गाँव की वह छोटी सी सुखिया बड़ी होते-होते शहर की जानी मानी सुखी मैम बन गई; जिसकी बनाई मिट्टी की सभी वस्तुएँ ख़ूब बिकती थीं। अपनी बेटी की सफलता देखकर वैजंती को याद आता कैसे सुखिया ने एक दिन उससे गिड़गिड़ाते हुए कहा था, 'अम्मा मुझे मना मत करो, कोशिश तो करने दो' यह सोचते ही वैजंती को लगता, अच्छा हुआ जो उसने सुखिया को उसकी मर्जी से यह सब करने दिया। आज उसकी सुखिया, सुखिया से सुखी मैम बन गई है।
एक शो रूम तो सागर ने सुखिया को दिया ही था लेकिन शहर में अगला शो रूम सुखिया ने ख़ुद की मेहनत के कमाए पैसों से खरीदा था। दस बीस रुपये की चीजों से शुरू होने वाला सुखिया का यह व्यवसाय आज लाखों की कमाई कर रहा था लेकिन आज भी सुखिया बिल्कुल वैसी ही थी जैसी वह अपने छोटे से गाँव में हुआ करती थी। उतनी ही विनम्र, उतनी ही सीधी और सादगी से जीवन यापन करने वाली। उसके प्रतिद्वन्द्वी भी थे जो उससे ईर्ष्या करते थे। उन्होंने उसके आगे बढ़ते कदमों की रफ़्तार को रोकने की बहुत कोशिश की, पर रोक ना सके। उसके मज़बूत इरादों को कोई भी रोक न पाया। वह अपनी मेहनत और ईमानदारी से अपने काम के साथ आगे बढ़ती रही।
सुखिया के जीवन में सागर उसे गॉड फादर के रूप में मिले थे, जिन्होंने उसका साथ देकर उसकी राह को आसान बना दिया। सुखिया यह बात अच्छी तरह जानती थी कि यदि सागर अंकल उसके जीवन में ना आते तो यह सब संभव नहीं हो पता। सुखिया भी चाहती थी कि वह भी ऐसे ही किसी को, जो इस काबिल हो, जिसमें मेहनत और इच्छा शक्ति हो, आगे बढ़ा सके। इसी सोच के कारण वह अपनी माँ वैजंती के साथ साल में एक बार अवश्य ही गाँव जाया करती थी कि कभी उसे ऐसा कोई दिख जाए, जिसमें अपनी इस कला के लिए उसकी तरह जुनून हो। सुखिया चाहती थी कि फ्रिज और दिवाली पर बिजली की चमकती लड़ों के इस दौर में उनका यह व्यवसाय कमज़ोर ना हो पाए। उसे तो बचपन से ही अपनी इस कला से बेहद प्यार था। वह चाहती थी कि उनकी आने वाली नई पीढ़ी इस कला को जीवित रखे इसलिए वह इस व्यवसाय के कमजोर और गरीब वर्ग की हमेशा मदद करती थी।
गॉड फादर के रूप में सागर का जो साथ उसे मिला, उसे वह भगवान का वरदान समझती थी और एक कर्ज़ भी समझती थी। वह किसी की गॉड फादर बनकर इस कर्ज़ को उतारना चाहती थी। आज उसके पास अवसर था, पैसा भी था और किसी को आगे बढ़ाने की चाह भी थी।
कई वर्षों के इंतज़ार के बाद एक दिन जब वह गाँव से वापस जा रही थी तब लौटते वक़्त उसकी नज़र एक जगह पर आकर रुक गई। यहाँ एक छोटा सा, लगभग 10 वर्ष का लड़का इस तरह से चाक पर अपने हाथ चला रहा था, जैसे सुखिया ख़ुद चलाती थी। सुखिया का पाँव गाड़ी के ब्रेक पर अपने आप ही चला गया। वह गाड़ी से उतरकर उस बच्चे के पास आई। जहाँ उसके माता-पिता उसके पास बैठे हुए थे। सुखिया को अपने आँगन में खड़ा देख कर उन्हें ख़ुशी के साथ अचरज भी हो रहा था।
सुखिया ने उस बच्चे और उसके माता-पिता से बात की और उन्हें हर तरह की मदद का आश्वासन दिया। इस तरह आज सुखिया की किसी का गॉड फादर बनने की इच्छा भी पूरी हो गई। सुखिया ने तो उस बच्चे की गॉड फादर बनकर भगवान का वह कर्ज़ उतार दिया जो भगवान ने उसे उपहार स्वरूप दिया था।
सुखिया हर वर्ष शहर के मेले में अपनी दुकान लगाती थी। इस मेले में हर वर्ष उसकी दोस्त अनाया भी उसके साथ ज़रूर जाती थी क्योंकि इस मेले से दोनों की ही यादें जुड़ी हुई थीं। जहाँ यदि अनाया को अपना बचपन दिखाई देता जो सिर्फ़ सुखिया और वैजंती की वज़ह से सुरक्षित था। वहीं उस मेले में सुखिया की आँखों में बचपन वाला वही दृश्य दृष्टिगोचर होता जब उसे वहाँ सागर अंकल और अनाया मिले थे। सागर अंकल तो अब इस दुनिया में नहीं थे लेकिन उनकी तस्वीर सुखिया के शो रूम में अपने पिता के साथ लगी होती थी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
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