हेमचंद्र ‘विक्रमादित्य’ Mohan Dhama द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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हेमचंद्र ‘विक्रमादित्य’


वैश्य हेमचंद्र विक्रमादित्य का जन्म आश्विन शुक्ल 10 विजयादशमी संवत् 1558, अर्थात् 1501 ई. को राजस्थान के अलवर जिले के मछेरी (देवली-सजरी) नामक गाँव में राय पूरनदास के यहाँ हुआ था। राय पूरनदास जाति के धूसर वैश्य थे और धर्म-कर्म में उनकी बड़ी आस्था थी। बाद में वे मछेरी छोड़कर मेवात (वर्तमान में हरियाणा) के रेवाड़ी कस्बे के पार्श्व में बसे कुतुबपुर (अब हेमू नगर) में आ बसे । हेमचंद्र को हेमू के नाम से संबोधित किया जाता है। युवावस्था में हेमू भी अपने पिता की भाँति व्यवसाय करने लगे, उन्हें शेरशाह सूरी की सेना को खाद्यान्न व उसकी तोपों हेतु सोरे की आपूर्ति का सुयोग मिला। 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने मुगल सम्राट् हुमायूँ को परास्त कर उसे काबुल लौटने के लिए बाध्य किया। 1548 ई. में शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इसलाम शाह उत्तर भारत का सम्राट् बना। उसने हेमू की योग्यता व प्रशासनिक क्षमता से प्रभावित होकर उन्हें अपना व्यक्तिगत सलाहकार नियुक्त किया। इसलाम शाह की मृत्यु के पश्चात् अफगान सरदारों ने उसके पुत्र फिरोजशाह को ग्वालियर के सिंहासन पर बैठाया। उस समय फिरोजशाह की अवस्था मात्र 12 वर्ष की थी, वह तीस दिन भी शासन न कर पाया था कि शेरशाह के भाई निजाम खाँ सूर का पुत्र मुवारीज खाँ युवक सम्राट् की हत्या करके स्वयं अफगान शासक बन बैठा, उसने स्वयं को 'आदिलशाह' कहलवाना प्रारंभ कर दिया। वह एक विलासी शासक था और सदैव राग-रंग में डूबा रहता था। फिरोजशाह की हत्या के कारण उसके साम्राज्य में अनेक स्थानों पर अफगान सामंतों ने विद्रोह कर दिया, अतः नियंत्रण स्थापित करने के लिए उसने हेमू को अपना वजीर एवं प्रधान सेनापति नियुक्त किया। इस पद पर रहते हुए हेमू ने विद्रोह को कुचलने हेतु 22 लड़ाइयाँ लड़ीं और सभी में उनको निर्णायक सफलता मिली। उन्होंने मुगलों को दिल्ली और आगरा से खदेड़कर दिल्ली की गद्दी पर अपना अधिकार कर लिया तथा स्वयं को एक स्वतंत्र हिन्दू सम्राट् घोषित किया, इतिहासकार स्मिथ ने उन्हें 'मध्यकालीन भारत का नेपोलियन' कहकर उनके अप्रतिम शौर्य को गौरव - गरिमा से अलंकृत किया है। दिल्ली की गद्दी पर आरूढ़ होने के पश्चात् उन्होंने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की तथा अपने नाम के सिक्के भी ढलवाए। हिंदुओं पर लगने वाले जजिया कर तथा तीर्थ यात्रा कर समाप्त कर साम्राज्य में सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए नए अधिकारियों और मुकद्दसों की नियुक्ति की गई। अनेक स्थानों पर एक साथ दो-दो अधिकारियों की नियुक्ति की गई, जिनमें एक हिंदू अधिकारी होता था।

सम्राट् हेमचंद्र विक्रमादित्य दिल्ली की गद्दी पर केवल 29 दिन ही शासन कर सके कि उन्हें अकबर के संरक्षक बैरम खाँ के नेतृत्व में मुगल सेना के दिल्ली की ओर बढ़ने की सूचना मिली, इस सूचना के मिलते ही हेमू ने अपने तोपखाने को आगे भेजा, लेकिन कुछ विश्वासघातियों के कारण बैरम खाँ ने इसे अपने अधिकार में कर लिया। हेमू को यह सूचना मिली, लेकिन फिर भी एक विशाल सेना के साथ वे पानीपत के मैदान की ओर बढ़े, यह सेना मुगल सेना से काफी बड़ी व शक्तिशाली थी। 5 नवंबर, 1556 ई. को हेमू तथा मुगलों की सेना पानीपत के मैदान में एक दूसरे के सामने आकर डट गईं। हेमू की सेना के प्रधान अंग थे- उसके पंद्रह सौ दैत्याकार हाथी, इसके अतिरिक्त 30 हजार राजपूत और अफगान घुड़सवार भी उसकी सेना में थे। हेमू का भांजा रमइया भी प्रधान सेनापति के रूप में उनके साथ था। मुगल सेना में 10 हजार घुड़सवार थे, लेकिन एक शक्तिशाली तोपखाना भी उनके साथ था, जो अलीकुली के नियंत्रण में था। 13 वर्ष का अकबर बैरम खाँ के साथ पानीपत से पाँच किलोमीटर पीछे भागने के लिए तैयार खड़ा था कि जैसे ही मुगल सेना हारती है वह भारत छोड़कर अपने संरक्षक के साथ अफगानिस्तान वापस भाग जाएगा, इससे सिद्ध होता है कि मुगलों को अपनी जीत का भरोसा नहीं था। युद्ध आरंभ हुआ और हेमू अपने भयंकर हाथी सेना से मुगल सेना को रौंदते हुए आगे बढ़ने लगा, उसने मुगल सेना के दोनों पार्श्व ध्वस्त कर दिए और मध्यवर्ती पार्श्व पर निर्णायक आक्रमण किया, किंतु सामने एक गहरी खाई आ जाने के कारण उसकी सेना आगे न बढ़ सकी। अलीकुली खाँ ने इस स्थिति का लाभ उठाकर हेमू की सेना पर पीछे से आक्रमण कर दिया, फिर भी हेमू का आगे बढ़ना जारी रहा, यद्यपि मुगल सेना लड़ रही थी, तथापि हेमू की विजय प्रायः निश्चित सी लगने लगी । इसी बीच मुगलों ने अंतिम लड़ाई हेतु उन्मत्त होकर भालों, बरछों और तोपों से ऐसा हमला किया कि हेमू की हाथियों की सेना भड़ककर अनियंत्रित हो गई और हाथी मुड़कर पीछे भागने लगे। इस पर हेमू की सेना में हड़बड़ी सी फैल गई, फिर भी हेमू ‘हवाई' नामक अपने विशालकाय हाथी पर चढ़ा हुआ अपने चार हजार घुड़सवारों के साथ मुगल सेना के मध्य वीरता के साथ युद्ध करता रहा। बस वे जीतने ही वाले थे कि घोड़ों पर सवार मुगल धनुर्धरों ने उन्हें चारों ओर से घेरकर उन पर बाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी, उनका शरीर तो कवच से ढका था, बस आँखें भर खुली थीं और दुर्योग से एक बाण उनकी आँख में लग गया और मस्तिष्क तक भेदता चला गया। क्षण भर के लिए उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, मर्मांतक पीड़ा ने उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया। विगत सवा तीन सौ वर्षों के तुर्कों के भारत पर किए गए अत्याचार उन्हें याद आने लगे, ‘हमने हिंदू साम्राज्य कायम किया है, हम इसे मिटने नहीं देंगे’ और हाथ से आँख में धँसे बाण को खींचकर बाहर निकाल दिया। बाण के साथ पुतली भी बाहर आ गई, इसे रुमाल में लपेटा, आँख पर पट्टी बाँधी और गूँज उठी सिंह की दहाड़ —‘आगे बढ़ो, विजय हमारी होगी', किंतु कुछ ही देर में वे बेहोश होकर हाथी के हौदे में गिर गए। उनकी अधिकांश सेना उनके इस घाव को प्राणांतक समझकर भाग खड़ी हुई। इसी अवस्था में शाहकुली मरहम के नेतृत्व में मुगल घुड़सवारों से घिरे हेमू के हाथी को अकबर के सामने लाया गया, लेकिन अभी भी मूर्छित हेमू के पास जाने की किसी में हिम्मत नहीं थी। बैरम खाँ ने अकबर को अपने हाथ से मारकर 'गाजी' की उपाधि धारण करने का परामर्श दिया और जैसा कि अहमद यादगार और आरिफ कंधारी ने लिखा है कि अकबर ने बैरम खाँ के परामर्श को मानकर मूर्च्छित हेमू की गरदन तलवार से उड़ा दी । हेमू की मृत्यु को विश्वास दिलाने के लिए उनके सिर को काबुल भेज दिया गया। उनके धड़ को दिल्ली में पुराने किले के सामने लटका दिया गया, जहाँ उनका राज्याभिषेक हुआ था। उनके 80 वर्षीय पिता को इसलाम स्वीकार न करने के कारण मार दिया गया तथा हेमू के सजातीय दोसर वैश्यों को पूरे क्षेत्र में खोजखोजकर प्रताड़ित किया गया। किसी अन्य शासक ने अपने विरोधी राजा के साथ इतना बर्बरतापूर्ण व्यवहार नहीं किया, जैसा कि अकबर ने हेमू के साथ किया।