गरदन पर हँसिऐ का वार होते ही चाचाजी धरती पर गिरकर तड़पने लगे और चाची के सामने अपने दोनों हाथ जोड़ते ही वें बेजान हो गए,उन्होंने अपने आखिरी वक्त में चाची से माँफी माँगी,उनका शरीर अब शिथिल पड़ चुका था,चाची पत्थर बनी उनके पास बैठीं थी, उनकी आँखों में ना उनके लिए आँसू थे और ना ही मन में कोई पछतावा,वें बस उन्हें एकटक देखें जा रहीं थीं जैसे कि कह रहीं हों कि तुम ऐसा अपराध ना करते तो मैं तुम्हारी जान ना लेती,मैं अब उनके पास पहुँच चुका था और वहाँ का नजारा देखकर मेरा दिल दहल गया......
चाचा जी का खून से लथपथ धूल से धुसरित शरीर और चाची का चण्डी रुप देखकर ऐसा लग रहा था कि यूँ ही नहीं नारी को चण्डी कहा जाता,अगर नारी खुद पर आ जाएं तो सच में वो विकराल चण्डी रुप धर सकती है ,चाची ने आज वही रुप धरकर चाचा का संहार किया था,अब समाज इसे तो गलत ही समझेगा कि एक नारी कैसें अपने पति की हत्या कर सकती है,कैसें खुद अपनी माँग का सिन्दूर मिटा सकती है,ऐसी नारी तो समाज के लिए कलंक है.....
लेकिन उस पुरुष का क्या जो बिना किसी कारण एक साथ बेरहमी से तीन तीन लोगों की हत्या कर दें,ऐसे पुरुष को आप क्या कहेगें और ये समाज क्या नाम देना चाहेगा उस पुरुष को,क्या ऐसा पुरुष समाज के लिए घातक नहीं था,क्या वो समाज में विष नहीं फैला रहा था,केवल अपने अहम के लिए उसने तीन निर्दोषों की जान ले ली,लेकिन नहीं ऐसे पुरुष पर ये समाज ऊँगली नहीं उठाता,क्योंकि पुरुषों को समाज ने ऐसे अधिकार दे रखें हैं कि वें कुछ भी कर सकते हैं,ये तो सदियों से होता आया है और यही सदियों तक होता रहेगा.....
कलंकिनी तो केवल नारी होती है,उसके हाथों एक अपराध हो जाए तो फिर देखो ये समाज उसे कैसीं कैसीं उपाधियाँ देता है,कैसें उसकी आत्मा को छलनी करता है,कैसें उसकी इज्जत पल भर में जार जार कर देता है,फिर चाहे जीवन में उसने कोई भी अपराध ना किया हो लेकिन उसके हाथों किया गया पहला और आखिरी अपराध उसको यही समाज धरती पर ही नरक दिखा देता है.....
तो समाज ने यहाँ भी यही किया,चाची को उनके इस अपराध के लिए बहुत धिक्कारा गया,पुलिस आई और उन्हें पकड़कर ले गई,उन पर मुकदमा चला,दादी ने तो उनके खिलाफ़ गवाही नहीं दी लेकिन दादाजी ने उनके खिलाफ गवाही दे दी,जो मुझसे पूछा गया तो मैनें भी पुलिस को सब सच सच बता दिया,चाची को चाचा के खून के जुर्म में अँग्रेजी सरकार ने उम्रकैद की सजा सुनाई,इस बात से दादी इतनी रोई कि अब वें बिमार रहने लगी,दादाजी भी अब सुधर गए थे,उन्होंने अब अपना सारा ध्यान घर पर ही लगा रखा था और जब दादी बिस्तर पर अपनी आखिरी साँसें ले रहीं थीं तो दादा जी ने उनसे माँफी माँगते हुए कहा....
"मुझे माँफ कर दो सत्या की दादी! तुम्हारी इस हालत का मैं ही जिम्मेदार हूँ",
"ऐसा ना कहो जी! ये तो ऊपरवाले की मर्जी है",दादी लरझती आवाज़ में बोलीं....
तब दादा जी बोले.....
"ये सब मेरी वजह से हुआ है,मेरा बड़ा बेटा हीरा था,उसके साथ मैने दुर्व्यवहार किया तो वो मुझे छोड़कर चला गया ,मैने सोचा था कि छोटे बेटे को मैं अपनी तरह अय्याश बनाऊँगा तो देखो उसका मुझे क्या नतीजा मिला,मैंने कभी तुम्हारी बात नहीं मानी,तुम्हारे बताए रास्ते पर चला होता तो आज हमारे घर का ये हाल ना होता,ये मेरे कुकर्मों की सजा मिली है मुझे कि मेरी आँखों के सामने ही मेरे दोनों जवान बेटे चले गए,ये सब मेरा किया कराया है"
"अब जो हो गया उसके लिए रोने का क्या फायदा है जी! जो बचा है अब उसे समेटो,अब तुम बदल गए हो तो मैं भी चैन से मर सकती हूँ,छाया,माया और सत्या का ख्याल रखना",
और ये दादी के आखिरी वाक्य थे,उन्हें अब तसल्ली हो चुकी थी कि दादा जी अब सुधर चुके हैं,इसलिए उन्होंने अब अपने प्राण त्याग दिए,उन्हें अपने बेटे की बेवक्त मौत का ग़म था और सबसे बड़ी बात उनकी बहू खून के जुर्म में जेल पहुँच गई थी,ये सब बातों ने उनके मन को इतना कचोटा था कि वें अब और नहीं जीना चाहती थीं,इसलिए वें संसार को त्यागकर चली गई और उधर चाची भी ग़म में डूब गई थी इसलिए उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया था और कुछ ही महीनों में तपैदिक के कारण उनकी भी जेल में मौत हो गई,अब उस हवेली में मैं,दादाजी,छाया और माया ही बचे थे...
दादाजी हम तीनों बच्चों के साथ सात आठ साल तक रहें,छाया जब अठारह साल की हो गई तो दादा जी ने उसकी शादी कर दी,छाया को घर और वर दोनों ही अच्छे मिले थे,वो सुखपूर्वक अपने घर में रह रही थी और छाया की फूफेरी सास ने माया को अपने बेटे के लिए पसंद कर लिया था तो छाया की शादी के एक दो साल बाद ही माया की भी शादी हो गई और वो भी अपने ससुराल चली गई,छाया और माया अब ब्याह गई थीं दादा जी के पास अब और कोई जिम्मेदारी नहीं बची थी,उन्हें अब वो हवेली काटने को दौड़ती थी और इसी अकेलेपन की वजह से उनकी तबियत खराब रहने लगी और कुछ ही दिनों में वें भी अकेलेपन के कारण चल बसे,अब मैं उस हवेली में बिलकुल अकेला रह गया था,मैं बाहरवीं पास करके कब से घर पर ही बैठा था ,इसलिए अब मैंने अपनी पढ़ाई आगें जारी रखने की सोची और फिर मैं हवेली छोड़कर शहर चला आया और वहाँ रहने के लिए मुनासिब घर ढूढ़ने लगा और इसी दौरान मेरी मुलाकात मर्सिया से हुई थी....
मुझे किसी ने बताया कि तुम्हें उस हवेली में कमरा मिल सकता है,वहाँ एक बेवा औरत रहती है जिसका नाम मर्सिया है,उसने कहा कि उसकी वीरान हवेली में तुम्हें जरूर पनाह मिल जाएगी,वैसें तो वो बहुत अच्छी है लेकिन गुस्सा बहुत करती है ,फिर भी तुम देख लो भाई क्योंकि वो मुस्लिम है और तुम हिन्दू,तुम्हारा मन करें उनके यहाँ रहने को तभी वहाँ जाना,उनके यहाँ तुम्हारे अलावा और भी छात्र रहते हैं,उनकी वो दिल से खातिरदारी करतीं हैं,उनके मरहूम शौहर नवाब शाहबहादुर जंग थे,जो उनके लिए बेहिसाब दौलत छोड़कर गए हैं,इसलिए उन्हें रुपए पैसें की चिन्ता नहीं रहती,कहते हैं कि वें भी कभी कभी शराब के नशे में धुत्त मिलतीं हैं,लेकिन भाई हमें क्या लेना देना,हमारे पास जो जानकारी थी वो तुम्हें दे दी,तुम्हे ठीक लगे तो चले जाओ मर्सियाबानो की हवेली में...
और फिर मैंने इस बारें में ज्यादा सोचना समझना ठीक नहीं समझा और अपना बोरिया बिस्तर लेकर चला गया उनकी हवेली के दरवाजे पर,दरवाजे पर दरबान था उसने मुझसे पूछा....
"जनाब! किससे मिलना चाहते हैं"
"जी! कमरा ढूढ़ रहा था किराए के लिए,सुना है यहाँ खाली है",मैं दरबान से बोला...
"जी! आप यहीं ठहरें,मैं अभी बहूबेग़म को इत्तिला करके आता हूँ"
और ऐसा कहकर वो दरबान हवेली के भीतर चला गया....
कुछ देर बाद दरबान बाहर आकर मुझसे बोला.....
"जनाब! बेग़म आपको भीतर बुला रहीं हैं"
दरबान के कहने पर मैं भीतर पहुँचा तो एक खातून मेरे पास आकर बोलीं....
"आप यहाँ तशरीफ़ रखें,बहूबेग़म बस आ ही रही हैं"
और फिर मैं उनके आने का इन्तज़ार करने लगा....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....