कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६६) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६६)

वें सब बंदीगृह से बाहर आएँ तो वत्सला ने पूछा....
"सब अच्छा रहा ना!",
"हाँ! पहले मेरे कक्ष में चलो,तब वार्तालाप करते हैं,"अचलराज बोला...
इसके पश्चात सभी अचलराज के कक्ष में पहुँचे और उन्हें कालवाची ने अपना अपना रुप दे दिया,तब कालवाची वत्सला से बोली....
"हाँ! सब ठीक रहा एवं हम पर किसी को कोई भी संदेह नहीं हुआ",
"हाँ! मैंने महाराज और माता पिता के दर्शन भी कर लिए,मुझे आज विशेष प्रकार की संतुष्टि का अनुभव हो रहा है,इतने वर्षों पश्चात महाराज को देखा तो मैं तो भाव विह्वल हो उठी",रानी कुमुदिनी बोलीं....
"तो अब मैं आपको मैना में परिवर्तित कर देती हूँ,क्योंकि अत्यधिक रात्रि हो चुकी है,अब आप सभी को विश्राम कर लेना चाहिए,मैं भी अपने कक्ष में जाकर वहाँ की स्थिति देखती हूँ क्योंकि मैं तो और भी नर्तकियों के संग उस कक्ष में रहतीं हूँ",कालवाची बोली...
"हाँ! कालवाची! तुम हम सभी के कारण स्वयं को संकट में मत डालो,क्योंकि अभी हमारा कोई भी भेद नहीं खुलना चाहिए",वत्सला बोली....
"हाँ! इसलिए तो मैं कह रही थी कि अब मैं आप सभी का रुप बदलकर अपने कक्ष में चली जाऊँगी",
और ऐसा कहकर कालवाची ने सभी का रुप बदला और अपने कक्ष की ओर प्रस्थान किया,रात्रि बीती और जब प्रातःकाल हुई तो समूचे राजमहल में ये समाचार बिसरित हो गया कि रात्रि में महाराज गिरिराज अपने शत्रु कुशाग्रसेन से भेंट करने बंदीगृह गए थे,किन्तु महाराज तो कह रहे हैं कि वें उस समय गहरी निन्द्रा में थे,वें तो बंदीगृह गए ही नहीं थे,सैंनिकों ने उनके संग सेनापति बालभद्र और राजकुमार सारन्ध को भी देखा था,परन्तु सेनापति बालभद्र एवं राजकुमार सारन्ध भी कह रहे हैं कि वें दोनों भी महाराज के संग बंदीगृह नहीं गए थे,सेनापति कह रहे हैं कि वें अपने किसी मित्र के यहाँ निमन्त्रण में गए थे और राजकुमार सारन्ध कह रहे हैं कि वें तो कल रात्रि वन में थे,प्रातःकाल ही वें वन से लौटें हैं,अब ये समझ में नहीं आ रहा है कि बंदीगृह के सैनिकों को ऐसा भ्रम कैसें हुआ एवं विचारणीय बात ये है कि एक साथ इतने सारे सैनिकों को कैसें भ्रम हो सकता है या तो सभी सैनिक झूठ बोल रहे हैं या तो ऐसा प्रतीत होता है कि कोई बहुरुपिये राजमहल में घुस आएँ हैं....
और प्रातःकाल बीतते बीतते मध्याह्न तक जब ये समाचार,वैशाली,कर्बला और वत्सला ने सुना तो वें सब चिन्तित हो उठे,उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं उनका भेद ना खुल जाएँ,अब इस बात की सच्चाई को ज्ञात करने हेतु गिरिराज ने सेनापति बालभद्र और राजकुमार सारन्ध के संग बंदीगृह जाने का विचार बनाया और उसने इस बात को सिद्ध करने हेतु महाराज कुशाग्रसेन से वार्तालाप करना उचित समझा और गिरिराज राजमहल वासियों से बोला.....
" यदि कुशाग्रसेन ने कहा कि मैं बंदीगृह उससे मिलने नहीं गया था तो इस बात के बहुत से सैंनिक साक्षी हैं कि रात्रि को मैं वहाँ गया था और यदि उसने ये कहा कि मैं उससे मिलने गया था तो वो स्वयं ही मेरी बात में फँस जाएगा,तब उसे विवश होकर सच्चाई बतानी होगी कि मेरा रुप धरकर उससे मिलने कौन आया था?"
गिरिराज ने महाराज कुशाग्रसेन के लिए ये एक ऐसा जाल बुन दिया था जिससे वें उससे सरलता से नहीं निकल सकते थे और अत्यधिक चिन्ताजनक बात थी,ये बात जैसे तैसे कालवाची को ज्ञात हो गई और वो महाराज कुशाग्रसेन को गिरिराज की इस सोची समझी चाल से निकालने का उपाय सोचने लगी,वो उस समय वैशाली और वत्सला से अपने उस रुप के साथ भी नहीं मिल सकती थी,उसे उस समय कुछ भी नहीं समझ आ रहा था कि वो क्या करें क्योंकि गिरिराज सायंकाल महाराज कुशाग्रसेन से भेंट करने जाने वाला था और यदि उसे महाराज कुशाग्रसेन की ओर से संतुष्टिदायक उत्तर ना मिला तो ना जाने वो महाराज कुशाग्रसेन की क्या दशा करेगा,ये सोच सोचकर चिन्ता से कालवाची का हृदय बैठा जा रहा था....
तभी कालवाची के मन में एक विचार आया और उसने एकान्त में जाकर पंक्षी रुप धरा और वो महाराज कुशाग्रसेन के कक्ष के वातायन से उनके कक्ष में पहुँची,किन्तु वहाँ इतने सैनिक उपस्थित थे इसलिए वो विचारमग्न थी कि वो अपनी बात महाराज कुशाग्रसेन तक कैसें पहुँचाएंँ,क्योंकि पंक्षी की भाषा महाराज कुशाग्रसेन को समझ नहीं आ सकती थी,अत्यधिक प्रयासों के पश्चात जब वो अपनी बात महाराज तक नहीं पहुँचा सकी तो वहाँ से वापस आकर दूसरा उपाय सोचने लगी,किन्तु अत्यधिक सोचने पर उसे कुछ नहीं सूझा.....
तब एकाएक एक विचार उसके मन में कौंधा और वो उस विचार को सफल बनाने हेतु पुनः कहीं उड़ चली....
उधर वत्सला,अचलराज एवं रानी कुमुदिनी चिन्तित बैठें थे कि ना जाने सायंकाल क्या होने वाला है,महाराज कुशाग्रसेन और गिरिराज की भेंट का ना जाने क्या परिणाम होगा और तभी उनके पास पंक्षी रुप में कालवाची आई और उसने वैशाली बने अचलराज के कक्ष में ही अपना रुप बदलकर सभी को अपनी योजना सुनाई,योजना सुनकर सभी प्रसन्न हो उठे और योजना को सफल बनाने के कार्य में लग गएं....
सायंकाल हुई और गिरिराज,सेनापति बालभद्र एवं राजकुमार सारन्ध के साथ बंदीगृह पहुँचा और जो वहाँ उसने देखा तो वहाँ का दृश्य देखकर उसका मस्तिष्क असंतुलित हो उठा,किन्तु उस समय वो अपने क्रोध को अपने वश में करके महाराज कुशाग्रसेन के समीप जाकर उनसे बोला ....
"ये बताओ कि कल रात्रि मैं यहाँ तुमसे भेंट करने आया था",
"नहीं! तू भला क्यों मुझसे यहाँ भेंट करने आने लगा,तू कोई मेरा सगा सम्बन्धी थोड़े ही है",महाराज कुशाग्रसेन बोले...
"तू झूठ बोल रहा है,ये बता कि कल रात्रि मेरा रुपधर तुझसे कौन मिलने आया था,सच सच बता नहीं तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा",गिरिराज दहाड़ा...
"ये तुमसे किसने कहा कि तू मुझसे मिलने यहाँ आया था"?,महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
"मेरे सैनिक इस बात के साक्षी हैं",गिरिराज बोला....
"कौन से सैनिक?",कुशाग्रसेन ने पूछा...
"वही सैनिक जो बंदीगृह में तेरे कक्ष के समीप पहरा देते हैं",गिरिराज बोला....
"ओह....तो ये बात है,कहीं तुम इन सैनिकों की बात तो नहीं कर रहे जो धरती पर मदिरापान करके पड़े हैं", महाराज कुशाग्रसेन बोले...
"क्या कह रहे हो तुम? मेरे सैनिक मदिरापान करते हैं",गिरिराज बोला....
"तुम स्वयं तो इनकी दशा अपनी आँखों से देख रहे हो,तुम्हें तब भी मेरी बात पर संदेह है",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"क्या इन्होंने मदिरापान कर रखा है "?,गिरिराज ने पूछा....
"तुम इतने भी नासमझ नहीं हो जो ये ना समझ सको कि मदिरापान किये हुए व्यक्ति की क्या दशा होती है क्योंकि इसका आनन्द तो तुम भी हर रात्रि उठाते होगें",महाराज कुशाग्रसेन बोले...
ये सुनकर गिरिराज क्रोध से भर उठा.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....