सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 9 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 9

रामेश्वर भट्ट का पश्चात्ताप

इधर तुकाराम महाराज विट्ठल भगवान् के सामने धरना देकर प्राण देने का संकल्प करके पड़े थे, उधर बाघोली में उनको कष्ट देने वाले रामेश्वर भट्ट पर आकस्मिक संकट आ गया। वह अपने निवास स्थान से कुछ मील दूर ‘रामनाथ’ के दर्शनों को जा रहा था। रास्ते में 'अनगढ़ सिद्ध' नामक औलिया फकीर का स्थान था, जिसमें एक बावड़ी बनी हुई थी। रामेश्वर भट्ट ने जैसे ही इस बावड़ी में स्नान किया, उसके शरीर में भयंकर खुजली और जलन-सी होने लगी। किसी ने कहा– “यह 'औलिया' का कोप है.” और किसी ने कहा, “यह तुकाराम से द्वेष करने का परिणाम है।” खुजली को मिटाने के लिये बहुत-सी औषधियाँ की गई, पर किसी से कुछ लाभ न हुआ। जब कोई उपाय कारगर न हुआ तो वह ज्ञानेश्वर महाराज की शरण लेने के लिये 'आणंदी' चला गया।

देहू में तुकाराम अन्न-जल त्यागकर विट्ठल भगवान् के सामने पड़े थे। तेरह दिन में उनकी दशा बहुत खराब हो गई। तुकाराम जी को स्वप्न आया कि तुम्हारी पोथियाँ नदी के समीप सुरक्षित पड़ी हैं, जाकर ले आओ। उस समय तुकाराम मरणासन्न लगते थे, श्वास मंद चलने लगी थी, हिलना-डुलना बंद था। यह देखकर कुटिल व्यक्ति विचार कर रहे थे कि ‘बस, अब इनका खेल खत्म हो चला।’ पर भक्तों को उनके मुख पर एक अपूर्व तेज दिखाई पड़ रहा था और नाम-स्मरण की मंद ध्वनि आ रही थी। स्वप्न का हाल सुनकर भक्तगण प्रसन्न हो उठे और 'राम कृष्ण हरि' का जयघोष करते हुए पोथियों को नदी में से उठा लाये । हरिकीर्तन का प्रभाव देखकर जनता को पूरा विश्वास हो गया और तुकाराम भी चैतन्य होकर बैठ गये।

इसी समय रामेश्वर भट्ट आणंदी में ज्ञानेश्वर महाराज के मंदिर में बैठा अपने कष्ट निवारण की प्रार्थना कर रहा था। उसको भी ध्यान में श्री ज्ञानेश्वर यह कहते प्रतीत हुए कि “तुमने महा वैष्णव तुकाराम के साथ झूठ-मूठ शत्रुता की है, इससे तुम्हारा पुण्य नष्ट हो गया है और यह व्याधि उत्पन्न हो गई है। अब तुम तुकाराम की ही शरण में जाओ। इससे तुम इस शारीरिक रोग से ही नहीं वरन् भव-रोग से भी छुटकारा पा जाओगे।” ज्ञानेश्वर महाराज का आदेश सुनकर रामेश्वर को अपनी करनी पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उसने एक विनयपूर्ण पत्र लिखकर तुकाराम जी से अपने दोष की क्षमा माँगी। उसके उत्तर में तुकाराम महाराज ने यह 'अभंग' लिखकर भेज दिया–
चित्त शुद्ध तरी शत्रु मित्र होती, व्याघ्र हेन खातो सर्प तया ।
विष तें अमृत, आघात तै हित, अकर्तव्य नीत होय न्यासी।
दुःख तें दहेज सर्व सुख फल, होतील शीतल अग्नि ज्वाला।
आ वलेल जीवां जीवाचियं परी, सकला अंतरी एक भाव ।
तुका मणे कृपा केली नारायण, जाणितेतें येरयें अनुभव ।

अर्थात्– “अपना चित्त शुद्ध हो तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। सिंह और सर्प भी अपने हिंसक स्वभाव को भूल जाते हैं, विष अमृत हो जाता है, आघात कल्याणकारी सिद्ध होने लगता है, दूसरों का दुर्व्यवहार अपने लिए नीति की शिक्षा वाला बन जाता है। दुःख, सुख के रूप में बदल जाता है और अग्नि की ज्वाला शीतल हो जाती है। जिसका चित्त शुद्ध है, उसे सब जीव प्रेम करते हैं। तुका कहता हैं कि मेरे अनुभव में यही आता है कि नारायण ने ही इस आपत्ति काल में मेरे ऊपर कृपा की।”

कहना न होगा कि तुकाराम जी की सहनशीलता और सज्जनता का रामेश्वर के ऊपर विलक्षण प्रभाव पड़ा और वह अपने पांडित्य का अभिमान त्यागकर उनका शिष्य बन गया। उस अजातशत्रु महात्मा ने भी उसे हृदय से क्षमा करके स्वीकार कर लिया। तुकाराम और उनके भागवत-धर्म का विरोध करने को कमर कसने वाला रामेश्वर भट्ट उनका पक्का अनुयायी और सहकारी बनकर जीवनपर्यंत इन्हीं के उपदेशों और सिद्धांतों का प्रचार करता रहा।