रामदीन और पार्वती बेचैनी से वैजंती के आने का इंतज़ार कर रहे थे। पार्वती सोच रही थी कैसी होगी उसकी होने वाली बहू।
कुछ ही समय में वैजंती अपनी माँ के साथ एक हाथ में मिठाई और कचौरी से भरी प्लेट लेकर वहाँ आई। रामदीन की निगाहें वैजंती के चेहरे पर अटक गईं लेकिन उसकी अम्मा की आँखें वैजंती के चेहरे से होते हुए उसके हाथों पर आकर अटक गईं। वह समझ गईं कि इस लड़की का तो एक हाथ काम नहीं कर रहा है। उनका मन भारी हो गया और वहाँ एक सन्नाटा-सा छा गया।
तभी इस सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज़ आई, “पार्वती बहन यह है हमारी बेटी वैजंती, सुंदर, सुशील, हर काम में निपुण।”
उनकी बात को बीच में ही काटते हुए एक दूसरी आवाज़ आई, “दीनानाथ जी वैजंती का एक हाथ...,” इतना कहकर पार्वती चुप हो गई।
रामदीन भी होश में आया।
तब वैजंती की माँ माया ने दुखी स्वर में कहा, “जी हाँ पार्वती बहन वैजंती का एक हाथ जन्म से ही खराब है लेकिन वह सब कुछ कर लेती है।”
पार्वती अपने बेटे रामदीन की तरफ़ देखने लगी। वह सोच रही थीं कि बस अब अगले ही पल रामदीन उठकर खड़ा हो जाएगा और फिर वह कहेगा मैं यह शादी नहीं कर सकता।
इसी बीच रामदीन की आवाज़ आई। वैजंती शांत खड़ी इसी आवाज़ का इंतज़ार कर रही थी।
रामदीन ने कहा, “काका मुझे यह रिश्ता मंजूर है।”
किसी को भी कुछ पलों तक अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। पार्वती ने अचरज भरी नज़रों से अपने बेटे की ओर देखा।
तब रामदीन ने कहा, “अम्मा प्यार किया है मैंने इस लड़की से और यदि विवाह के बाद ऐसा कोई हादसा हो जाता तो क्या मैं …? माँ मैं इस रिश्ते के लिए सौ प्रतिशत ख़ुशी के साथ तैयार हूँ।”
पार्वती ने उठ कर वैजंती के हाथ में शगुन का नारियल रखते हुए उसकी पेशानी को चूम लिया। वह अपने बेटे के इस निर्णय पर ख़ुश थीं। उसके दस दिनों के अंदर ही उनके घर में शहनाई बजी। दोनों परिवार बहुत अधिक संपन्न नहीं थे लेकिन सीमित साधनों में ख़ुशियों को बटोरना जानते थे। इन्हीं खुशियों के साथ रामदीन और वैजंती का गठबंधन हो गया।
उनका छोटा-सा सुंदर परिवार था। वैजंती अपनी सासु माँ का बहुत ख़्याल रखती थी। पार्वती भी उसे बिल्कुल अपनी बेटी की तरह चाहती थी। अपनी माँ और पत्नी के बीच इस प्यार भरे रिश्ते से रामदीन भी बहुत अधिक ख़ुश रहता था। इन्हीं ख़ुशियों में उस समय चार चाँद लग गए जब वैजंती ने उसके गर्भवती होने की ख़बर सुनाई। उनके छोटे से परिवार में जल्दी ही एक छुटकी भी आ गई और उसका नाम उन्होंने सुखिया रखा।
रामदीन ख़ूब मेहनत करके एक से एक मिट्टी के बर्तन बनाता था। सुखिया उसी के साथ उस मिट्टी में खेलते कूदते बड़ी हो रही थी। जब वह गर्भ में थी तब वैजंती अपने पति को चाक घुमाते हुए देखती तो उसका मन भी करता कि वह भी रामदीन की तरह चाक घुमा सके लेकिन उसके हाथों के कारण यह संभव नहीं हो पाया। यह दर्द हमेशा ही वैजंती को सताता था, रुलाता था। गर्भ में पल रही सुखिया शायद अंदर ही अपनी माँ के आँसुओं को महसूस करती थी। उसके दर्द को समझती थी। सुखिया ने मानो पेट के अंदर से ही अपनी माँ की इस भावना को पहचान लिया था। उसे भी अपने पिता की तरह चाक से बहुत प्यार था। जब से उसने चलना सीखा तब से ही बार-बार चाक के पास जाकर अपने पिता को घंटों निहारा करती थी।
रामदीन कहता, “अरी सुखिया इतनी मगन होकर क्या देखा करती है? यह खिलौने …? चल तू भी ले लेना, जितने चाहिए उतने।”
धीरे-धीरे सुखिया बड़ी होने लगी।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः