अन्धायुग और नारी - भाग(४२) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अन्धायुग और नारी - भाग(४२)

उसके बाद बड़े अब्बू और डाक्टर सिंह के बीच तय हुआ कि उन्हें उनकी दौलत और जायदाद नहीं चाहिए,वे तो बस अपनी दुनिया में बच्चे का आगमन चाहते हैं लेकिन बड़े अब्बू इस बात के लिए कतई राज़ी ना हुए और उन्होंने सारे कागजात पहले से ही तैयार करवा लिए और उन्होंने वही किया जैसी उन्होंने डाक्टर सिंह को जुबान दी थी और फिर हम सभी कुछ ही दिनों में दार्जिलिंग के लिए रवाना हो गए,वहाँ किसी मिसनरी अस्पताल के डाक्टर की मौजूदगी में मैं अपने बाकी के दिन काटने लगी,
जैसे जैसे दिन बढ़ रहे थे तो मुझे अपने बच्चे से दूर होने की चिन्ता सताने लगी थी,जब बच्चा मेरे भीतर कोई हरकत करता तो मैं खुशी के मारे उछल जाती और दूसरे ही पल उदास हो उठती कि ये खुशी तो बस कुछ ही दिनों की है ,मैं कहाँ जिन्दगी भर इस बच्चे के साथ रहने वाली हूँ.....
और कुछ वक्त बाद मैंने एक लड़के को जन्म दिया,फिर प्यार और खून का सदमा खाकर मैंने उस बच्चे को आँखों में आँसू भरकर डाक्टर सिंह और उनकी पत्नी चित्रा की गोद में उसे सौंप दिया,सारे औपचारिक बंदोबस्त हो गए थे और एक दिन मेरे उस कलेजे के टुकड़े को लेकर चित्रा अपने शहर लौट गई और बड़े ही धूमधाम से उस बच्चे का जन्मोत्सव मनाया गया....
मैं गम में डूब चुकी थी इसलिए बड़े अब्बू ने मेरा निकाह नवाब अकबर अली बहादुर खान से करने का सोचा...
नवाब अकबर अली बहादुर खान की पुरानी खानदानी हवेली थी,दूल्हा भी अमीर और दुल्हन भी अमीर,इसलिए हवेली मोतीमहल में लोगों का जमघट लग गया,शहर के लोग नवाबी शान-ओ-शौकत देखने के लिए उमड़ पड़े,सब था वहाँ तवायफ़ो का नाच,अच्छे से अच्छे कव्वाल,लज़ीज़ खाना, बेहतरीन रौशनी, रईस अमीर,बेगम़ें और नवाब,उस समय सभी के लिए मोतीमहल के द्वार खुले थे,दावतों का तो जैसे तूमार सा बंँध गया....
शादी खत्म हुई और मेरे रुखसत की तैयारी शुरु हो चुकी थी,अकबर अली खान बहादुर ने बहुत ऊँचा मेहर बाँधा और मेरे बड़े अब्बू ने दहेज में पूरी जायदाद दे दी सिर्फ़ मोतीमहल अपने पास रखा,मैं विदा होकर अपने ससुराल आ गई....
ससुराल आकर पता चला कि नवाब अकबर अली बहादुर खान माशाल्लाह एक दिलचस्प,दिलफेंक रईस थे,उम्र पचास के ऊपर रही होगी उनकी,अच्छा खासा कद,गोरा रंग,खिजाब से काले किए बाल,लम्बी काली शेरवानी ,ढ़ीला पायजामा और सिर पर फैज़ टोपी ,यही व्यक्तित्व और यही पहनावा था उनका....
ये तो मैंने पहले से सुन रखा था कि उनकी तीन वीबियाँ हैं और मैं चौथी थी,पहली वाली तो अब बहुत बूढ़ी हो चुकी थी और अक्सर बीमार रहती थी,वो कहीं किराए के मकान में रहती थी,उसका नाम फौजिया था....
दूसरी जरा तुनकमिजाज थी,वो किसी रईस की बेटी थी इसलिए ठाट से रहती थी,उसके बाप ने उसे मकान और बहुत सी दौलत दे रखी थी,इसलिए वो अपने मकान में रहती थी उसका नाम शबाब था,जैसा नाम था वो दिखती भी वैसी ही थी...
और तीसरी थी कोई तवायफ़,जिसका नाम रुबाई था,वो अभी कमसिन थी,इसलिए नवाब उसके यहाँ ज्यादा जाते थे लेकिन वो भी एक छोटे से घर में रहती थी और उसका खर्चा नवाब साहब ही उठा रहे थे...
ये सारी जानकारी मुझे हवेली की एक बूढ़ी नौकरानी ने दी थी....
लेकिन नवाब साहब अपनी किसी भी बीवी के पास रात नहीं गुजारते थे,उनसे मिलकर और रात का खाना खाकर अपनी हवेली में वापस चले आते थे और ये बात सबकी समझ से परे थी,नवाब थे इसलिए कोई उनसे सवाल ही नहीं पूछ सकता था और गुस्सा तो जैसे उनकी नाक में ही धरा रहता था....
और बड़ी गजब की बात थी कि वें अपने कमरें में भीतर से ताला लगाकर सोया करते थे,लोग उनका मजाक उड़ाते हुए कहते थे कि वे अपना कीमती जिस्म किसी बेग़म के रहमोकरम पर नहीं छोड़ते,ना जाने ऐसा क्या था,लोग ये भी कहते थे कि शायद सठियाते जा रहे हैं....
अव्वल दर्जे के खर्चीले थे,उनकी पूरी रियासत कर्जे में दबी थी,ना जाने उनका रुपया कहाँ जाता था,उनकी जेब हर वक्त खाली रहती थी और बार बार वे शबाब के पास रुपया माँगने जाते थे,शायद रुपये के लिए ही उन्होंने मुझसे निकाह किया था...
निकाह के बाद हवेली में खूब दावतें और महफिलें चली,जिससे मसरूफ होने की वजह से नवाब साहब को मुझसे मुलाकात करने का मौका नहीं मिला...
और एक रात वो मुझसे पहली मुलाकात करने आए,मैं दीवानखाने में मैं उनका इन्तजार कर रही थी,उन्होंने जैसे ही दीवानखाने में अपने कदम रखें तो दीवानखाने की कायापलट देखकर दंग रह गए,फिर मैंने उनका इस्तबाल किया...
और वे मुझसे बोले....
"माँफ कीजिए! छोटी बेग़म! अभी फुरसत मिली है हमें,इतने मुलाकाती थे कि उनसे मुलाकात करने में जरा वक्त लग गया,हाकिम साहब तो हमारा पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे",
"जी! मैं समझ सकती हूँ",मैंने कहा....
"आपने ये मैं..मैं क्या लगा रखा है,अब आप इस हवेली की बहूबेग़म हैं,आज से आप "हम" करके ही बात करेगीं",नवाब साहब बोले....
"जी! जैसी आपकी मर्जी"मैंने उनसे कहा...
"वो सब तो ठीक है लेकिन आपने दीवानखाने की सारी सजावट ही बदल दी"नवाब साहब बोलें...
"जी! हमें ऐसी सादी सजावट ही पसंद है",मैंने कहा....
"लेकिन हमें ये पसंद नहीं है,कल तक यहाँ पहले जैसी सजावट हो जानी चाहिए",वे बोले...
"जी! हो जाएगी",मैंने कहा....
"और ये क्या? आपके बदन पर एक भी जेवर नहीं है,जरी वाला महँगा लिबास नहीं है,ये तो हमारी तौहीन है",नवाब साहब बोले...
"जी! हम उन सब के आदी नहीं हैं,हमें सादगी में रहना ही पसंद है",मैंने कहा...
"ये क्या बात हुई भला? कल से आप हमें ऐसी नहीं दिखनी चाहिए,आप हमारी नई दुल्हन हैं,बन सँवर कर रहिए,ऐसी सादगी भला किस काम की जो आपकी खूबसूरती पर हावी हो जाए ",नवाब साहब बोले....
"जी! हम ये याद रखेगें,अच्छा वो सब छोड़िए,खाना तैयार है,आप कहें तो लगवा दें",मैंने कहा....
"नहीं! हम खाकर आए हैं,बस आप एक पान बनवा दीजिए",नवाब साहब बोलें....
और फिर मैने एक नौकरानी को बुलाकर उनके लिए पान बनवाया ,पान बनाकर नौकरानी चली गई तो पान मुँह में डालने के बाद नवाब साहब बोले....
"आपकी खूबसूरती की बहुत तारीफ़ सुनी थी,मुद्दत से देखने का इश्तियाक था और आज देख भी लिया, आप सच में निहायती खूबसूरत हैं"
"ये तो आपके देखने का नजरिया है,जो हम आपको खूबसूरत दिखे",मैंने कहा...
"जो सुना था आपके बारें में,आप उससे भी ज्यादा खूबसूरत हैं",नवाब साहब बोले...
"जी! शुक्रिया! और कुछ लेगें आप",मैंने पूछा....
"जी! हमारा सिगार मँगवा लीजिए,वहीं मेहमानख़ाने में पड़ा होगा और शराब की बोतल भी"नवाब साहब बोले....
उनकी बात सुनकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा,लेकिन दिन से हम मैं से "हम" बोलने लगे,अगर हम नवाब साहब की बात ना मानते तो ये उनकी शान के खिलाफ होता क्योंकि अब हम उनकी बहूबेग़म थे और उनका कहना मानना हमारा फर्ज था....


क्रमशः....
सरोज वर्मा....