एक योगी की आत्मकथा - 40 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 40

मेरा भारत लौटना

अत्यंत आनन्द के साथ मैं भारत की पवित्र हवा में फिर एक बार श्वास ले रहा था । हमारा जहाज “राजपूताना” २२ अगस्त १९३५ को मुंबई के विशाल बन्दरगाह में आकर खड़ा हो गया। जहाज से उतरते ही, पहले ही दिन, आगे आने वाला वर्ष किस प्रकार मुझे अनवरत रूप से व्यस्त रखने वाला है, इसका स्वाद मुझे मिल गया । बन्दरगाह पर मित्र गण फूलमाला लिये स्वागत के लिये खड़े थे। शीघ्र ही ताजमहल होटल के मेरे कक्ष में प्रेस-संवाददाताओं और फोटोग्राफरों का ताँता लग गया।

मुम्बई शहर मेरे लिये नया था। मुझे यह शहर आधुनिक उत्साहपूर्ण वातावरण से भरपूर लगा, इसमें अनेक प्रकारों से पाश्चात्य जगत् का अनुकरण किया गया था। प्रशस्त मार्गों के दोनों ओर पंक्तिबद्ध ताड़वृक्ष खड़े थे; भव्य सरकारी इमारतें पुराने मन्दिरों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही थीं। परन्तु यहाँ दृश्यावलोकन के लिये हम लोग बहुत कम समय दे पाये क्योंकि अपने गुरु तथा अन्य आत्मीय जनों से मिलने के लिये मैं अधीर हो रहा था। अपनी फोर्ड कार को सामान के डिब्बे में चढ़ाकर हम रेलगाड़ी से कोलकाता की ओर चल पड़े।*

जब हम हावड़ा स्टेशन पहुँचे, तब वहाँ हमारा स्वागत करने के लिये इतनी विशाल भीड़ खड़ी थी कि कुछ समय के लिये तो हम गाड़ी से नीचे ही नहीं उतर सके। कासिमबाज़ार के युवा नरेश और मेरा भाई विष्णु स्वागत समिति का नेतृत्व कर रहे थे। जिस प्रेमभाव के साथ और जिस विशाल स्तर पर हम लोगों का स्वागत किया गया, उसकी मैंने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी ।

आगे-आगे कारों और मोटरसाइकिलों की एक कतार चल रही थी। ढोलकों और शंखों की आनन्दपूर्ण ध्वनि हो रही थी और इस सब के बीच फूलमालाओं से सिर से पाँव तक लदे श्री राइट, कुमारी ब्लेच और मैं एक कार में बैठे धीरे-धीरे अपने पिताजी के घर की ओर बढ़ रहे थे ।

मेरे वृद्ध पिताजी ने मुझे इस प्रकार प्रगाढ़ आलिंगन में बाँध लिया मानो मैं मर कर फिर जीवित हो गया हूँ। काफी समय तक हम दोनों एक-दूसरे को देखते रहे, आनन्द के अतिरेक के कारण दोनों के ही मुँह से कोई शब्द नहीं निकल पा रहा था। भाई और बहनें, चाचा और चाचियाँ, चचेरे भाईबहन, कई वर्ष पहले मेरे छात्र रह चुके लोग, पुराने मित्रगण, सब मुझे घेरे खड़े थे और कोई भी ऐसा नहीं था जिसकी आँखें नम न हों। उस प्रेमपूर्ण पुनर्मिलन का दृश्य पुरानी स्मृतियों में जमा हो गया है, परन्तु मेरे मानस पटल पर अभी भी वह स्पष्ट रूप से अंकित है, मेरे लिये वह अविस्मरणीय है। श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ पुनर्मिलन का वर्णन करने के लिये तो मेरे पास शब्द ही नहीं हैं। उस बारे में मेरे सचिव के वर्णन पर ही संतुष्ट होना पड़ेगा।

अपनी यात्रा-दैनन्दिनी में श्री राइट ने लिखा है: “आज सर्वोच्च आशा एवं उत्कंठा अपने मन में लिये मैं योगानन्दजी को कार से लेकर कोलकाता से श्रीरामपुर गया।”

“रास्ते में विभिन्न प्रकार की दुकानें थीं उनमें एक वह भी थी जहाँ योगानन्दजी अपने कॉलेज के दिनों में प्रायः नाश्ता-पानी करने जाया करते थे। अंततः हम लोग एक संकरी गली में घुसे जिसके दोनों ओर दीवारें थीं । फिर बायीं ओर मुड़ते ही सामने श्रीयुक्तेश्वरजी का दुमंज़िला आश्रम, जिसकी जाली लगी हुई ऊपर की बालकनी कुछ आगे को निकली हुई थी । वहाँ शान्तिपूर्ण एकान्त था ।

“गम्भीर भक्तिभाव के साथ मैं योगानन्दजी के पीछे-पीछे दीवारों से घिरे आँगन में गया । हमारे हृदय तेजी से धड़क रहे थे। सीमेंट की पुरानी सीढ़ियों पर से, जिन पर से निस्संशय असंख्य साधक चले थे, हम लोग ऊपर जाने लगे। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जा रहे थे, वैसे-वैसे हमारी उत्कंठा बढ़ती जा रही थी। हमारे सामने सीढ़ियों के सिरे पर चुपचाप आकर खड़े हुए वे महापुरुष, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी, वहाँ खड़े किसी महान् ऋषि के समान लग रहे थे ।

“उनके परम पावन सान्निध्य में खड़े होने के सौभाग्य के बोध से मेरा हृदय अत्यानन्द से भर उठा। मेरी आतुर आंखों की दृष्टि अश्रुओं से धुँधली हो गयी, जब मैंने देखा कि योगानन्दजी ने अपनी आत्मा की कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अपने गुरु के सामने ज़मीन पर घुटने टेक कर सर झुकाते हुए पहले अपने हाथों से उनके चरणों का स्पर्श किया और फिर उन्हीं हाथों से अपने मस्तक का स्पर्श करते हुए गुरु की चरणरज अपने मस्तक पर धारण कर ली। इसके बाद योगानन्दजी के उठ खड़े होते ही श्रीयुक्तेश्वरजी ने उन्हें अपनी छाती से लगा लिया।

“शुरू में किसी के मुँह से कोई शब्द नहीं निकले, किन्तु हृदयों के तीव्र भाव अन्तर की मौन वाणी में प्रकट हो रहे थे। पुनर्मिलन के आनन्द से उन दोनों की आँखें कैसी चमक रही थीं ! उस शान्त बरामदे में एक अत्यंत कोमल भाव उमड़ रहा था और मानो उस क्षण की गरिमा को बढ़ाने के लिये ही सूर्य भी अचानक बादलों से बाहर आ गया।

“परमगुरु के सामने घुटने टेक कर उनके चरणों में प्रणाम करते हुए मैंने भी अपने हृदय की भक्ति एवं कृतज्ञता अर्पित की। लम्बी तपस्या के कारण कठोर हुए उनके चरणों का स्पर्श कर मैंने उनका आशीर्वाद लिया। फिर खड़ा होकर उनके सुन्दर नेत्रों में मैंने झाँका। उनकी आँखों में आत्मचिंतन की गहराई और आनन्द की चमक थी ।

“हम सभी ने उनके बैठकखाने में प्रवेश किया जो एक ओर से पूरी तरह उस बालकनी की ओर खुली थी, जिसे सर्वप्रथम हमने सड़क से देखा था। श्रीयुक्तेश्वरजी सीमेंट के फर्श पर बिछे एक गद्दे पर एक पुराने दीवान का सहारा लेकर बैठ गये। योगानन्दजी और मैं उनके चरणों के पास ही चटाइयों पर बैठ गये, जहाँ आराम से सहारा लेकर बैठने के लिये भगवे रंग के तकिये रखे थे।

“दो स्वामियों के बीच बंगाली में चल रहे वार्तालाप का सार समझने की मैं निष्फल चेष्टा कर रहा था (क्योंकि मुझे जल्दी ही समझ में आ गया कि जब वे एकसाथ होते हैं, तो कभी अंग्रेज़ी में बात नहीं करते, जब कि स्वामीजी महाराज लोग श्रीयुक्तेश्वरजी को इसी नाम से पुकारते हैं अच्छी तरह अंग्रेज़ी बोल सकते हैं और प्रायः बोलते भी हैं) । परन्तु उस दिव्य महापुरुष की मन को उल्लसित कर देने वाली मुस्कराहट और तेजस्वी आँखों से ही उनकी सन्त प्रकृति को मैंने आसानी से पहचान लिया। चाहे वे हँस-हँस कर बातें कर रहे हों या गम्भीर वार्तालाप कर रहे हों, उनके वाक्यों में वह अधिकार की दृढ़ता तुरन्त दृष्टिगोचर हो रही थी, जो ज्ञानी सन्तों का लक्षण है – जो जानते हैं कि वे जानते हैं, क्योंकि वे ईश्वर को जानते हैं। श्रीयुक्तेश्वरजी का गहन ज्ञान, उनकी ध्येयनिष्ठा और उनका दृढ़ निश्चय हर प्रकार से व्यक्त हो रहा था।

“उन्होंने अत्यंत सादा लिबास पहन रखा था केवल धोती और कुर्ता, जो कभी गेरुएँ रंग में रंगे गये थे, परन्तु अब फीके भगवे लग रहे थे। बीच-बीच में मैं अत्यंत श्रद्धा और भक्तिभाव के साथ उन्हें निहारता रहता था और मैंने देखा कि उनका शरीर काफी बड़े आकार का और सुगठित है, जो संन्यस्त जीवन की तपश्चर्या और त्याग से कठोर बन गया है। उनकी देह-भंगिमा भव्य है । चलते समय उनका शरीर सीधा रहता है और उनकी चाल में शालीनता है। उनकी दिलखुश, ठहाकेदार हँसी सीधे छाती की गहराइयों से आती है, जिसके कारण उनका पूरा शरीर हिलता और थरथराता है।

“ उनके गम्भीर चेहरे पर कुछ ऐसा तेज है कि उन्हें देखते ही उनके दैवी सामर्थ्य की स्पष्ट कल्पना हो जाती है। बीचोबीच विभक्त किये हुए केश माथे के आस-पास सफेद हैं और अन्य स्थानों पर कहीं रजतीय सुनहरे हैं, तो कहीं रजतीय काले; और यह केश-सम्भार कंधों पर आकर घुँघराली लटों का रूप ले लेते हैं। उनकी दाढ़ी-मूँछें पतली-सी हैं और इनसे उनके मुखमंडल की शोभा और भी बढ़ती प्रतीत होती है। उनका ललाट पीछे की ओर चढ़ता गया है जैसे आसमान की ओर चढ़ रहा हो । उनकी आँखें काली हैं और उनमें आकाशी नीली आभा है। नाक काफी बड़ी और कुछ मोटी-सी है, जिसे वे जब खाली बैठे हों, तो बच्चों की भाँति अपनी उँगलियों से हिलाते-डुलाते रहते हैं। जब वे शान्त बैठे हों, तब उनका मुख दृढ़ और कठोर लगता है, परन्तु उसमें कोमलता की सूक्ष्म झलक भी दिखायी देती है।

“कमरे में चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर मैं समझ गया कि भौतिक सुखसुविधाओं के प्रति उनकी अनासक्ति ही उसकी जर्जर-सी अवस्था का कारण है। लम्बे कमरे की सफेद दीवारों पर हवा-पानी के प्रभाव से धब्बे पड़े हैं और कहीं-कहीं नीचे के पलस्तर की फीके नीले रंग की धारियाँ दिखायी दे रही हैं। कमरे में एक तरफ भक्तिभाव से अर्पित सादी-सी पुष्पमाला से सजी हुई लाहिड़ी महाशय की फोटो टँगी हुई है। योगानन्दजी की भी एक पुरानी फ़ोटो टॅगी हुई है। यह फ़ोटो उस समय की है जब योगानन्दजी पहली बार बॉस्टन पहुँचे थे। फ़ोटो में योगानन्दजी धर्म सम्मेलन में भाग लेने वाले अन्य प्रतिनिधियों के साथ खड़े हैं।

“वहाँ प्राचीनता और आधुनिकता का एक अद्भुत संगम दिखायी पड़ता है। शीशे का एक विशाल फ़ानूस लटक रहा है; पर बहुत दिनों से उसका प्रयोग न होने के कारण मकड़ी के जालों से ढँक - सा गया है; और दीवार पर वर्तमान वर्ष का कैलेण्डर टँगा हुआ है। सम्पूर्ण कमरे में शान्ति और सुख की महक है।

“बालकनी से बाहर ताड़ के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष मौन प्रहरी की भाँति खड़े दिखायी देते हैं।

श्रीयुक्तेश्वरजी के ताली बजाने भर की देर है, ताली बजाना खत्म होने से पहले ही उनके पास कोई न कोई बाल शिष्य उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने के लिये पहुँच जाता है। बाल शिष्यों में एक है प्रफुल्ल।* इस दुबले-पतले बालक के लम्बे-लम्बे काले बाल हैं, चमकदार काली आँखें हैं और अत्यन्त मधुर मुस्कान उसके होठों पर खेलती रहती है। जब वह मुस्कुराता है तो उसके मुख के कोने ऊपर की ओर उठ जाते हैं और आँखें चमकने लगती हैं, जैसे सान्ध्यप्रकाश के समय आसमान में तारे और दूज का चाँद अचानक साथ-साथ निकल आये हों ।

“अपनी 'उपज' के लौट आने पर श्रीयुक्तेश्वरजी का अपार हर्ष छिप नहीं रहा है (और उनकी उपज की उपज', अर्थात् मेरे बारे में भी उन्हें काफी जिज्ञासा प्रतीत होती है ) । परन्तु उस महापुरुष के स्वभाव में ज्ञान की प्रधानता उन्हें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने से रोकती है।

“गुरु- दर्शन के लिये जाने पर गुरु चरणों में कोई भेंट अर्पण करने की प्रथा के अनुसार योगानन्दजी ने भी अपने गुरु को कुछ उपहार अर्पण किये। बाद में हम लोगों ने चावल और सब्जियों का सादा परन्तु अच्छी तरह पकाया गया भोजन किया। मुझे अनेक भारतीय रीतियों का पालन करते देख (उदाहरणार्थ हाथ से भोजन करना) श्रीयुक्तेश्वरजी प्रसन्न हुए।

“कई घंटों तक बंगाली भाषा में वार्तालाप और प्रेमपूर्ण मुस्कराहटों एवं आनन्दपूर्ण दृष्टिपातों के आदान-प्रदान के बाद हमने श्रीयुक्तेश्वरजी के चरणों में प्रणाम कर उनसे विदा ली और उस पुण्यदर्शन की चिरस्थायी स्मृति अपने हृदय में धारण किये कोलकाता लौटने के लिये निकल पड़े। वर्णन तो मैं मुख्यतः परमगुरु के बाह्य स्वरूप का ही कर रहा हूँ, परन्तु उनके आध्यात्मिक ऐश्वर्य का मुझे सदैव भान रहा। मैंने उनके अपूर्व सामर्थ्य को अनुभव किया और उस अनुभव को मैं एक दिव्य आशीर्वाद के रूप में सदा के लिये सँजो कर रखूँगा ।”

अमेरिका, यूरोप और फिलिस्तीन से मैं श्रीयुक्तेश्वरजी के लिये अनेक उपहार लाया था। उन्होंने वे उपहार मुस्कराते हुए स्वीकार कर लिये, पर कहा कुछ नहीं। जर्मनी में मैंने स्वयं अपने उपयोग के लिये एक छातायुक्त छड़ी खरीदी थी । भारत आने के बाद मैंने वह छड़ी गुरुदेव को अर्पित करने का निर्णय किया ।

“यह उपहार मुझे सचमुच बहुत पसन्द आया !" यह कहते हुए मेरे गुरुदेव ने अत्यंत प्रेमभरी दृष्टि मुझ पर डाली। आम तौर पर अपनी भावनाओं को वे इस तरह शब्दों में व्यक्त नहीं करते थे। सब उपहारों में से यह छड़ी ही ऐसी थी जिसे वे उनसे मिलने के लिये आने वाले लोगों को दिखाते थे ।

“गुरुदेव! आपकी आज्ञा हो तो मैं बैठकखाने के लिये नया कालीन लाना चाहता हूँ।” मैंने देखा था कि श्रीयुक्तेश्वरजी का व्याघ्रचर्म पुराने फटे हुए कालीन पर बिछा हुआ है।

“यदि तुम्हारी इच्छा है तो ले आओ।” मेरे गुरुदेव के स्वर में कोई उत्साह नहीं था । “पर देखो मेरा व्याघ्रचर्म कितना अच्छा और स्वच्छ है। अपने इस छोटे-से राज्य का मैं राजा हूँ। इसके बाहर विशाल जगत् है जिसमें लोग केवल बाह्य वस्तुओं में ही रुचि रखते है।”

उनके मुख से इन शब्दों को सुनते ही मुझे लगा जैसे समय मुझे पीछे ले गया है; फिर एक बार मैं युवा शिष्य बन गया हूँ, जो प्रतिदिन उनके अनुशासन की अग्नि में शुद्ध होता जा रहा था !

श्रीरामपुर और कोलकाता से अवकाश मिलते ही मैं श्री राइट के साथ राँची के लिये रवाना हो गया। कितना भव्य स्वागत हुआ वहाँ! एकदम हृदयस्पर्शी ! मेरी पन्द्रह वर्षों की अनुपस्थिति में विद्यालय की ध्वजा को फहराती रखने वाले निःस्वार्थी शिक्षकों को गले लगाते समय मेरी आँखें छलछला उठीं। आश्रमवासी छात्रों के और प्रतिदिन अपने घर से आने वाले छात्रों के दमकते चेहरे और प्रफुल्ल मुस्कराहटें उन्हें मिलने वाली शिक्षा और योग प्रशिक्षण की उपयुक्तता के पर्याप्त प्रमाण थे।

परन्तु अफ़सोस ! यह सब होते हुए भी राँची विद्यालय को भीषण अर्थसंकट का सामना करना पड़ रहा था। कासिम बाज़ार के पुराने महाराजा सर मणीन्द्रचंद्र नन्दी, जिनका राजमहल विद्यालय भवन बन गया था और जिन्होंने कई बार विपुल दान भी दिया था, अब स्वर्ग सिधार चुके थे। पर्याप्त जन सहयोग न मिलने के कारण विद्यालय के अनेक लोकोपकारी अंग दारुण संकट में थे।

इतने वर्ष अमेरिका में मैंने उसके व्यावहारिक ज्ञान और बाधाओं का डटकर सामना करने के गुणों में से कुछ न कुछ आत्मसात् किये बिना ही नहीं बिता दिये थे। एक सप्ताह तक मैं नाना जटिल समस्याओं से जूझते हुए राँची में रहा। उसके बाद कोलकाता के प्रमुख नेताओं और शिक्षाविदों से मेरी भेंट का क्रम शुरू हो गया। कासिमबाज़ार के नये युवा महाराजा से भी मैंने लम्बी बातचीत की, पिताजी से आर्थिक सहायता के लिये अनुरोध किया और इस सबका परिणाम यह हुआ कि राँची विद्यालय की लड़खड़ाती नींव स्थिर होने लगी। ठीक समय पर मेरे अनेक अमेरिकी शिष्यों से भी काफी दान प्राप्त हो गया।

भारत लौटने के बाद कुछ ही महीनों में राँची के विद्यालय की कानूनी तौर पर रजिस्ट्री कर पाने की खुशी भी मुझे मिल गयी । इस प्रकार चिरस्थायी निधियुक्त योग शिक्षा केन्द्र का मेरा जीवन-स्वप्न साकार हो गया। मेरे इसी स्वप्न ने १९१७ में केवल सात विद्यार्थियों के साथ इस विद्यालय की शुरुआत करने में मुझे प्रेरित किया था।

योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय के नाम से चल रहे इस विद्यालय में माध्यमिक एवं उच्च विद्यालय के कक्षा-वर्ग खुले प्रांगण में चलते हैं। आवासीय और दिवाकालिक, दोनों ही प्रकार के छात्रों को कोई न कोई व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है।

स्वायत्त समितियों के माध्यम से अपने अनेक कार्यकलापों का छात्र स्वयं ही परिचालन करते हैं। अपने शिक्षक-जीवन के आरम्भ में ही यह बात मेरे ध्यान में आ गयी थी कि बच्चों को जहाँ शिक्षकों को मात देने में नटखट आनन्द मिलता था, वहीं अपने साथी छात्रों द्वारा बनाये गये नियमों का वे खुशी-खुशी पालन करते थे। मैं स्वयं भी कभी आदर्श छात्र नहीं रहा था, अतः बच्चों की सब शरारतों और समस्याओं के प्रति मेरे हृदय में सदा पूर्ण सहानुभूति रहती थी।

बच्चों को खेल-क्रीड़ा में प्रोत्साहन दिया जाता है। हॉकी और फुटबॉल के खेलों से मैदान गूंजते हैं। प्रतियोगिताओं में राँची विद्यालय के विद्यार्थी प्रायः कप जीतते हैं। छात्रों को अपनी इच्छाशक्ति के बल से मांस-पेशियों में शक्ति संचार करने की योगदा प्रणाली सिखायी जाती है, जिसमें मानसिक बल से शरीर के किसी भी हिस्से में प्राणशक्ति का संचार किया जाता है। उन्हें योगासन तथा तलवार और लाठी चलाना भी सिखाया जाता है। इस विद्यालय के प्राथमिक चिकित्सा में प्रशिक्षित छात्रों ने बाढ़, अकाल आदि संकटकाल में अपने प्रान्त की प्रशंसनीय सेवा की है। बच्चे बागवानी करके अपने लिये सब्जियाँ भी पैदा कर लेते हैं ।

कोल, संथाल और मुंडा आदि प्रान्त की आदिवासी जनजातियों के लिये प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा हिंदी माध्यम में दी जाती है। केवल लड़कियों के लिये कक्षाएँ आस-पास के गाँवों में चलायी जाती हैं।

राँची के विद्यालय की अपूर्व विशिष्टता यह है कि यहाँ क्रियायोग की दीक्षा दी जाती है। बालक नियमित आध्यात्मिक साधना और गीता पाठ करते हैं। उन्हें उपदेश एवं प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा सादगी, त्याग, आत्मसम्मान एवं सत्यानुशीलन की शिक्षा दी जाती है। उन्हें यह सिखाया जाता है कि बुराइयों से दुःख ही मिलता है और अच्छाइयों से सच्चा सुख प्राप्त होता है। बुराइयों की तुलना विष मिश्रित शहद के साथ की जा सकती है, जो खाने का लालच तो मन मैं पैदा करती है पर मृत्यु से लदी हुई होती है।

एकाग्रता की प्रविधियों के अभ्यास द्वारा शरीर एवं मन की चंचलता को अपने वश में कर लेने की प्रक्रिया के आश्चर्यजनक परिणाम सामने आये हैं, जिसके कारण राँची में नौ-दस वर्ष के छोटे से बालक का घंटे भर या उससे भी अधिक समय तक स्थिर आसन में भृकुटि मध्य में स्थित आध्यात्मिक नेत्र पर दृष्टि लगाये अपलक बैठे दिखायी देना कोई नयी बात नहीं है ।

बगीचे में एक शिव मन्दिर है जिसमें परम पूज्य लाहिड़ी महाशय का चित्र भी प्रतिष्ठापित है। आम्रवृक्षों की घनी छाया में दैनिक प्रार्थनाएँ एवं शास्त्राध्ययन होता है। विद्यालय के अहाते में एक ओर स्थित योगदा सत्संग सेवाश्रम हज़ारों गरीबों की निःशुल्क चिकित्सा एवं शल्यचिकित्सा करता है तथा उन्हें मुफ्त दवाइयाँ भी देता है।

राँची समुद्रतल से दो हजार फीट की ऊँचाई पर बसा है। वहाँ की जलवायु समशीतोष्ण है। विद्यालय बीस एकड़ भूमि में बसा है । यह भूमि स्नान-योग्य एक बड़े तालाब के साथ है जिस पर बना हुआ बगीचा भारत के सर्वोत्कृष्ट निजी बगीचों में से एक है: यहाँ पाँच सौ फलवृक्ष हैं आम, खजूर, अमरुद, लीची, कटहल ।

राँची के पुस्तकालय में असंख्य पत्रिकाएँ और अंग्रेज़ी तथा बंगाली भाषा की हज़ारों पुस्तकें हैं, जो पूर्व तथा पश्चिम के लोगों से उपहार स्वरूप मिली हैं। विश्व के सभी शास्त्रों के ग्रन्थों का संग्रह भी यहाँ है । एक सुवर्गीकृत संग्रहालय में पुरातत्त्व, भूविज्ञान तथा मानव विज्ञान संबंधी अनेक वस्तु एवं तरह-तरह के रत्नों का प्रदर्शन कर रखा गया है। इनमें से अधिकतर वस्तुएँ ईश्वर की विशाल धरती के विभिन्न देश-प्रदेशों में मेरे भ्रमण के स्मृतिचिह्न हैं।

राँची के विद्यालय के समान ही योग प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथसाथ आवासीय व्यवस्था से युक्त शाखा हाई स्कूल खोले गये हैं और ये सभी विद्यालय उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर हैं। ये शाखाएँ हैं पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में लखनपुर स्थित योगदा सत्संग विद्यापीठ (विद्यालय) तथा मिदनापुर जिले में इस्मालीचक स्थित योगदा स्कूल एवं आश्रम।

१९३९ में दक्षिणेश्वर में गंगा किनारे एक भव्य योगदा मठ की स्थापना हुई। कोलकाता से कुछ ही मील की दूरी पर उत्तर में स्थित यह आश्रम शहरवासियों के लिये एक रमणीय शान्ति स्थल है।

दक्षिणेश्वर स्थित यह मठ योगदा सत्संग सोसायटी, उसके सारे विद्यालयों तथा भारत के विभिन्न स्थानों में स्थित उसके केन्द्रों एवं आश्रमों का मुख्यालय है। योगदा सत्संग सोसायटी कानूनी तौर पर अमेरिका में कैलिफोर्निया के लॉस ऐंजेलिस शहर में स्थित अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय सेल्फ़- रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप से सम्बद्ध है। योगदा सत्संग की
गतिविधियों में भारत भर में निवास करते अपने साधकों को प्रतिमाह डाक द्वारा योगदा पाठ भेजना सम्मिलित है। इन पाठों में शक्ति संचार, एकाग्रता एवं ध्यान की योगदा प्रविधियों का सविस्तार वर्णन है। क्रिया योग की उच्चतर दीक्षा लेने के लिये, जो बाद में पाठों द्वारा केवल योग्य साधकों को ही दी जाती है, इन प्रविधियों के निष्ठापूर्ण अभ्यास द्वारा अपने को तैयार करना आवश्यक होता है।

योगदा सत्संग की शैक्षणिक, आध्यात्मिक तथा जन हितैषी गतिविधियों के लिये भारी संख्या में शिक्षकों और कर्मचारियों की निष्ठापूर्ण सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ मैं उन शिक्षकों एवं कर्मचारियों के नाम नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि उनकी सूचि बहुत बड़ी बन जायेगी; परन्तु उनमें से प्रत्येक व्यक्ति का मेरे हृदय में एक निश्चित उज्वल स्थान है।

श्री राइट ने राँची के अनेक बालकों के साथ मित्रता स्थापित कर ली थी। सादी धोती पहन कर काफी समय तक वे उन सब के साथ रहे। मुम्बई, राँची, कोलकाता, श्रीरामपुर जहाँ-जहाँ भी वे मेरे साथ गये, सविस्तार, सुन्दर वर्णन लिखने की नैसर्गिक योग्यता से युक्त मेरे इस सचिव ने अपनी यात्रा- दैनन्दिनी में उन सब स्थानों का सर्वांगसुन्दर वर्णन लिखा है। एक दिन शाम को मैंने उनसे पूछा:

“डिक, भारत के बारे में तुम्हारा क्या विचार है ?”

विचार मग्न होते हुए उन्होंने कहाः “शान्ति । यहाँ के लोगों के स्वभाव में ही शान्ति है।”


* [हम लोगों ने वर्धा में महात्मा गान्धी से मिलने के लिये बीच में सेन्ट्रल प्रॉविन्सेस में यात्रा भंग की थी। उस समय वर्धा सेन्ट्रल प्रॉविन्सेस में था (अब महाराष्ट्र में है)। उस भेंट का वर्णन प्रकरण ४४ में दिया गया है।]

* [प्रफुल्ल वही लड़का है, जो गुरुदेव के पास उस समय उपस्थित था, जब एक नाग उनकी ओर आया था।] (प्रकरण १२ दृष्टव्य)