Kalvachi-Pretni Rahashy - 64 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६४)

जब सारन्ध ने पिंजरे को अपने हाथों में पकड़ा तो उसने मैना बनी धंसिका से वार्तालाप करना प्रारम्भ किया तो मैना बनी धंसिका को इतनी प्रसन्नता हुई कि वो प्रसन्नता के कारण रो पड़ी,अपने पुत्र को इतने वर्षों के पश्चात देखकर उसके हृदय में दबी ममता जाग उठी और उसका जी चाहा कि वो अपने युवा पुत्र को अपने हृदय से लगाकर ये कहे कि......
" मैं ही तुम्हारी जननी हूँ पुत्र!,इतने वर्षों तक तुमसे दूर रहकर मैंने कैसें अपना समय बिताया है ये केवल मैं ही जानती हूँ,तुम्हारे बालपन की स्मृतियों को मैं कभी भी अपने मन से नहीं निकाल पाई"
किन्तु दुर्भाग्यवश धंसिका अपने पुत्र से कुछ भी ना कह सकी,एक तो वो मैना के रुप में थी,उस पर से वो मूक और बधिर भी थी, जिससे जो भी सारन्ध ने उससे वार्तालाप किया वो उसे बिलकुल भी समझ नहीं आया एवं कुछ समय पश्चात कर्बला बनी कालवाची धंसिका को लेकर अपने कक्ष में आ गई और उससे सांकेतिक भाषा में बोली....
"रानी धंसिका! अब तो आप संतुष्ट हैं ना अपने पुत्र से मिलकर"
कर्बला बनी कालवाची की बात सुनकर धंसिका कुछ ना बोल सकी,केवल उसकी आँखें ही अश्रुपूरित होकर सबकुछ कह गईं,कर्बला बनी कालवाची समझ गई कि रानी धंसिका अपने पुत्र के मिलन से अभी संतुष्ट नहीं है,वें उसे अपने हृदय से लगाकर ही संतुष्ट होगीं,इसलिए इसके पश्चात कर्बला ने उनसे कुछ नहीं कहा और रात्रि के होने की प्रतीक्षा करने लगी.....
जब रात्रि हुई तो सभी वैशाली बने अचलराज के कक्ष में उपस्थित हुए और रानी धंसिका को पुनः उनका पूर्व रुप दे दिया गया ,तब सभी के मध्य देवी धंसिका को वापस छोड़कर आने की बात हुई,तब रानी धंसिका ने वापस जाने से मना कर दिया,उन्होंने सांकेतिक भाषा में कहा कि वें अपने पुत्र से मैना के रुप नहीं है मानव रुप में पुनः मिलना चाहतीं हैं,ये सुनकर सभी स्तब्ध रह गए क्योंकि धंसिका यदि मानव रुप में आई तो उन सभी पर संकट आ सकता था,परन्तु एक माता के मन की वेदना को वें सभी अनदेखा भी नहीं कर सकते थे,अचलराज को उन पर अत्यधिक दया आई क्योंकि उसकी माता नहीं थी इसलिए वो उन्हें अपनी माता समान ही समझता था,किन्तु वत्सला इस बात के लिए तत्पर नहीं थीं,सभी उस बात को लेकर एकमत नहीं थे किसी का हृदय कुछ और कहता था और किसी का मस्तिष्क कुछ और,परन्तु अन्त में ये निर्णय लिया गया कि रानी धंसिका को मानव रुप में परिवर्तित करके ही उनकी उनके पुत्र से भेंट करवानी चाहिए.....
और यही किया गया,कर्बला बनी कालवाची रानी धंसिका को लेकर सारन्ध के कक्ष में पहुँची,अपने कक्ष में कर्बला और धंसिका को देखकर सारन्ध ने पूछा....
"नर्तकी कर्बला! ये तुम किसे मेरे कक्ष में लेकर उपस्थित हुई हो"?
"जी! आज जब मैं नगर में भ्रमण कर रही थी,तब मुझे ये वहाँ मिलीं,बेचारी मूक एवं बधिर हैं,इन्होंने वहाँ मुझसे विनती की कि ये राजकुमार के दर्शन करना चाहतीं हैं,तब मुझे इन पर दया आ गई और मैं इन्हें आपके दर्शन करवाने हेतु यहाँ ले आई",कर्बला बनी कालवाची बोली....
"ये तुम क्या कह रही हो कर्बला! मैं तुम्हारे कहने पर किसी से भी भेंट करने हेतु तत्पर हो जाऊँगा,तुम्हें ज्ञात है ना कि मैं इस राज्य का राजकुमार हूँ कोई साधारण व्यक्ति नहीं,जो मैं इस वृद्ध स्त्री की विनती स्वीकार कर लूँ",सारन्ध बोला....
"परन्तु राजकुमार! इसमें आपकी कोई हानि तो नहीं,ये केवल आपको आशीर्वाद देने यहाँ आई हैं",कर्बला बनी कालवाची बोली...
"मैंने कहा ना कि मैं किसी से भेंट नहीं कर सकता,तुम शीघ्र ही इस वृद्ध स्त्री को मेरे कक्ष से लेकर चली जाओ और भविष्य में याद रखना कि तुमसे दोबारा ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए",सारन्ध बोला....
"कृपया! एक बार उनकी ओर देख तो लीजिए",कर्बला बनी कालवाची ने पुनः सारन्ध से विनती की...
"नहीं! तुम इसे अभी इसी समय यहाँ से लेकर जाओ",सारन्ध बोला....
"इतने निष्ठुर ना बनिए राजकुमार!"कर्बला बनी कालवाची बोली....
"मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम दण्डित होना चाहती हो,तभी ऐसा कार्य कर रही हो",सारन्ध बोला....
"यदि आप चाहते हैं कि मैं इन्हें लेकर यहाँ से चली जाऊँ तो मैं ऐसा ही करूँगी राजकुमार! मैं आपके आदेश की अवहेलना नहीं कर सकती",
और ऐसा कहकर कर्बला बनी कालवाची ने धंसिका का हाथ पकड़ा और उसे उसी समय अपने संग अपने कक्ष में ले गई,धंसिका को सारन्ध का शुष्क व्यवहार तो दिखाई दे गया किन्तु उसे पूरी बात समझ नहीं आई थी क्योंकि वो कुछ सुन नहीं सकी थी,तब कर्बला बनी कालवाची ने धंसिका को सांकेतिक भाषा में पूरी बात समझाई और उससे कहा....
"रानी धंसिका! आपका पुत्र आपसे भेंट नहीं करना चाहता,उसके हृदय में दया का भाव ही नहीं है,मैंने ऐसा निष्ठुर प्राणी आज तक नहीं देखा",
ये सुनकर धंसिका की आँखें द्रवित हो उठीं और वो कर्बला बनी कालवाची से सांकेतिक भाषा में बोलीं....
"अब मुझे अपने पुत्र से भेंट करने की आवश्यकता नहीं,मैं उसका व्यवहार देखकर ये अनुमान लगा चुकी हूंँ कि वो अपने पिताश्री की भाँति निष्ठुर और निर्मोही है,इसलिए तुम मुझे पुनः मैना में परिवर्तित कर दो और अब मैं यहाँ से वापस जाना चाहती हूँ",
रानी धंसिका की बात सुनकर कालवाची भी अत्यधिक दुखी हो उठी और उसने विवश होकर धंसिका को पुनः मैना में परिवर्तित कर दिया,रात्रि भर मैना बनी धंसिका अपने पिंजरें में आँसू बहाती रही और दूसरे दिन रात्रि होने पर वें सभी पुनः राजमहल छोड़कर उस स्थान पर पहुँचे जहाँ सभी निवास कर रहे थे......
वहाँ पहुँचकर देवी धंसिका ,रानी कुमुदिनी के हृदय से लगकर बहुत रोई,रानी कुमुदिनी सहित जब सभी को ज्ञात हुआ कि सारन्ध ने धंसिका के संग अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया है तो सभी को अत्यधिक दुख हुआ, तब रानी कुमुदिनी ने देवी धंसिका को सान्त्वना देते हुए सांकेतिक भाषा में कहा.....
"शान्त हो जाइए धंसिका बहन! आपका पुत्र आपके संग रहा होता तो उसका व्यवहार ऐसा ना होता,आप उसके रहतीं तो उसका परिचय सही और गलत से करवातीं,जो उसके पिता ने नहीं करवाया,समय आने पर उसका व्यवहार ठीक हो जाएगा,जब वो आपके सम्पर्क में आएगा ना तो वो दयालु,शीलवान एवं सुन्दर हृदय वाला व्यक्ति बन जाएगा,इसलिए आप चिन्ता ना करें,भविष्य में देखियेगा आपका पुत्र एक दिन स्वयं आपके समक्ष आकर आपसे क्षमा भी माँगेगा और आपको अपने हृदय से भी लगाऐगा",
"आप सच कहतीं हैं",धंसिका ने सांकेतिक भाषा में पूछा....
"हाँ! बिल्कुल सच!
और ऐसा कहकर रानी कुमुदिनी ने धंसिका को अपने हृदय से लगा लिया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....


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