ओ मेरी अलबेली Prafulla Kumar Tripathi द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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ओ मेरी अलबेली


भोर में अपनी घड़ी का अलार्म बजते ही शालू आदतन सबसे पहले रेडियो ट्यून कर दिया करती है जो भजन के माध्यम से अध्यात्म तरंगे तो बिखेरता ही है घर के शेष प्राणियों के लिए एलार्म का भी काम करता है।बड़ा बढ़िया तरीका उसने खोज निकाला है सभी को जगाने का !अब विरला ही व्यक्ति होगा जो बिस्तर ना छोड़े। लेकिन शालू की इस आदत ने पहले भी ढेर सारे गुल खिलाये हैं। ख़ास तौर से धर्मेश को तो उसकी यह आदत एकदम उसे चिढ़ाने जैसी लगती थी।लेकिन , उसकी चर्चा ...फिर कभी।

आज उसी रेडियो से किसी महिला कलाकार का गाया जा रहा दादरा साफ़- साफ़ हवा में तैर रहा था...

"ओ मोरा सइयां चला परदेस,अब क्या करूँ मोरे राम.....

लाख जतन करीं एकहू ना मानी,

ओ बेदर्दी सइयां,अब क्या करूँ ..!

हर जफा ,हर सितम गवारा है ,

इतना कह दे कि तू हमारा है।

आलमे रात में ना जाने क्यों,

मैंने अक्सर तुम्हें पुकारा है ....! "

इस दादरा को सुनते हुए शालू को ना जाने क्यों अपने पिया बरबस ही याद आ गए। वह लाख कोशिशें किया करती है कि उसका अतीत उस पर हावी ना होने पाए लेकिन जितना कोशिश होती है उसका दोगुना वह अतीत याद आने लगता है। वह यह भी अच्छी तरह जान रही है कि धर्मेश अब कभी भी उसको ले जाने के लिए वापस नहीं आयेगा फिर भी वह आस लगाए बैठी है। जाने क्यों ?

" मम्मी ,मम्मी ..मेरा टूथ ब्रश किधर है ?"
बाथ रूम से पारो चीख रही थी। किचेन से बाथरूम की ओर भागती शालू के ज़हन में यह बात कौंध उठी कि पारो उर्फ पार्वती ही जब शालू की गोद में आई थी तभी से धर्मेश और उसके बीच की खट- पट शुरू हो गई थी।

"उफ़ ! है तो यहीं बेटा ...तुम देखती नहीं हो और बस चीखने लगती हो ..। "शालू उखड़ते हुए बोली।

यह एक दिन का नहीं रोज़ -रोज़ का किस्सा था। कभी ब्रश नहीं मिलता था तो कभी जिभ्भा या पेस्ट। असल में ठीक सात बजे स्कूल की बस आ खड़ी होती थी और हार्न पर हार्न बजाया करती थी पारो के लिए। हांफते दौड़ते मम्मी -बेटी बस तक भागा करते थे।बस में बिठा कर 'बाय - बाय' करके शालू निश्चिंत होकर घर में आ जाती और फिर से एक कप चाय बना कर सुकून के साथ पीती थी।

रेडियो पर अब कुछ फिल्मी गाने आने लगे थे

"ओ मेरी,ओ मेरी , ओ मेरी शर्मीली ...आओ ना ..."

कप उठाते ही शीलू एक बारगी को ठिठक गई। उसे यूरोप का टूर याद आ गया...।

गाइड बता रहा था " .... यह पहाडी इलाक़ा जंग फ्रोजोक के नाम से जाना जाता है। यहाँ एशिया का सबसे ऊंचा रेलवे स्टेशन है और यहीं से स्विटज़रलैंड की दो ऊंची पहाड़ियां शुरू होती हैं - जंग फ्रू और माउंट मोंच। सफ़ेद बर्फ की चादर से ढंकी पहाड़ की चोटियों तक पहुँचने के लिए रेड काग व्हील ट्रेन की अब हम सवारी करेंगे ...."

और ..और ..कितना डर गई थी, डर कर चिपक सी तो गई थी धर्मेश से शालू, उस समय जब वे दोनों आइस पैलेस में घुसे थे ।बर्फ से बना हुआ आइस पैलेस सुन्दर सुन्दर मूर्तियाँ ..शिल्प कला का अद्भुत नमूना ..."और ....और 'ओ मेरी ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली.'. का हिन्दी गीत वहां कोई बजा रहा था।

चाय ठंडी हो गई थी और अब उसे पीने की इच्छा भी नहीं रह गई थी। ज़िंदगी ने विवाह के सिर्फ पांच साल बाद उसके जीवन में इतनी ढेर सारी कड़वाहटें घोल डाली थीं ..इतनी सारी कि यदि उन्हें शब्द दिया जाय तो पूरा एक शोध ग्रन्थ ही तैयार हो जाएगा।

वह सोचने लगी कि कितनी बेहूदगी से धर्मेश ने उसके बाय फ्रेंड के सामने उसकी बेइज्जती कर दी थी। अरे कौन सी लड़की अपने युवा और यूनिवर्सिटी के जीवन में एकाध बाय फ्रेंड नहीं बनाती है जो वह सुनते ही भन्ना उठा था ? तो क्या उसने गर्ल फ्रेंड नहीं बनाई होगी ? उस दिन सचमुच शालू और भी ज्यादा हतप्रभ हो उठी जब ..जब रात में बिस्तर पर लेटे लेटे धर्मेश ने उससे पूछा था,

" शालू डार्लिंग ! बाई दि वे ...जब तुमने इतने ढेर सारे बाय फ्रेंडस बनाए होंगे तो लगे हाथ यह भी बता दो कि तुमने अपनी वर्जिनिटी जब खोया तो तुम्हारी क्या उम्र थी ?"

शालू का चेहरा तमतमा उठा। वह क्रोध की ज्वाला से धधक उठी। यदि उसके पास कोई आग्नेयास्त्र होता तो वह धर्मेश के सीने को अनगिनत गोलियों से उसी समय छलनी कर देती। लेकिन वह अपना सारा गुस्सा दबाते हुए बोली -
" उसी उम्र में धर्मेश जिस उम्र में तुमने अपना ... आई मीन ... मुझसे पहले किसी और के साथ पहली बार अपना कुमारत्व खोया था।"

यह सुनते ही कैसा तिलमिला गया था धर्मेश और उसने बेड के बगल का साइड लैम्प उठाकर शालू के सिर पर दे मारा था......... बिना यह सोचे कि उससे शालू को कितनी पीड़ा पहुँचेगी।

शालू और धर्मेश के अलग होने की नींव तो सच मानिए उसी रात पड़ चुकी थी और उसमें अब सिर्फ एक औपचारिक घोषणा शेष रह गई थी। उस रात के बाद से धर्मेश ऑफ़िस से देर से आने लगे थे और इधर शालू भी अपने चार महीने के गर्भ से आने वाले बच्चे के प्रति शंकाकुल होती जा रही थी।

उसने एम.ए., बी.एड. कर रखा था और एक अच्छी गृहिणी हाउस वाइफ, बनकर रहने का ख़्वाब पाला था। कुछ दिन तक तो उसे लगा कि उसका निर्णय सही था लेकिन धर्मेश की इस हरकत ने उसे इस बारे में फिर से सोचने के लिए मजबूर कर दिया।

एक दिन पारो जब पेट में चहलकदमी कर रही थी और शालू अपने मोबाइल पर फेसबुक के पन्ने उलट - पलट ही रही थी कि उसके क्लास फेलो रह चुके सौभाग्य वर्मा की प्रोफाइल उसे दिखाई दी।

" सौभाग्य ..? .....अरे वह अब इतना बड़ा आदमी बन गया है ? "बुदबुदाते हुए शालू की उंगलियाँ उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने पर आमादा हो उठीं।

सौभाग्य वर्मा उसके साथ दिल्ली में एम..ए. कर रहा था और वह उस पर बुरी तरह फ़िदा भी रहा करता था।वह अत्यंत ही धनाढ्य घराने से बिलोंग करता था और हमेशा नई नई गाड़ियों से यूनिवर्सिटी आया करता था। बेशक अनेक लड़कियाँ उस पर मरा करती थीं लेकिन वह शालू पर मर मिटने को तैयार था।शालू भी मन ही मन उसे चाहने लगी थी।

अगले ही दिन शालू की फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट हो गई थी और अब शालू और सौभाग्य की चैटिंग शुरु हो गई।

शालू दिन में एक दो बार सौभाग्य से चैटिंग कर ही लिया करती थी। सौभाग्य अब एक इंटरनेशनल ब्रांड के स्कूल का डाइरेक्टर हो गया था।

यह जो मन है वह बड़ा ही शरारती हुआ करता है। भाग -भाग कर बीते हुए दिनों को जीने के लिए मचलता है। जितना संयमित करो उतना ही असंयमित होकर उबाल खाता है। ऐसा शालू या सौभाग्य के साथ ही नहीं हमारे और आपके साथ भी तो होता है !
....समय तेज़ी से भागता चला जा रहा था और शालू के अब नर्सिंग होम जाने की बारी भी आ गई थी। डिलेवरी के लिए उसने अपने मायके दिल्ली ही आना उस तनाव भरे दाम्पत्य जीवन के माहौल में मुफीद समझा था। देर रात में नये साल की सुगबुगाहट के बीच सीजेरियन से बिटिया ने जन्म लिया था। शालू की उम्मीदों पर बुरी तरह पानी फिर गया क्योंकि एक तो बिटिया ने जन्म लिया था और दूसरे धर्मेश उस मौके पर कह कर भी नहीं आये थे।

शालू की मम्मी शालू की डबडबाई आँखों के भाव पढ़ चुकी थीं और उसके गाल को सहलाते हुए मातृत्व भाव से बोले जा रही थीं;

" दाम्पत्य जीवन की शुरुआत में कई लोगों में ऐसा होता रहता है बेटा, तुम विश्वास रखो कि अब इस बिटिया के आ जाने से सब कुछ बदल जाएगा। सब कुछ ! "

उनके " सब कुछ " बोलने का भाव क्या था इसे वह और शालू ही उस समय अच्छी तरह समझ रहे थे।

सातवें दिन डाक्टर ने टांका काट कर शालू और उसकी नवजात कन्या को ढेर सारी हिदायतों के साथ नर्सिंग होम से छुट्टी दे दी। शालू अपने मायके आ गई।

निकासन का दिन आ गया। टोले मुहल्ले वालों ने सोहर गीत गा -गाकर लक्ष्मी के आगमन का स्वागत किया।

"जेहि दिन धिया के जनम भईले

धरती दुखिति भइली, पितृ दुखित भये हो ,

ये हो नींबी काठी जरेले लकडिया

कि सुलुगी सुलुगी रहे हो।

पवलीं उमरिया के बोरसी गोबरवा ,

के करसी पौलो मैं टूटहा झिलिंगवा ..

धीया के जनम भये हो ... "

शालू की हरी भरी गोद का सुख अधूरा था क्योंकि धर्मेश तो नहीं ही आये हाँ , उनके वकील का नोटिस अवश्य आ गया। धर्मेश ने वकील के मार्फ़त आपसी सहमति से तलाक लेने के लिए पत्र भिजवाया था।

उस दिन तो मानो घर में कोहराम मच गया था। भाई बोल उठा -
" ऐसा भला कैसे होगा ...आपसी रजामंदी से तलाक़ ?. बाबू जी असल में ...वे...वे अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं और अब हमेशा - हमेशा के लिए अपनी लाइबिलिटी हम लोगों के सिर पर फेंकना चाहते हैं। "

शालू की माँ बेटे को डॉट रही थीं और धीरे -धीरे बोलने को कह रही थीं और उधर शालू के पापा अपना माथा पकड़ कर बैठ गए थे। उनकी तो समझ में ही कुछ नहीं आ रहा था कि वे क्या और कैसा रि- एक्शन दें !

शालू अपनी गोद में आई ज़िम्मेदारी के लिए आगे की योजनाएं बनाने लगी थी। उसे तो यह अनुमान था ही कि धर्मेश से अब उसकी नहीं ही निभेगी।

शालू ने अपने माँ बाप की इच्छानुसार तलाक की धर्मेश की मांग पर मुक़दमा लड़ने की मन में ठान ली थी। उसे अब और अग्नि परीक्षाओ से होकर नहीं गुजरना था !