Andhayug aur Naari - 29 books and stories free download online pdf in Hindi

अन्धायुग और नारी--भाग(२९)

फिर वो नीचे उतरकर आई और उसने अपनी जूती पैर में पहनी,मैंने तब उसे नज़दीक से देखा,वो वाकई बहुत ही खूबसूरत थी,धानी रंग का सलवार कमीज,लाल दुपट्टा,लम्बी चोटी,कानों में सोने की बालियाँ,माथे से आती गाल को छूती उसकी लट,कजरारी बड़ी बड़ी आँखें,पतली सी नाक और बिना सुर्खी के लाल गुलाब की पंखुड़ी के समान होंठ,एक पल को उसे देखकर मैं अपनी सुधबुध भूल गया,मैं बेखबर सा उसे निहार रहा था और उसे मेरा यूँ उसको निहारना पसंद नहीं आया तो वो बोली....
"जनाब! कहाँ खो गए"?
"जी! कहीं नहीं",मैंने कहा....
"तो फिर अब आप अपने रास्ते जाइए",वो बोली...
"जी! मैं यहाँ जाने के लिए नहीं आया था",मैंने कहा...
"तो फिर किसलिए आए थे"?,उसने पूछा....
"वो मैं आपको नहीं बता सकता",मैंने कहा....
"क्यों नहीं बता सकते"?,उसने पूछा...
"बस,नहीं बता सकता",मैंने कहा....
"जैसी आपकी मर्जी"
और ऐसा कहकर वो जाने लगी तो मैंने उससे कहा.....
"अपना नाम तो बताती जाइए मोहतरमा!",
"क्यों? आपको मेरा नाम जानने में इतनी दिलचस्पी क्यों हैं"?,उसने पूछा....
"जी! बस यूँ ही",मैंने कहा....
"मैं किसी अन्जान को अपना नाम नहीं बताया करती",वो बोली....
"ठीक है जैसी आपकी मर्जी",मैंने कहा....
"वैसें आप यहाँ क्या कर रहे हैं? इस संस्था में बाहरी मर्दों के आने जाने पर मनाही है तो फिर आप यहाँ कैसें और क्यों आए",उसने पूछा....
"जी! मैं यहाँ किसी के साथ आया हूँ...",मैंने कहा.....
"क्या मैं जान सकती हूँ कि आपको यहाँ क्या काम है",उसने पूछा....
"जी! मैं आपको नहीं बता सकता",मैंने कहा....
"लेकिन क्यों?",उसने पूछा....
"जैसे आप अन्जानों को अपना नाम नहीं बताया करतीं तो मैं भी अन्जानों को सबकुछ नहीं बताया करता",मैंने कहा....
"ओह...तो ये बात है",वो बोली....
"हाँ! यही बात है",मैंने कहा....
"मेरा नाम भ्रमरदासी है",वो बोली....
"तभी....यूँ पेड़ो पर भ्रमर की तरह उड़ती फिरती हैं आप",मैंने कहा....
"और आपकी तारीफ़",उसने पूछा....
"जी! जितनी की जाए उतनी कम है",मैंने कहा....
"मतलब आपका परिचय क्या है"?,उसने पूछा...
"जी! नाचीज़ को त्रिलोकनाथ त्रिपाठी कहते हैं",मैंने कहा....
"ओ..माँ! तो ब्राह्मण देवता हैं आप!",वो बोली....
"ये सब जाति धर्म तो इन्सानों के बनाएँ हुए नियम हैं,ऊपरवाले ने तो हम सभी को केवल इन्सान बनाकर भेजा है", मैंने कहा....
"ये तो आपकी महानता है और समझ है",वो बोली....
"ये तो आपकी महानता है जो आपकी नजरों ने मुझे ऐसा समझा",मैंने कहा....
"अच्छाई तो देखने वाले की नज़र में होती है",वो बोली....
"अच्छा जी! बड़ी समझदार हैं आप!,मैंने कहा....
फिर वो मेरी बात सुनकर शरमाई और बोली....
"अच्छा! अब मैं जाती हूँ,अगर माँ को पता चल गया कि पढ़ाई के डर से मैं जी चुराकर यहाँ भाग आई हूँ तो मेरे पीछे डण्डा लेकर पड़ जाएगी"
"ठीक है तो आप जाइए",मैंने उससे कहा....
और वो वहाँ से चली गई,फिर कुछ देर बाद मैं भी मिसेज मार्गरिटा के कहने पर कक्षा में अंग्रेजी पढ़ाने पहुँचा और वहाँ सबसे आगे ही भ्रमर बैठी थी,मुझे देखकर पहले तो उसने मुझे बुरी तरह से घूरा और फिर आँखें नीची करके अपनी किताब की ओर देखने लगी और मैं पढ़ाने लगा....
मैं जब तक वहाँ पढ़ाता रहा तो भ्रमर मुँह बनाकर ही बैठी रही और संस्था में मेरे पढ़ाने का सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि मिसेज थाँमस स्वस्थ ना हो गई,उसी दौरान मुझे भ्रमर अच्छी लगने लगी और जिस दिन संस्था में मेरे पढ़ाने का आखिरी दिन था तो उस दिन मैंने भ्रमर से बात करनी चाही लेकिन उसने मुझसे बात करने से मना कर दिया,मैं उसके मना करने पर बहुत दुखी हुआ और फिर मैंने उससे बात करने का इरादा छोड़ दिया.....
और फिर एक दिन उसने मिसेज थाँमस से मेरे लिए एक ख़त भिजवाया जिसमें लिखा था कि वो मुझसे बात करना चाहती,लेकिन मैंने मिसेज थाँमस से कहा कि मैं उससे नहीं मिलना चाहता और आप उसे ये ख़त वापस लौटा दीजिएगा,तब मिसेज थाँमस मुझसे बोलीं....
"त्रिलोक! तुम किसी की मजबूरी जाने बिना कैसें उसके बारें में कोई राय बना सकते हो,हो सकता है कि वो ऐसी ना हो जैसा कि तुम सोच रहे हो"
"लेकिन आप यकीन के साथ ऐसा कैसें कह सकतीं हैं कि जैसा मैं उसके बारें में सोच रहा हूँ वो वैसी नहीं है",मैंने मिसेज थाँमस से कहा....
"क्योंकि मैं उसके बारें में बहुत कुछ जानती हूँ,जो तुम नहीं जानते",वें बोलीं....
"मुझे उसके बारें में कुछ जानना भी नहीं है,",मैंने कहा....
"लेकिन वो तुमसे बात करना चाहती है",वें बोलीं....
"लेकिन मैं अब उससे कोई भी बात नहीं करना चाहता",मैंने कहा....
"बिना कारण जाने यूँ किसी का दिल नहीं दुखाते त्रिलोक!",वें बोलीं....
"और जो उसने मेरा दिल दुखाया तो उसका क्या?",मैं बोला....
"उसके पीछे भी कोई वजह रही होगी",वें बोली....
"तो वो वजह आप ही मुझे बता दीजिए",मैंने कहा.....
"तुम एक बार उससे मिल लोगे तो तुम्हें अपनेआप ही वजह पता चल जाएगी",वें बोली....
"आप मुझे उससे मिलने के लिए मजबूर मत कीजिए",मैंने कहा....
"वो तुमसे माँफी माँगना चाहती है इसलिए शायद तुमसे मिलना चाहती है",वें बोलीं....
"आप इतना कह ही रहीं हैं तो मैं उससे मिलने चला जाऊँगा",मैंने उनसे कहा....
और फिर मैं मिसेज थाँमस के कहने पर भ्रमरदासी से मिलने संस्था पहुँचा,मैं और वो बगीचे में मिले और वो मुझसे बोली....
"त्रिलोक बाबू! मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ",
"इसमें शर्मिन्दा होने वाली कोई बात नहीं है भ्रमर! जब तुम्हारा जी मुझसे बात करने को नहीं चाहता तो फिर बात को आगें बढ़ाने का कोई फायदा नहीं",मैंने उससे कहा....
"ऐसा नहीं है त्रिलोक बाबू! मेरी कोई मजबूरी है इसलिए मैं आपसे बात नहीं करना चाहती थी",वो बोली....
"ठीक है तो अब मैं चलूँ",मैंने कहा....
"आप मेरी मजबूरी नहीं पूछेगें",वो बोली....
"नहीं! अब मुझे आपसे बात करने में और आपकी मजबूरी जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है",
और ऐसा कहकर मैं वापस आ गया,फिर दूसरे दिन जब मिसेज थाँमस ने मुझसे बात की तो वें बोलीं....
"तुमने भ्रमर की बात क्यों नहीं सुनी"?
"जी! मुझे अब उसमें कोई दिलचस्पी नहीं",मैंने कहा...
"लेकिन क्यों",उन्होंने पूछा....
"जी! अब मैं उसे समझ चुका हूँ",मैंने कहा....
"तुम उसे बिलकुल नहीं समझे",वें बोलीं....
"वो भला कैसें",मैंने पूछा....
"क्योंकि उसकी माँ एक तवायफ़ थी इसलिए वो नहीं चाहती थी कि तुम उससे सम्पर्क रखो",वें बोलीं....
"लेकिन उसने मुझे ये सब नहीं बताया",मैंने कहा....
"तुमने उसे मौका ही कहाँ दिया"?,वें बोलीं...
"ओह....ये तो मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई",मैंने कहा....
"तो अब तुम्हें अपनी गलती सुधारनी चाहिए",वें बोलीं...
"मैं आज ही उससे मिलने जाऊँगा",मैंने कहा....
"लेकिन उससे मिलने से पहले तुम्हें उसके बारें में सब पता होना चाहिए",वें बोलीं....
"अब मैं उसी के मुँह से उसकी बातें सुनना चाहूँगा"मैंने कहा.....
"लेकिन वो तो मुझसे कह रही थी कि मैं तुम्हें उसके बारें में सब सच सच बता दूँ",मिसेज थाँमस बोलीं....
"वो क्यों भला"?,मैंने पूछा....
"ताकि फिर तुम उससे खुले मन से मिल पाओ,दिखावे के लिए नहीं",उन्होंने कहा....
"तो फिर आप ही मुझे उसके बारें में सबकुछ सच सच बता दीजिए",मैंने उनसे कहा....
तब वें मुझसे बोलीं....
मेरी संस्था में कई रोगिणी वेश्याएंँ और तवायफ़े हैं और ऐसी ही एक रोगिणी तवायफ़ संस्था में रह रही थी,जिसका नाम चाँदतारा बाई था,वो अपने जमाने की एक मशहूर तवायफ़ थी,उसके जानने वाले कहते थे कि जब वो जवान थी तो इतनी खूबसूरत थी कि उसे देखने वालों की आँखेँ चौंधिया जातीं थीं,जब वो नाचती थी तो ऐसे लगता था मानो दामिनी कड़क रही हों,उसका नाच केवल नाच नहीं था,उसका बदन नदी की भाँति हिलोरे लेता था,उसके नाचने के साथ उसके बदन का एक एक कटाव थिरकता था,चेहरे की भाव भंगिमाओं का तो कहना ही क्या? लेकिन उसके कद्रदान तब तक उसके साथ रहे जब तक कि वो जवान थी,उसकी उम्र होते ही उससे सबने किनारा कर लिया......

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....


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