताड़ लिया है कि वसुंधरा की जान कहां छिपी है। कितने भी व्यक्तिगत अपमानों को वह झेल ले, जिस दिन तोते की गर्दन की तरह प्राणशक्ति संजोए उसके बालों पर हमला होगा, वह बिलबिलाकर मुखर होगी ही। 

उस दिन गहरी नीली साड़ी में वसुंधरा बहुत भव्य लग रही थी । गीले होने के कारण बाल बंध नहीं पाए थे । उसकी साड़ी का लटकता पल्लू और उसके ढके बालों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ लगी हुई थी । 

खाली समय था, वसुंधरा लाइब्रेरी में आकर बैठ गयी थी । लाइब्रेरी में जाकर पढ़ने की वहां प्रथा ही नहीं थी। खाली समय है तो गपशप और अच्छाई, बुराई.... वसुंधरा है कि नई प्रथा शुरू करके लाइब्रेरियन को भी बेआरामी देती है और दूसरे अध्यापकों के लिए भी फ़ालतू की मिसाल पेश करती रहती है। 

वसुंधरा पढ़ने में व्यस्त और बोर होती हुई लाइब्रेरियन गहरी नींद में । कब अभिमन्यु दबे-पाँव लाइब्रेरी में घुसा, कब उसकी डिसेक्शन किट से औज़ार निकलकर वसुंधरा के बालों का आड़ा-तिरछा विच्छेदन कर गए और कब वह रफूचक्कर हो गया.....वसुंधरा को तो पता ही नहीं चला । उसके आधे से ज़्यादा कटे बालों के साथ और भी सारे सबूत और साक्ष्य अपनी जेब में डालकर वह निकल लिया था । सिर्फ़ दीवारों के अलावा उसके इस क्रूर मज़ाक का कोई भी गवाह नहीं था । वसुंधरा का मान-अपमान , रोना-धोना, प्रताड़ना, दयनीयता.... कल्पना मात्र से उसे रोमांच हो चला था । आज अपना सारा तनाव और गुस्सा वसुंधरा की झोली में डालकर वह बहुत हल्का महसूस कर रहा था । 

वसुंधरा को जब उस अनर्थ का एहसास हुआ, तब वहां उसके और लाइब्रेरियन के अलावा किसी पंछी के भी पर मारने की आवाज़ नहीं थी। अपने बालों को छूने भर से वह काँप रही थी मानो छूते ही कोई अदृश्य छाया उसे समूचा लील जाएगी । लाइब्रेरियन की नींद टूटी तो पीली पड़ी, सूखे पत्ते सी कांपती हुई वसुंधरा को देखकर वह हैरान हो गई । लगभग चीखने के कगार पर खड़ी वसुंधरा को किसी आत्मिक शक्ति ने मौन कर दिया । उसके मुँह से एक भी शब्द निकला तो इस घटना के विकृत रूप, उसकी निरुपायता, सबकी हिकारत, दया, सहानुभूति, मज़ाक और प्रमाण के अभाव में जीत का डंका बजाता वह अदृश्य, अनाम अपराधी ........वसुंधरा ने जी कड़ा करके अपनी रुलाई और आवाज़ को रोका । उसे सोचने के लिए समय चाहिए । ठीक अपने सर के ऊपर दीवार पर रेंगती छिपकली की ओर इशारा करके, लाइब्रेरियन के साथ अपना मज़ाक खुद उड़ाती हुई, अपने बचे-खुचे बालों के अवशेषों को साड़ी में छिपाए वह वहाँ से निकल ली । 

सन्न हुई वसुंधरा अपने घर में घुसी तो बंद दरवाजों से टकराते अपने रुदन को उसने मुक्त छोड़ दिया । न उसे शामसे रात हो जाने का एहसास, न भूख, न प्यास, न अपने आँसुओं के सैलाब को थामने की चिंता । 

दिन निकल चुका था । शिकायत, प्रिंसिपल और अभिमन्यु के परिवार के सामने रोना-धोना, मान-मनुहार.......उससे नहीं होगा । माँ की बीमारी के कारण लीव लेने का प्रार्थनापत्र उसने पर्स में डाला, उसके बाद यहाँ से स्थानांतरण, न होने पर इस्तीफ़ा देकर किसी और काम की योजना....उसने बहुत कुछ सोच डाला । 

वह सामान्य रहेगी ;किसीको हवा भी नहीं लगने देगी कि क्या हुआ है और वह आगे क्या करने का इरादा रखती है । 

बाल जैसे थे आज उन्हें बिना बाँधे, बिना छिपाए वह कॉलिज पहुँच गयी, जिसने पूछा उसने एक ही रटा-रटाया जवाब दे डाला--

'मेंटेन करना मुश्किल हो रहा था । '

बहुतों को अविश्वास भी हुआ, लेकिन गुंजाइश होती तभी तो शक़ किया जाता । 

अभिमन्यु की कक्षा में, सबने, विशेषतः लड़कियों ने वसुंधरा के इस निर्णय पर 'आह', 'उफ़' कीऔर दबे स्वर में न जाने क्या कुछ कह डाला । वसुंधरा ने उड़ती नज़र अभिमन्यु पर डाली और बालों को लापरवाही से झटककर, बड़े आत्मविश्वास से वह ब्लैकबोर्ड की ओर मुड़ गयी । अभिमन्यु शांत था, हतप्रभ था, उसकी शरारतों को उस दिन जंग लग चुका था। 

वसुंधरा का अंतिम पीरियड खाली रहता है । कभी लाइब्रेरी तो कभी स्टाफ़रूम में बैठी वह कुछ-कुछ पढ़ा करती है । आज किताबों में उसे शब्द दिखाई ही नहीं दे रहे । जिस अदृश्य भूत ने उसके बालों से यह खिलवाड़ किया है, उसके अगले दुस्साहसी कदम से पहले ही उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी है। थोड़ा एकांत होने पर ही वह प्रिंसिपल से अपनी छुट्टी की बात करेगी, अभिमन्यु के नीच कृत्य का ज़िक्र करके अपनी नौकरी की शुरुआत में ही वह बेबसी और दया की पात्र नहीं बनना चाहती । अपराधी स्वयं शर्मिंदा हो तो ठीक, नहीं तो वह उसके लिए शर्मसार होकर यहाँ से निकल लेगी। 

बाहर से शांत वह मन के इस उमड़ते सैलाब में बहती चली जा रही थी कि तभी उसकी अधखुली आँखों के सामने एक आकृति आ खड़ी हुई । वह कुछ समझ पाती उससे पहले ही उसकी बड़बड़ाहट शुरु हो गयी । खुद की लानत-मलामत, के बाद अपने लिए कड़ी से कड़ी सज़ा की बात करते हुए वह कहता जा रहा था--'मुझे एक बार तो अहसास करा दीजिए कि आप मुझसे कितनी नफ़रत करती हैं!'उसके आत्महंता भाव ने वसुन्धरा को झिंझोड़कर रख दिया था । वसुंधरा की कुर्सी के करीब टिके अभिमन्यु के आँसुओं की बूँदें वसुन्धरा की साड़ी को भिगोती चली जा रही थीं । 

बैल बज चुकी थी, और अध्यापक भी स्टाफ में आते जा रहे थे । अभिमन्यु और आँसू! वसुंधरा के और भी बुरे दिनों की कल्पना से सब सिहर उठे । कल ही वसुंधरा की अभिमन्यु के परिवार में पेशी होगी और इन आँसुओं का हिसाब वसुंधरा को चुकाना ही पड़ेगा । 

वसुंधरा को उपेक्षित छोड़ सभी अभिमन्यु को पुचकारने में लगे हुए थे । एक अकेली वसुंधरा थी जो किसी चक्रवाती तूफ़ान के गुज़र जाने के बाद की सी खा़मोशी को ओढ़कर बैठी थी । आहिस्ता से उसने अपना हाथ अभिमन्यु के सिर पर रखा और हटा लिया । जैसे उसके बालों की दुर्दशा का कोई साक्षी नहीं था, वैसे ही अभिमन्यु को उसके द्वारा दिए गए क्षमादान का भी कोई गवाह नहीं बन सका । 

अभिमन्यु की लड़ाई वसुंधरा की कैसी भी प्रतिक्रिया पाने पर ही तो टिकी थी । कृतज्ञ भाव से उसने वसुंधरा को देखा और चुप निकल लिया । स्टाफ़ के सदस्य अभिमन्यु के आँसुओं की पीड़ा से इतने पीड़ित थे कि कुछ और देख ही नहीं पाए । सभी शुरू होने से पहले ही वसुंधरा के करियर की तबाही और उसके बुरे दिनों की कल्पना में ही डूबे हुए थे । 

एक अबोध युवा को गलत व्यवस्था के ग्रहण की छाया से बचा लेने के अपने असाधारण कदम पर वसुंधरा मुग्ध हो उठी । छुट्टी, स्थानांतरण, इस्तीफा.... कितने रंगे हुए कागज़ उसने एक -एक करके फाड़ डाले । 

एक असामान्य घटना और घटी जो कॉलिज के अब तक के इतिहास में कभी नहीं घटी थी । पहली बार अभिमन्यु के परिवार ने किसी टीचर की अपने दरबार में पेश होने की सूचना नहीं भेजी बल्कि उसके पिता स्वयं चलकर किसी शिक्षक तक न केवल पहुँचे बल्कि कृतज्ञ भाव से उसका अभिवादन भी किया । वह अध्यापिका और कोई नहीं, बल्कि वसुंधरा ही थी । विद्यालय के इतिहास में इस तरह के परिवर्तन से सभी स्तब्ध थे । 

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