अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 5 Ratna Pandey द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 5

वैजंती उसके मन में चाहे जो भी सोच रही हो लेकिन सुखिया का इरादा अटल था। मेले में जाने के उत्साह ने उसे और भी अधिक जोश से भर दिया था।

धीरे-धीरे सुखिया ने बहुत सारे बर्तन और मटके आदि बना लिए। वह उन पर रंग भरकर सुंदर चित्रकारी भी करने लगी। यदि माँ सरस्वती का आशीर्वाद लेकर किसी का जन्म होता है और मेहनत करने की चाह होती है तो कला हाथों से निकलकर कलम, पेंसिल या चित्रकारी करने के ब्रश तक अपने आप ही पहुँच जाती है। सुखिया तो जैसे माँ सरस्वती का आशीर्वाद लेकर ही पैदा हुई थी।

मेले का समय नज़दीक आते जा रहा था। सुखिया को रात को सपने में कई बार अपने पिता रामदीन दिखाई देते थे। उसे दिखाई देता था कि कैसे बाबू जी बहुत सारा सामान लेकर मेले में बेचने जाते थे। यही तो उनकी दिवाली होती थी, जब उनके घर में लक्ष्मी माता की प्रसन्नता और हाज़िरी दिखाई देती थी। बस अब उसे भी मेले में जाना था और वहाँ अपनी दुकान लगाना था।

एक रात को सपना देखने के बाद सुबह उठते ही उसने अपनी अम्मा से कहा, “अम्मा अब शहर चलने की तैयारी कर लो, मेले का समय आ गया है।”

“यह क्या कह रही है सुखिया तू? तेरे बाबू जी के बिना हम यह सब नहीं कर सकते, बिटिया।”

“क्यों नहीं कर सकते अम्मा? मैं हूँ ना मैं करूंगी।”

“अरे पगली इतनी भीड़ में कौन तेरी दुकान पर नज़र डालेगा? कौन खरीदेगा तुझसे?”

“क्यों अम्मा क्यों नहीं खरीदेगा कोई? बाबू जी से खरीदते थे तो मुझसे क्यों नहीं? क्या मेरा काम अच्छा नहीं है?”

“नहीं-नहीं सुखिया ऐसी बात नहीं है। तेरे बनाए मिट्टी के बर्तनों में कोई कमी नहीं है बल्कि तेरे बाबू जी से भी अच्छे बनाती है तू। पर मेले में जाकर दुकान लगाना आसान नहीं है।”

“आसान नहीं है ऐसा सोचकर घर बैठने से अच्छा है अम्मा हम कोशिश तो करें। देखते हैं क्या होता है। तुम्हें मेरा साथ देना ही होगा, तुम्हें मेरी कसम।”

सुखिया की ज़िद के सामने वैजंती की एक ना चली और उसे सुखिया की बात मानना ही पड़ा।

वैजंती ने कहा, “तू बहुत जिद्दी है सुखिया, चल जाने की तैयारी करते हैं। वैसे ज़्यादा कुछ फायदा होने वाला नहीं है।”

वैजंती की हाँ सुनकर सुखिया की ख़ुशी सातवें आसमान पर थी। अब उसने और जोर-शोर से तैयारी शुरू कर दी। मेला लगने के एक दिन पहले ही वैजंती और सुखिया अपने साथ बहुत सारे खिलौने, रंग-बिरंगे मटके तथा मिट्टी के बर्तन आदि लेकर मेले के स्थान पर पहुँच गए।

यह मेला कोई छोटा-मोटा मेला नहीं था। इसमें गरीब से लेकर अमीर तक सभी लोग आते थे। हजारों की भीड़ एकत्रित होती थी। चार दिन चलने वाले इस मेले में आकर लोग एक नया जीवन जी लेते थे। कोई तनाव नहीं, खाना पीना, अपनी पसंद की वस्तुएँ खरीदना, मस्ती करना, बच्चों को झूला झूलाना। रोजमर्रा की ज़िन्दगी से बिल्कुल अलग होते थे यह दिन। कहीं जादू का खेल, कहीं कठपुतली का नृत्य, तो कहीं ढोलक मंजीरे पर कुछ लोग गाना गा रहे होते। कहीं रस्सी पर कोई छोटी-सी बच्ची चल रही होती। छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़ी-बड़ी दुकानें लगी रहतीं। जीवन की आपाधापी के बीच एक परिवर्तन लाने के लिए यह मेला बहुत ही अच्छा माध्यम बन गया था।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः