Kalvachi-Pretni Rahashy - 67 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६७)

अन्ततः वो कुशाग्रसेन से बोला....
"कुशाग्रसेन! अब तुम सीमाओं का उलंघन कर रहे हो"
तब महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"मैं भला क्यों सीमाओं का उलंघन करने लगा गिरिराज!,ये सत्य नहीं है क्या कि तुम और तुम्हारा पुत्र पूर्ण समय सुरा एवं सुन्दरी में लिप्त रहते हो,जिस राज्य का राजा ऐसा हो तो उस राज्य के सैनिकों एवं प्रजा से आशा ही क्या की जा सकती है,क्या मैं सत्य नहीं कह रहा,तुमने कभी सोचा कि जब रात्रि को तुम अपनी विलासिता में लिप्त रहते हो तो तुम्हारे सैंनिक कुछ और ना सही मदिरापान तो कर ही सकते हैं",
"ये कैसें सम्भव है? उन्हें तो राजमहल की सुरक्षा हेतु लगाया गया है,वें अपना कर्तव्य भूलकर ऐसा कार्य करते हैं",गिरिराज क्रोधित होकर बोला....
"जब राज्य के राजा को अपना कर्तव्य स्मरण नहीं तो उस राज्य का राजा सैनिकों से भला ऐसी आशा क्यों करता है",कुशाग्रसेन बोले...
"कुशाग्रसेन! यदि तुम्हारी बात असत्य निकली तो तुम स्वयं की ऐसी दशा होते हुए देखोगे,जिसकी तुमने आशा भी नहीं की होगी",गिरिराज बोला....
तब कुशाग्रसेन बोले....
"मैं असत्य नहीं कह रहा गिरिराज! प्रमाण तुम्हारे समक्ष है,तुम स्वयं ही इनकी दशा देख रहे हों एवं ये सदैव रात्रि में ही होता है,मैं तो यहाँ कारागार से रात्रि के समय सबकुछ देखता हूँ,कोई नवयौवना युवती आती है इन सभी के लिए सुरा लेकर,जिसका नाम मोहिनी है,उसका मदोन्मत्त यौवन एवं रुप लावण्य देखकर ये सैंनिक अपनी चेतना खोकर उस पर ललायित होकर उसकी कही हर एक मानने लगते हैं,वो इन्हें सुरा से भरे पात्र देती जाती है और ये पीते जाते हैं,उस मदिरापान के पश्चात ये अपनी सुधबुध खोकर कुछ भी बोलते हैं और ऐसा ही इन्होंने रात्रि को भी किया होगा"
"वो तो रात्रि की बात है कि वो मोहिनी नामक नवयौवना इन सभी को मदिरापान करवाकर गई होगी,किन्तु अभी इनकी ये दशा क्यों हैं",गिरिराज ने पूछा...
"क्योंकि?वो कुछ समय पहले यहाँ आकर इन सभी की ये दशा करके गई है",कुशाग्रसेन बोलें...
"तुम सत्य कहते हो",गिरिराज ने पूछा...
"यदि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो तुम किसी भी अचेत सैंनिक के पास जाकर उन्हें जगाओगे तो उनके मुँख से मोहिनी का नाम ही निकलेगा क्योंकि वो मोहिनी है ही इतनी सुन्दर,यदि में इस बंदीगृह में ना होता तो शीघ्र ही उससे विवाह कर लेता",कुशाग्रसेन बोले....
"तुम कहते हो तो मैं सैनिकों के समीप जाकर पूछता हूँ"गिरिराज बोला...
"हाँ...हाँ...पूछ क्यों नहीं लेते,भला मुझे किसका भय",कुशाग्रसेन बोले....
और इसके पश्चात गिरिराज ने धरती में पड़े अचेत सैनिकों के समीप जाकर क्रमशः सभी से पूछा....
"ये तुम्हारी दशा कैसें हुई?"
तो एक एक करके सभी सैनिकों ने एक ही उत्तर दिया....
"प्राणप्यारी! मोहनी! तुम कहाँ चली गई,मुझे और मदिरा पिलाओ प्रिऐ!,मैं तुम्हारे रुप लावण्य का प्यासा हूँ,तुम्हारा ये मदोन्मत्त यौवन मुझे बावरा बनाएँ देता है,यदि तुम मेरे जीवन में प्रवेश करो तो मैं अपना सर्वस्व तुम पर लुटा दूँगा"
अब सैनिकों के उत्तर सुनकर गिरिराज स्तब्ध रह गया और कुशाग्रसेन से कुछ ना बोल पाया,तब महाराज कुशाग्रसेन ने गिरिराज से कहा....
"क्यों गिरिराज! अब हो गया ना तुम्हें मेरी बात पर विश्वास, मुझसे मिलने रात्रि को यहाँ कोई नहीं आया था,मदिरापान में लिप्त इन सैनिकों ने किसी से कुछ भी कह दिया और ये बात समूचे राजमहल में अग्नि की भाँति बिसरित हो गई और तुमने भी इस बात को विशेष बना दिया"
"मुझे तुमसे वार्तालाप करने में कोई रुचि नहीं और मैं यहाँ से जा रहा हूँ",गिरिराज वहाँ से जाते हुए बोला....
"अब तुम्हारी बात का कोई प्रमाण नहीं मिला तो तुम्हें मुझसे वार्तालाप करने में कोई रुचि नहीं,तुम तो यहाँ मुझसे बात करने आएँ थे,तो अब क्या हुआ? यूँ कायरों की भाँति अपना मुँख छुपाकर कहाँ भागे जा रहे हो", महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
अन्ततः गिरिराज ने महाराज कुशाग्रसेन की कोई बात नहीं सुनी और वहाँ से चला गया,उसे जाता हुआ देखकर महाराज कुशाग्रसेन अत्यधिक प्रसन्न हुए.....
और इधर अर्धरात्रि के पश्चात वैशाली बने अचलराज के कक्ष में सभी मिले तो सभी पहले तो अत्यधिक हँसे और इसके पश्चात अचलराज कालवाची से बोला....
"कालवाची! यदि आज तुमने वो उपाय ना सोचा होता तो कदाचित हम सभी का भेद खुल जाता"
"मैं ऐसा कदापि ना होने देती अचलराज!,इसलिए तो मैंने ऐसी योजना बनाई",कालवाची बोली...
"तुमने सच कहा कालवाची! यदि तुमने वत्सला को मोहिनी रुप ना दिया होता तो महाराज कुशाग्रसेन के समक्ष बहुत बड़ी दुविधा खड़ी थी,क्योंकि वें ना तो हाँ में उत्तर दे सकते थे और ना ही ना में,उनकी सहायता हेतु मेरी ओर से बहुत बहुत धन्यवाद कालवाची!"रानी कुमुदिनी बोलीं...
"इसमें आभार प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है रानी कुमुदिनी! ये तो मेरा कर्तव्य था,यदि आभार प्रकट करना है तो वत्सला का कीजिए,मोहिनी बनकर उसने जो अभिनय किया है तो वो तो प्रसंशा के योग्य है",कालवाची बोली...
"हाँ! ये बात तो है वत्सला का अभिनय सच में प्रसंशा के योग्य था,उसने मोहिनी बनकर उन सभी सैंनिकों को इस प्रकार मदिरापान कराया कि सभी अचेत होकर धरती पर गिर पड़े",रानी कुमुदिनी बोलीं....
"मैं महाराज कुशाग्रसेन की सहायता हेतु गई थी किन्तु पंक्षी रूप में,तो उस समय वें मेरी भाषा नहीं समझ पाएंँ,तब अत्यधिक विचार करने के पश्चात अन्ततः मुझे ऐसा उपाय सूझा और मैंने बिलम्ब ना करते हुए आप सभी के पास आकर इस योजना के बारें में बताया,अन्ततः ये योजना सफल हुई और महाराज कुशाग्रसेन की दुविधा भी समाप्त हो गई", कालवाची बोली...
"किन्तु! कालवाची! तुमने ये अनुमान कैसें लगा लिया कि गिरिराज इन सब पर विश्वास कर ही लेगा", वत्सला ने पूछा...
तब कालवाची बोली....
"वत्सला!हम सभी के पास अत्यधिक समय नहीं था,महाराज कुशाग्रसेन को उस संकट से निकालने हेतु,उस पर ये भी भय था कि कहीं वो गिरिराज महाराज कुशाग्रसेन को इस बात के लिए कोई कड़ा दण्ड ना देते,इसलिए मुझे लगा कि यदि सैनिकों को झूठा ठहराया जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है, इसलिए मैंने वत्सला को मोहिनी रुप देकर उसे बंदीगृह जाने को कहा,तब वत्सला ने अपने रुप और यौवन से सभी सैनिकों को मोहित कर उन्हें इतना मदिरापान कराया कि कुछ ही समय पश्चात वें अचेत होकर धरती पर गिर पड़े और वत्सला से ये भी कह दिया कि जब सभी सैनिक अचेत हो जाएँ तो तुम महाराज कुशाग्रसेन से सारी सच्चाई बता देना और वत्सला ने यही किया,इस प्रकार हम सभी अपनी योजना में सफल हो गए"
"किन्तु सारा श्रेय तो तुम्हीं को जाता है कालवाची!"वत्सला बोली...
"नहीं!वत्सला! इस योजना का सारा श्रेय तुमको ही जाएगा,तुमने इतना अच्छा अभिनय किया तभी तो हम इस योजना में सफल हुए"कालवाची बोली....
इसके पश्चात सभी ने तनिक देर वार्तालाप किया एवं कुछ समय पश्चात कालवाची ने सभी का रुप बदला और सभी उड़ चले रानी कुमुदिनी को वापस छोड़ने हेतु......

क्रमशः....
सरोज वर्मा....



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