प्रेम गली अति साँकरी - 100 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 100

100----

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संस्थान की कक्षाएँ अपने समय से चल रहीं थीं और यू.के से भाई की पुकार कुछ ऐसे कि बस अम्मा-पापा को अब भेज ही दो कुछ दिनों के लिए| उसे आजकल जाने क्यों अम्मा-पापा की बड़ी याद आ रही थी | मैंने उन्हें कहा भी कि वे दोनों कुछ दिनों के लिए संस्थान के काम के लिए नहीं भाई-भाभी के प्यार के लिए जाएँ| बेशक वह अपनी इच्छा से गया था लेकिन किसी का दिल दुखाकर नहीं गया था| पूरा परिवार उसके निर्णय से खुश था बल्कि आनंदित ही था| वैसे इस पर भी काफ़ी चर्चा तो हो ही चुकी थीं कि उनकी अनुपस्थिति में न संस्थान के काम पर कोई आँच आएगी और न ही पापा के काम पर | 

“संत महाराज के साथ मीटिंग कैसी रही? ”उत्पल कहीं से भी मेरे मन के विचारों में अपनी उपस्थिति की टँगड़ी लगाने प्रस्तुत हो जाता था| 

“ऐसा क्यों कह रहे हो? अच्छा इंसान है, सीधा-सादा---”मैंने उसे घूरते हुए कहा| 

मेरी धड़कनें बढ़ाने वाला आज तक यही बंदा अवतरित हुआ था| क्यों कर रहे थे कामदेव मेरे मन में उथल-पुथल? मेरा मन हुआ मैं दौड़कर उससे लिपट जाऊँ लेकिन जानती तो थी, ऐसा करने के लिए मेरा ज़मीर ही मुझे इजाज़त नहीं देता था| मुझे लगता था और बार-बार लगता था कि मैं उसे कहूँ या वह मुझसे कह दे कि हमारी आँखों में तो एक अधूरा सपना है, वो सपना जो कभी भी पूरा नहीं होता| एक टूटा सा सपना, एक ऐसा सपना जो आँखों की कोरों में कुछ बूंद बनकर अटका रहता है| ऐसा सपना जिसे सोचते ही दिल धड़कने लगे और जिसे सामने पाकर खामोश होने की प्रक्रिया शुरू करने लगे| 

“मैने कब बोला, अच्छा नहीं है? हम बंगाली लोग सब अच्छा ही होते है| ”मैंने गुर्राकर उसे देखा, क्यों भला ? ऐसा उसने कुछ गलत तो बोला नहीं था| वैसे भी अगर वह खुद को प्रोटेक्ट कर रहा था तब भी क्या था ? अब तक हमने अपने परिवार में जितने बंगाली देखे थे, सब अच्छे ही थे जबकि हमने न जाने बंगालियों के बारे में काला जादू और न जाने कितना नेगेटिव सुना था लेकिन हमने खुद तो इसका कोई अनुभव किया नहीं था| दुनिया बड़ी अजीब है, कहीं से कोई बात सुन ली और चिपका दी ललाट पर!

उत्पल मेरे मन के आँगन में चटाई बिछाए, समाधि में ही चिपक गया था जैसे| मैं कितनी कोशिश करती रही थी उसकी समाधि भंग करने की लेकिन वह तो ऐसा संत बना चिपका था जो जब तक इष्ट को पा न ले, उसकी समाधि टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी! जितना दूर जाने का उपक्रम करो, उतना अपने करीब महसूस करो| अम्मा के पूछने पर उन्हें कह तो दिया था कि कर लूँगी एक /दो बार बात और प्रमेश से लेकिन क्या? भला मुझ जैसे परिवार की लड़की, चलो प्रौढ़ा कह लो, कहाँ कमी थी किसी की| युवावस्था की शुरुआत से न जाने कितने दिलफेंक थे प्रपोज़ करने वाले लेकिन कोई मन पर ही न चढ़ा तो क्या करती? ’एक तू ही मिला उत्पल? ’ दिल जैसे बैठा जाताथा| पागलपने की हद ही थी, ऐसा कैसा दिल हो गया जो न छूटे, न रूठे, न पाए और न ही जाए| एक ’गिल्ट’ दिल में समेटे बंद भी तो नहीं हो रहा था धड़कना !

कभी भी आकर खड़ा हो जाए? आँखें खोलो तो साक्षात और आँखें बंद करो तो नदारद| आज मेरा चैंबर नॉक किया तो मैं प्रमेश से दूसरी बार मिलने का कार्यक्रम मन ही मन बना रही थी| 

“आ सकता हूँ मैम ? ”नाटकीय अंदाज़ में वह बोल और बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए अंदर प्रवेश कर गया| 

“क्या बिज़ी हैं ? ”अंदर पूछते हुए आया वह| 

“नहीं, कोई खास नहीं---”मेरा स्वर और सुर दोनों ही उलझे हुए थे| 

“ओह ! बिना खास ही सही----”कहता हुआ वह मेरे सामने वाली कुर्सी पर पधार गया | 

‘क्यों आ गया यह इस समय? ऐसे समय जब मैं फिर से प्रमेश से मिलने के लिए खुद को तैयार कर रही थी? ’मेरे मन ने मुझे फिर से मुझे खंगाला| मैंने उसे बताना चाहा लेकिन मेरे मुँह से निकला ही नहीं| मैं उससे डरती थी या खुद से ? 

मुझे लग रहा था मैं उसके दिल के सागर में पत्थर फेंकने की बात कर रही हूँ| क्या मैं जानती या समझती थी कि एक पत्थर फेंके जाने के बाद कितनी दूर या कितना गहरा जा पड़ता है| बेशक वह छोटा सा पत्थर हो या बड़ा, क्या हम जानते हैं वह किसी के लगने पर उसे कितनी चोट दे सकता है? 

“बताइए न किस बिना खास के काम में बिज़ी थीं ? ”उसने फिर से इसरार किया, एक बच्चे की तरह| 

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं, हाँ ज़रा प्रमेश बर्मन के साथ बाहर जाने का प्रोग्राम था| ”मैंने झिझकते हुए उसे बता दिया| 

“अभी दो दिन पहले तो मिली थीं उससे!” उसका आश्चर्य पीड़ित था और मैं उसे बरगला नहीं सकती थी| 

“आप कहीं आचार्य जी के बारे में सीरियस तो नहीं हो रही हैं ? ”जैसे उसे गश आने वाला हो| 

मैं गुमसुम सी थी, नहीं जानती, समझती थी, उसे क्या उत्तर दिया जा सकता है? लो अम्मा का फ़ोन भी उसके सामने ही आ गया और वही कि प्रमेश मेरा इंतज़ार कर रहा है| मेरा उतरा मुँह देखकर उत्पल समझ गया कि बात कुछ नाज़ुक ही थी| 

“क्या आचार्य श्री का फ़ोन है ? ” उसने धीरे से पूछा| 

“नहीं, अम्मा का? ”मैंने भी तो बुझे मन से उत्तर दिया था| वह समझ गया | 

“लगता है आचार्य जी के लिए ही है----”उसने बुझे से मन से कहा फिर बोला, 

“कंटीन्यू----मैं चलता हूँ----” वह एकदम लंबे डग भरता हुआ दरवाज़े पर पहुँच गया | फिर कुछ रुका, मुड़ा, बोला;

“समझ लीजिए ठीक तरह से----क्या आपको लगता है, आप उनके साथ---इनसे बेहतर श्रेष्ठ नहीं थे ? ”वह रुक गया और मेरे चेहरे पर कुछ ऐसी नज़रों से देखा जैसे कहीं दूर सुरंग में से झाँककर कुछ देखकर पढ़ने की कोशिश कर रहा हो | मुझे साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा था, उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं और उसका चेहरा उतर गया था| अपनी बात अधूरी छोड़कर वह बाहर निकल गया | 

मैं अपनी कुर्सी आँखें मूँदी बैठी रह गई| कैसी टुकड़े-टुकड़े हो रही है ज़िंदगी !

उम्मीदों के चिराग बुझने की बारी है, आ ज़िंदगी, देख कैसे तू हारी है !!

मेरी आँखों में आँसु थे और हृदय में पीड़ा| प्रेम कैसी सँकरी गली में से निकलने का मोहताज है, मैं तड़प उठी थी| 

मेरे पास उत्पल को बचाने के केवल दो रास्ते थे, एक –या तो प्रमेश से जल्दी से शादी कर लूँ या उत्पल ही अपनी कोई कंपनी ढूंढ ले| मैं जानती थी कि निरे प्यार के नाम से उसकी जरूरतें पूरी नहीं हो सकती थीं | मैंने उससे जब भी कहा कि वह क्यों नहीं अपनी कोई ऐसी कंपनी जोड़ लेता है जो उसे उसे मानसिक और शारीरिक दोनों सुख दे सके| 

“अभी नुक्कड़ पर पान की दुकान से खरीदकर लाता हूँ---”वह तड़पकर बोलता था और हम दोनों के बीच में कई दिनों की चुप्पी पसर जाती |