अन्धायुग और नारी--भाग(२५) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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अन्धायुग और नारी--भाग(२५)

कुछ ही देर में वें वहाँ आई जहाँ मैं बैठा था,मैंने उन्हें देखा तो देखता ही रह गया,वें एक अधेड़ उम्र की महिला थीं,उन्होंने सफेद लिबास पहन रखा था,जिसे उनकी जुबान में शायद गरारा कहते थे,सिर और काँधों पर सफेद दुपट्टा ,खिचड़ी लेकिन घने और लम्बे बाल,चेहरे पर नूर और आँखों की चमक अभी भी वैसी ही बरकरार थी जैसी कभी उनकी जवानी के दिनों में रही होगी,गहनों के नाम पर उनके कानों में सोने के छोटे छोटे बूँदें,नाक में हीरे की छोटी सी लौंग,गले में सोने की हलकी चेन और दोनों कलाइयों में सोने का एक एक कंगन था,उनका सफेद लिबास ये दर्शा रहा था कि वें मन की सच्ची और सारी दुनिया से एकदम जुदा थीं,मेरी नज़र उन पर ठहरी तो जैसे ठहरकर ही रह गई ,लेकिन फिर मैंने अपनी निगाहें ये सोचकर झुका लीं कि कहीं वो मुझे गलत ना समझ बैठें,इसके बाद वें मेरे पास आकर मुझसे बोलीं....
"जी! फरमाइए! आप किस सिलसिले हमसे मिलना चाहते थे"
"जी! मुझे कमरा चाहिए था किराए पर",मैं बोला...
"जी! आपका नाम",उन्होंने पूछा...
"जी! सत्यव्रत सिंह",मैंने कहा....
"मालूम होता है कि आपको किसी ने बताया नहीं कि हम मुस्लिम हैं,नहीं तो आप यहाँ ना आते",वें बोलीं...
"जी! मुझे मालूम था",मैं बोला...
"तब भी आप हमारे यहाँ कमरें की तलाश में चले आएँ",उन्होंने हैरत से कहा...
"जी! मुझे इन सब चींजो से फर्क नहीं पड़ता,मैं केवल इन्सानियत को मानता हूँ",मैंने कहा...
"लेकिन आपके वालिदैन! अगर उन्हें पता चल गया तो",वें बोलीं....
"जी! वही तो रोना है कि मुझसे बड़ा मेरे घर में और कोई नहीं है, अब मैं ही घर में सबसे बड़ा हूँ और मेरी दो छोटी बहनें हैं जिनकी शादी हो चुकी है",मैंने कहा....
"ओह...माँफ़ कीजिएगा,हमने आपके जख्मों को कुरेद दिया"वें बोलीं....
"इसमें माँफ़ी की क्या बात है,अब तो मुझे इन सबकी आदत सी हो गई है",मैंने कहा...
"आप इस शहर में तालीम हासिल करने आए हैं या यहाँ कोई नौकरी करते हैं",उन्होंने पूछा....
"जी! तालीम हासिल करने आया हूँ,काँलेज में दाखिला तो मिल गया है और अब रहने का ठिकाना ढ़ूढ़ रहा हूँ",मैंने कहा....
"आप इस बात की बिलकुल भी फ़िक्र ना करें,हमारी हवेली में बहुत से कमरें खालीं हैं,आपको जो भी पसंद आएँ तो आप उसमें रह सकते हैं",वें बोलीं....
"जी! बहुत बहुत शुक्रिया"मैंने कहा....
"आपका सामान कहाँ हैं"?,उन्होंने पूछा....
"जी! अभी तो काँलेज के हाँस्टल के स्टोर रुम में रखवा दिया था,सोचा था मुनासिब ठिकाना मिलते ही वहाँ से उठा लूँगा",मैंने कहा....
"अभी तो शाम हो चुकी है,हाँस्टल में कहाँ जाते फिरेगें,आप भीतर आकर जुम्मन मियाँ को अपना पता ठिकाना लिखवाकर,कुछ पेशगी देकर आप कमरें में रहने के लिए जा सकते हैं",वें बोलीं....
"जी! मुझे जुम्मन मियाँ कहाँ मिलेगें?",मैंने पूछा....
"वें यहाँ के मैनेजर हैं और ये सब काम वही देखते हैं,आप यहाँ से सीढ़ियाँ चढ़कर पहली मंजिल में चले जाइए,पहले कमरें में ही उनका दफ्तर है",वें बोलीं....
"जी! इस रहनुमाई का बहुत बहुत शुक्रिया!", मैंने उनसे कहा...
"इसमें शुक्रिया कैसा जनाब! आप हमारे मेहमान हैं और आपकी मदद करना हमारा फर्ज है",वें बोलीं....
"एक बात पूछूँ",मैं ने उनसे कहा...
"जी! फरमाइए",वें बोलीं....
"आप तो इतनी दरियादिल हैं तो फिर आपके बारें में लोग ये क्यों कहते हैं कि आपका मिज़ाज़ जरा सख्त हैं",मैंने कहा....
इस पर वें हँसी और फिर मुझसे बोलीं...
"सत्यव्रत मियाँ! ये दुनिया ऐसी ही हैं,इसलिए हम किसी की परवाह नहीं करते",उन्होंने कहा....
सत्यव्रत के साथ मियाँ लगाना मुझे कुछ अजीब सा लगा लेकिन फिर भी मैंने हज़म कर लिया,भला पहली मुलाकात में मैं उन्हें टोक देता तो पता नहीं वें मेरे बारें में क्या सोचतीं,इसलिए यही सब सोचकर उस वक्त मैं ने उनसे कुछ नहीं कहा और चुपचाप उनके बताए हुए रास्ते पर जाने लगा,मैं ऊपर जाने के लिए अभी एक दो सीढ़ियाँ ही चढ़ा था कि वें बोलीं.....
"अगर कमरा पसंद आ जाएँ तो आप आज से इसी वक्त से ही यहाँ रह सकते हैं",
"जी! बहुत अच्छा!",मैंने कहा....
मैं फिर से सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो वें कुछ सोचकर बोलीं....
"जी! आप गोश्त वगैरह नोश़ फरमाते हैं या नहीं",
"जी! मैं ये सब नहीं खाता,मेरी चाची की रसोई में हमेशा शुद्ध शाकाहारी भोजन ही पकता था,इसलिए मुझे हमेशा से शाकाहारी भोजन खाने की आदत है",मैंने कहा....
"तो फिर मुझे आपके लिए हिन्दू खानसामा रखना होगा,क्योंकि हमारा खानसामा तो गोश्त वगैरह ही पकाता है और जितने भी लड़के यहाँ रहते हैं वें भी गोश्त वगैरह खाते हैं,इसलिए उन्हें यहाँ रहने पर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन आप ये सब नहीं खाते तो आपको तो दिक्कत होगी",वें बोलीं....
"इसकी कोई जरूरत नहीं है मोहतरमा! आप मेरा भोजन अपनी रसोई में पकवा सकतीं हैं,बस वो शाकाहारी होना चाहिए,मेरे दादाजी और चाचाजी भी माँसाहारी थे,इसलिए मुझे इससे कोई दिक्कत ना होगी",मैं उनसे बोला....
"ओह...तब ठीक है! हाँ!एक बात और",वें बोलीं...
"जी!कहें!",मैंने कहा....
"आपको कमरा पसंद आए या ना आएं,तब भी आप हमारे यहाँ से एक प्याली चाय जरूर पीकर जाइएगा,हमें अच्छा लगेगा", वें बोलीं....
"जी! जरुर!",मैंने कहा....
और इतना कहकर वें चलीं गई,फिर मैं ऊपर उस कमरें में पहुँचा,जहाँ जुम्मन मियाँ मोटा सा ऐनक लगाकर कुछ जरूरी कागजात देख रहे थे,दरवाजा खुला था इसलिए मैंने दरवाजे के बाहर से पूछा...
"क्या मैं भीतर आ सकता हूँ"?
जुम्मन मियाँ जो कि कोई कागजात देख रहें थे ,उन कागजातों से उन्होंने अपनी नजरें हटाईं और मेरी तरफ देखकर बोलें....
"आइए...आइए...बखुर्दार!,कहिए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ",?
"जी! कमरा चाहिए था किराए पर",मैं जुम्मन मियाँ से बोला....
"मिल जाएगा बरखुर्दार! और बताएँ क्या मददद चाहिए"? जुम्मन मियाँ ने पूछा...
"जी! बस इतना ही",मैंने कहा....
"आपकी मुलाक़ात बहूबेग़म से हुई या नहीं",जुम्मन मियाँ ने पूछा...
"जी! उन्हीं से मिलकर आ रहा हूँ",मैंने कहा...
"तब तो बहुत बढ़िया हुआ,आप मुझे अपना पता ठिकाना नोट करा दें और कुछ पेशगी देदें,इसके बाद मैं आपको कमरा दिखा दूँ",जुम्मन मियाँ बोलें....
और फिर मैंने जुम्मन मियाँ के कहने के मुताबिक़ उन्हें अपना नाम पता नोट कराया और कुछ रुपये पेशगी के रुप में दे दिए,फिर उन्होंने मुझे मेरा कमरा दिखाया,कमरा बहुत ही अच्छा था,उतने कम किराएँ में मुझे कहीं भी शहर में इससे अच्छा कमरा नहीं मिल सकता था,मेरे कमरें की खिड़की बगीचें की ओर खुलती थी,उसमें बिजली का पंखा और बिजली का बल्ब भी था,एक बिस्तर था जिसमें गद्दा और ओढ़ने का चादर भी था,पढ़ने के लिए टेबल कुर्सी भी थी,साथ में स्नानघर भी था,बस मुझे और क्या चाहिए था,मैंने उस कमरें में रहने के लिए फौरन हामी भर दी,जुम्मन मियाँ मेरी हाँ सुनकर मुस्कुराते हुए चले गए.....
इसके बाद मेरे कमरें में एक खातून चाय और समोसे लेकर हाजिर हुईं और मुझसे बोलीं....
"बहूबेग़म ने आपके लिए चाय भिजवाई है",
और ऐसा कहकर वो चली गई,फिर मैं मज़े से चाय पीने लगा,चाय पीकर मैं बिस्तर पर जाकर लेट गया और मेरी आँख लग गई...
कमरे के दरवाजे यूँ ही खुले थे और मैं बेखबर सा सो रहा था,तभी मुझे किसी ने आकर जगाया और बोलीं....
"चलिए! सत्यव्रत मियाँ! रात का खाना तैयार है"
मैं आँखें मलते हुए उठा देखा तो वें बहूबेग़म थीं और मैं उनसे बोला...
"माँफ कीजिए! ना जाने कब मेरी आँख लग गई,मुझे कुछ पता ही नहीं चला",
"कोई बात नहीं ,देखिए रात के आठ बज चुके हैं सब लोग नीचे डाइनिंग हाँल में खाना खाने जा चुके हैं,आप भी जाइए",वें बोलीं....
"ठीक है! आप चले,मैं अभी मुँह धोकर आता हूँ"
फिर वें नीचे चलीं गईं और मैं इधर स्नानघर में हाथ मुँह धोने लगा...

क्रमशः....
सरोज वर्मा....