कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६५) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६५)

जब धंसिका शान्त हुई तो अचलराज रानी कुमुदिनी से बोला....
"तो माता कुमुदिनी आप तत्पर हैं हम सभी के संग राजमहल चलने हेतु"
"हाँ! पुत्र! मैं तत्पर हूँ",रानी कुमुदिनी बोलीं...
"तो क्या मैं अब आपको मैना रुप में बदल दूँ?",कालवाची ने पूछा....
"हाँ! बदल दो कालवाची!",रानी कुमुदिनी बोलीं....
और कालवाची ने रानी कुमुदिनी को मैना में परिवर्तित कर दिया,उसने और सभी को भी पंक्षी रुप में बदल दिया,इसके पश्चात वत्सला, कालवाची, अचलराज और रानी कुमुदिनी महल की ओर उड़ चले,रात्रि में मैना बनी कुमुदिनी पिंजरें में रही,प्रातःकाल हुई एवं सभी उसी प्रकार व्यवहार करते रहे जैसे कि सदैव करते थे,किन्तु रात्रि का तीसरा पहर बीतते ही सभी के गहरी निंद्रा में डूब जाने के पश्चात,वैशाली बने अचलराज के कक्ष में आकर ,उन सभी का कालवाची ने रुप बदल दिया,किन्तु कालवाची ने वत्सला का रुप नहीं बदला,क्योंकि वत्सला ने कहा था कि वो उनके संग बंदीगृह के भीतर नहीं जाएगी,वो बंदीगृह के बाहर ही रहकर पहरा देगी,तब अचलराज बोला....
"ये उचित नहीं है वत्सला! यदि तुम्हें पहरा ही देना है तो तुम किसी सैंनिक का रुप ले लो,इससे तुम सरलता से पहरा भी दे सकोगी और कोई तुम पर संदेह भी नहीं करेगा",
अचलराज का ये सुझाव सभी को पसंद आया और इसके पश्चात वत्सला को सैंनिक का रुप दे दिया गया,अचलराज बना था महाराज गिरिराज,कालवाची बनी थी सेनापति बालभद्र और रानी कुमुदिनी ने राजकुमार सारन्ध का रुप लिया था और इसके पश्चात सभी ने सावधानीपूर्वक बंदीगृह की ओर प्रस्थान किया,वत्सला बंदीगृह के बाहर ही रुक गई और वें तीनों भीतर पहुँचे तो वहाँ उपस्थित सैंनिक उन तीनों को देखकर आश्चर्यचकित हो गए किन्तु किसी में ये पूछने का साहस ना हुआ कि वें तीनों इतनी रात्रि को बंदीगृह में क्यों आए हैं?,तब महाराज गिरिराज ने एक सैनिक को आदेश दिया कि वें कुशाग्रसेन से भेंट करना चाहते हैं,इसलिए सैनिक ने कारागार के किवाड़ खोल दिए,उस समय कुशाग्रसेन जाग रहे थे,एक अग्निशलाका का प्रकाश उनके कारागार को प्रकाशित कर रहा था एवं वातायन से शीतल बयार उनके कक्ष में आ रही थी, साथ में ही उनके समीप उनके माता पिता धरती पर बिछे बिछौने पर विश्राम कर रहे थे,जैसे ही कुशाग्रसेन ने अपने बंदीगृह में गिरिराज,बालभद्र और सारन्ध को देखा तो आश्चर्यचकित होकर पूछा....
"तुम! इस समय यहाँ क्या करने आए हो"?,
"अपने शत्रु से भेंट करने आया था,तुम्हें इससे कोई आपत्ति है क्या"?,अचलराज बना गिरिराज बोला....
"मुझे भला इससे क्या आपत्ति हो सकती है,मुझे तो ये जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरे शत्रु को मुझसे इतना भय है कि वो मेरे कारण रात्रि को सो नहीं पाता",कुशाग्रसेन बोलें.....
तब सेनापति बालभद्र बनी कालवाची ने किवाड़ के समीप उपस्थित सैनिक को आदेश देते हुए कहा....
"तुम यहाँ क्या कर रहे हो? देख रहे हो ना कि महाराज यहाँ अपने शत्रु से वार्तालाप कर रहे हैं,इसलिए यहाँ तुम्हारी उपस्थिति आवश्यक नहीं है",
इतना सुनकर वो सैनिक वहाँ से चला गया तो सारन्ध बनी कुमुदिनी ने पहले तो महाराज कुशाग्रसेन के चरण स्पर्श किए,इसके पश्चात वो उन से मद्धम स्वर में बोली....
"महाराज! मैं कुमुदिनी! मैं आपके दर्शन करना चाहती थी,इसलिए कालवाची और अचलराज के संग यहाँ आ पहुँची",
"तुम सच में कुमुदिनी हो",महाराज कुशाग्रसेन ने प्रसन्नतापूर्वक पूछा....
"हाँ! महाराज! आज इतने वर्षों के पश्चात आपसे भेंट हो रही है,कैसें हैं आप?",कुमुदिनी ने पूछा...
"तुम मेरी दशा देख तो रही हो प्रिय कुमुदिनी! मुझे तुमसे अपने विषय में कुछ भी कहने की आवश्यकता ही नहीं है",महाराज कुशाग्रसेन बोले....
"हाँ! महाराज! मैं भलीभाँति समझ सकती हूँ कि आपकी क्या दशा होगी",रानी कुमुदिनी बोली...
और तभी उन सभी के वार्तालाप को सुनकर महाराज कुशाग्रसेन के माता पिता भी जाग उठे और वें अपने बिछौंने से उठकर कुशाग्रसेन के समीप आए एवं जब उन्होंने गिरिराज को वहाँ देखा तो कुशाग्रसेन की माता मृगमालती क्रोध से भरकर बोली....
"पापी! तू यहाँ क्या करने आया है? मेरे पुत्र का राजपाठ छीनकर तुझे सन्तोष नहीं हुआ क्या,जो अब रात्रि को यहाँ आ पहुँचा",
तब मृगमालती की बात सुनकर अचलराज बोला....
"तनिक धैर्य धरें दादी माँ! मैं अचलराज हूँ ,ये कालवाची है और ये रानी माँ हैं",
"झूठ बोलता है तू",कुशाग्रसेन के पिता प्रकाशसेन बोले....
"मैं सच कहता हूँ",अचलराज बोला....
तब महाराज कुशाग्रसेन अपने माता पिता से बोले....
"पिताश्री,माताश्री ये सच कह रहा है,ये पहले भी रुप बदलकर मुझसे मिलने आ चुके हैं,मैंने आप दोनों से बताया था ना!,तब आप दोनों दूसरे कक्ष में रहते थे,आप दोनों का स्वास्थ्य ठीक ना होने पर मैने आप दोनों को अपने कक्ष में रखने की इच्छा जताई थी"
"हाँ! याद आया,हाँ तुमने बताया तो था",मृगमालती बोली....
और कुमुदिनी ने अपने सास श्वसुर के भी चरण स्पर्श किए एवं उनसे बोली....
"अब आप सभी अधिक दिनों तक इस कारागार में नहीं रहेगें,हम सभी शीघ्र ही आप सभी को यहाँ से ले जाऐगें"
तब सेनापति बनी कालवाची बोली....
"अब हम सभी को यहाँ से प्रस्थान करना चाहिए,कहीं किसी को कोई संदेह ना हो जाएँ",
तब कुशाग्रसेन अपने माता पिता से बोले....
"ये वही कालवाची है जिसके संग मैंने अन्याय किया था और देखिए यही हमारी सहायता कर रही है",
"आजा पुत्री! मेरे हृदय से लग जा,मुझे और मेरे पुत्र को क्षमा कर दें ,हम सभी ने तुझे बहुत सताया है", कुशाग्रसेन की माता मृगमालती बोलीं....
"नहीं माता! आप मुझसे क्षमा ना माँगें,आपका स्नेह ही मेरे लिए बहुत है,मुझे परिवार के सभी सदस्य तो मिल गए थे परन्तु माता पिता नहीं मिले और आज मेरी ये इच्छा भी पूरी हो गई"
और ऐसा कहकर कालवाची मृगमालती के हृदय से लगकर रो पड़ी...
"रो मत पुत्री! अब से तू स्वयं को अनाथ मत समझ,मैं हूँ ना तेरी माता! जब तक जीवित रहूँगी तो तुझे यूँ ही स्नेह देती रहूँगी", मृगमालती बोली....
"अब आप लोगों का मिलाप पूर्ण हो गया हो तो चलें कालवाची!", गिरिराज बना अचलराज बोला....
इतना सुनते ही कालवाची संतुलित होकर बोली....
"हाँ! महाराज गिरिराज! अब हमें यहाँ से प्रस्थान करना चाहिए",
तब अचलराज महाराज कुशाग्रसेन से मद्धम स्वर में बोला....
"महाराज! अब तनिक शत्रु के रुप में वार्तालाप कीजिए,वो भी दीर्घ स्वर में,ताकि बाहर खड़े सैनिकों को हम पर संदेह ना हो",
और अचलराज के इतना कहते ही कुशाग्रसेन गिरिराज से दीर्घ स्वर में बोले....
"दुष्ट! तूने यहाँ आने का साहस कैसें किया,मुझे तेरी सूरत और आचरण दोनों से ही घृणा है,पापी! तेरे कारण ही मेरी ये दशा है,मेरा परिवार तेरे ही कारण तितरबितर हो गया",
"ऐ...कुशाग्रसेन ! मुझे भी रुचि नहीं है तेरी इस सूरत में,मैं तो बस ये देखने आया था कि पहरेदार ठीक से अपना कार्य कर रहे हैं या नहीं",गिरिराज बना अचलराज बोला...
"तो यहाँ क्यों खड़ा है,अभी इसी समय चला जा यहाँ से"कुशाग्रसेन बोलें....
और इसके पश्चात महाराज कुशाग्रसेन के कहने पर वें तीनों उनके कारागार से बाहर आ गए और गिरिराज बने अचलराज ने वहाँ उपस्थित सैनिकों से कहा....
" इस व्यक्ति का मस्तिष्क संतुलित नहीं है तभी इतना क्रोध करता है ये ,तुम सभी इसका विशेष प्रकार से ध्यान रखना",
और इतना कहकर गिरिराज अपने सैनिक बालभद्र और पुत्र सारन्ध के संग बंदीगृह से बाहर आ गया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....