Andhayug aur Naari - 33 books and stories free download online pdf in Hindi

अन्धायुग और नारी - भाग(३३)

वे चले गए तो मुझे ऐसा लगा कि शायद उन्हें मेरी बात का बहुत बुरा लगा है,उन्होंने तो मेरे लिए गलत अल्फाज़ों का इस्तेमाल किया था लेकिन मैंने भी कहाँ कोई कसर छोड़ी उन्हें बातें सुनाने में,इसलिए उस बात का मुझे अब बहुत अफसोस हो रहा था और मैं मन ही मन सोचने लगी कि काश वे थोड़ी देर और रुक जाते तो मैं उनसे माँफी माँग लेती लेकिन ऐसा ना हो पाया और मैं खुद की हरकत पर बहुत शर्मिन्दा हुई....
खैर उस रात जो हुआ मैंने उसका अफसोस ना मनाने में ही अपनी समझदारी समझी,क्योंकि उस बात को दिल से लगाने पर मेरा ही नुकसान हो रहा था,अभी उस बात को गुजरे दो तीन दिन ही गुजरे थे कि एक रात मोहन लाल पन्त मेरा मुजरा देखने आए लेकिन उनके साथ मधुसुदन त्रिपाठी नहीं थे, मुजरा खतम होने के बाद मैं उनके पास पहुँची और उन्हें पान पेश करते हुए मैंने पूछा....
"पन्त साहब! आज आपके दोस्त नहीं आए आपके साथ"
"जी!मैंने उनसे यहाँ आने के लिए पूछा था लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया",मोहन लाल पन्त बोले...
"लेकिन क्यों"?,मैंने पूछा....
"वे मुझसे कहने लगे कि उनसे बहुत बड़ी गुस्ताखी हो गई है इसलिए वे मेरे साथ नहीं आऐगें",मोहनलाल पन्त बोले...
"कौन सी गुस्ताखी?",मैंने पूछा...
"आपकी बेइज्ज़ती करके उन्हें बहुत ही अफसोस हो रहा है,अब शायद ही वें कभी यहाँ आऐगे",मोहन लाल पन्त बोले....
"लेकिन बात इतनी बड़ी भी नहीं हुई थी कि वे उसे दिल से लगा बैठे",मैंने कहा....
"आपके लिए नहीं होगी बड़ी बात मोहतरमा! लेकिन उनके लिए तो है,वे ठहरे ईमान के पक्के इन्सान, गलती से भी किसी को कुछ बुरा नहीं कहते और उस रात जो उन्होंने आपसे कहा तो उसका उन्हें बड़ा ही अफसोस है",मोहन लाल पन्त बोले....
"ओह...तो ठीक है कोई बात नहीं,लेकिन अब आप अपने दोस्त को मेरा पैगाम देकर कहिएगा कि मैं उनसे मिलना चाहती हूँ"मैंने उनसे कहा....
"आप कहतीं हैं तो आपका पैगाम उन तक पहुँच जाएगा,लेकिन मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि आप का पैगाम पाकर वे आपसे यहाँ मिलने चले ही आऐगें",मोहन लाल पन्त बोले....
"उन्हें आना ही होगा मुझसे मिलने",मैंने कहा....
"मैं उनसे जबरदस्ती नहीं कर सकता मोहतरमा!",मोहनलाल पन्त बोले...
"वे आपके दोस्त हैं और उन्हें मनाना आपका काम है",मैंने कहा...
"जी!आप कहतीं हैं तो जरूर कोशिश करूँगा",मोहन लाल पन्त बोले....
और उन्हें लाने का वादा करके मोहन लाल पन्त वापस चले गए,जब दो चार दिन बाद वे वापस मेरा मुजरा देखने आए तो उनके साथ इस बार भी मधुसुदन त्रिपाठी नदारद थे,मुजरा खतम होने के बाद मैंने उनसे फिर त्रिपाठी जी के बारें में पूछा तो उन्होंने कहा कि वे मेरे साथ यहाँ आने को राजी नहीं हुए,तब मैंने खुद ही त्रिपाठी जी से मिलने का सोचा और मोहन लाल पन्त जी से उनका पता ठिकाना पूछकर मैं दूसरे दिन ही शाम के वक्त एक ताँगे में बैठकर उनके कमरे जा पहुँची,जहाँ वें किराए से रहते थे,बहुत ही पुराना सा मकान था वो,उस मकान में केवल पढ़ाई करने वाले ये नौकरी पेशा लोग ही रहते थे,परिवार सहित वहाँ रहने में मनाही थी,इसलिए जब मैं वहाँ पहुँची तो मैंने वहाँ केवल लड़के ही लड़के देखें.....
मैं वहाँ सादे लिबास में एक मामूली सा हल्के पीले रंग का शरारा पहनकर गई थी,तन पर ना तो कोई गहना था, ना ही आँखों में काजल सुरमा और ना ही होठों पर सुर्खी,बालों की लम्बी सी चोटी बनाई हुई थी,सादगी में मेरा रुप निखरकर आ रहा था,उस समय मैं किसी इज्जतदार घराने की इज्ज़तदार लड़की लग रही थी,वहाँ मौजूद लोग मुझे पहचानते भी नहीं थे कि मैं मशहूर तवायफ़ चाँदतारा बाई हूँ और तभी मैंने पहली ही मंजिल की सीढ़ियों पर खड़े एक शख्स से जो कि सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा था उससे पूछा....
"माँफ कीजिएगा! जनाब मधुसुदन त्रिपाठी किस कमरें में रहते हैं"
"जी! आपकी तारीफ़",उसने पूछा...
"जी! मैं तारा हूँ,क्या मैं जान सकती हूँ कि वे कौन से कमरे में रहते हैं",मैंने कहा...
"जी! आप यहाँ से सीढ़ियांँ चढ़कर चली जाइए,उनका कमरा दाई तरफ है,उनके कमरे के दरवाजों पर उनका नाम लिखा होगा",उन्होंने कहा....
और तब मैं उन शख्स के बताए रास्ते पर चलकर उनके कमरें तक पहुँच गई,फिर मैंने किवाड़ों पर लगी साँकल को खड़काया तो भीतर से आवाज़ आई...
"कौन...कौन है"?
"जी!मैं हूँ!",मैंने कहा....
"मैं कौन? मैं का कोई नाम तो होगा"उन्होंने पूछा....
"जी! मैं तारा",मैंने कहा...
"मैं ऐसे नाम की किसी मोहतरमा को नहीं जानता",वे बोले....
और ऐसा कहकर उन्होंने सच में किवाड़ नहीं खोले,तब मेरे मन में आया कि ये तो सच में ही अड़ियल टट्टू है,कैसा इन्सान है ये,एक औरत इसके कमरें के बाहर खड़ी है और इसे उस पर जरा सा भी रहम नहीं है,इसलिए मैंने आगें जाकर उनके कमरे की खिड़की से भीतर झाँका और बोली...
"जनाब कुछ ज्यादा ही मसरूफ दिखते हैं,दरवाजा ही नहीं खोलते"
"अरे!आप! ऐसे कैसें आप खिड़की से भीतर झाँक रहीं हैं,आपको दिखता नहीं है कि मैं केवल बनियान और लुन्गी में बैठा पढ़ रहा हूँ",वे बोले....
"जनाब!मुझे तो केवल आपकी बनियान ही दिखाई दे रही है,आपकी लुन्गी तो टेबल ने छुपा ली ,जिस पर किताब रख कर आप पढ़ाई कर रहे हैं",मैंने कहा....
"देखिए बदसलूकी मत कीजिए,औरतों को ऐसा मज़ाक शोभा नहीं देता",वे बोले...
"अब जो मुझे देखना था,वो तो मैं देख ही चुकी हूँ,कृपा करके अब तो किवाड़ खोल दीजिए",मैंने कहा....
"हाँ...हाँ...किवाड़ खोलता हूँ,पहले मुझे कुर्ता तो पहन लेने दीजिए",
और कुर्ता पहनते पहनते उन्होंने अपने कमरे के किवाड़ खोले,फिर उन्हें देखकर मैं जोर से हँस पड़ी तो वे अपने अगल बगल झाँकने लगे फिर मुझसे बोले....
"ठीक तो है सब,अब तो मैंने कुर्ता भी पहन लिया तो फिर क्यों हँसतीं हैं आप?"
"जी! यूँ ही,जरा हँसी आ गई आपको देखकर",मैंने कहा...
"मैं क्या आपको खेल तमाशे वाला बहरुपिया दिखता हूँ,जो आपको मेरा नाटक देखकर हँसी आ गई", उन्होंने पूछा....
"जी! ऐसा ही कुछ समझिए",मैंने कहा...
"तो क्या अब मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि आपने इस बहरुपिये से यहाँ मिलने आने की जहमत क्यों उठाई", उन्होंने पूछा....
"यूँ ही",मैंने कहा...
"यूँ ही...क्या मतलब है यूँ ही,आप कहीं पर भी ऐसे ही बेशर्मों की तरह मुँह उठाकर चलीं जातीं हैं",उन्होंने पूछा...
"आपको मेरा आना इतना ही बुरा लग रहा है तो फिर कह दीजिए ना,मैं अभी इसी वक्त यहाँ से चली जाती हूँ",मैंने रुठते हुए कहा....
"आप तो मेरी बात का बुरा मानतीं हैं"वे बोले...
"मतलब आप कुछ भी कहें और मुझे आपकी बात का बुरा मानने का हक़ भी नहीं है",मैंने कहा...
"मेरा वो मतलब नहीं था",वे बोले....
"मैं तो आपसे केवल ये पूछने आई थी कि उस दिन के बाद आप मेरे यहाँ क्यों नहीं आए",मैंने कहा...
"जी! मन नहीं करता मेरा",वे बोले....
"मतलब! मेरी मनहूस सूरत देखने का आपका मन नहीं करता",मैंने कहा...
"ऐसा ना कहें....मैंने ऐसा तो नहीं कहा",वे बोले....
"इसका मतलब है कि मैं आपकी नजरों में खूबसूरत हूँ",मैं ने उनसे पूछा...
"जी!ऐसा ही कुछ समझ लीजिए",वे बोले....
और उनकी इस बात पर मेरी पलकें झुक गईं.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....


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