मैं और चाची रसोई में पहुँचे तो चाची ने चूल्हे के पास जाकर बटलोई का ढ़क्कन उठाकर चम्मच में आलू निकालकर उसे दबाकर देखा और मुझसे बोली...
"चल खाने बैठ,आलू की तरकारी पक चुकी है,मैं गरमागरम रोटियाँ सेंकती हूँ"
और ऐसा कहकर उन्होंने चूल्हे से बटलोई उतारकर एक ओर रख दी और चूल्हे पर तवा चढ़ाकर धीरे धीरे रोटी बेलने लगी और रोटी बेलते बेलते मुझसे पूछा....
"तुलसीलता ने तुझे सच में अपना भाई बना लिया या तू अम्मा से झूठ बोल रहा था",
"चाची! ये बिलकुल सच है,भला मैं उनसे झूठ क्यों बोलने लगा",मैने चाची से कहा....
"तो तुझे तेरी बड़ी बहन मिल गई,अब ऐसा तो नहीं कि तुझे बड़ी मिल गई तो तू अपनी छोटी बहनों को भूल जाएगा",चाची बोली....
"ऐसा कभी नहीं होगा चाची",मैने चाची को आश्वासन देते हुए कहा...
"बेटा! अब उन दोनों का तेरे सिवाय है ही कौन"?,चाची बोली...
"तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है क्या"?,मैं चाची से बोला...
"भरोसा है तभी तो तुझसे कह रही हूँ कि मेरे बाद मेरी दोनों बेटियों का ख्याल रखना ",चाची बोली....
"अरे! तुम कहाँ जा रही हो,अभी तो तुम्हें बहुत जीना है",मैने चाची से कहा...
"जीवन का कोई भरोसा नहीं,ना जाने पल भर में क्या हो जाए,इसलिए पहले से तुझसे कहें दे रही हूँ कि हमेशा मेरी बेटियों का ध्यान रखना",चाची बोली...
"चाची! ये कहने की बात थोड़े ही है,वो मेरी छोटी बहनें हैं और उनका ख्याल रखना तो मेरा फर्ज है",मैंने चाची से कहा....
"तो मैं भी चली चलूँगीं तेरे संग",चाची बोली...
"कहाँ?",मैंने पूछा..
"उस तुलसीलता से मिलने शिवबाबा के मंदिर",चाची बोली...
"ये भी कोई पूछने की बात है वो तो तुम्हें देखकर खुश हो जाएगी"मैंने चाची से कहा...
"तो ठीक है सोमवार को पक्का,मैं भी चलूँगी तेरे संग",चाची बोली....
और फिर चाची ने मेरी थाली में गरमागरम आलू की तरकारी,आम का अचार और घी लगी रोटी परोस दी और मैं खाने लगा,ऐसे ही सप्ताह के दिन बीते और सोमवार आ पहुँचा,सोमवार की शाम मैं और चाची शिवबाबा के मंदिर पहुँचे और तुलसीलता जीजी भी किशोरी के संग मंदिर आई,मैं तुलसीलता जीजी के पास पहुँचा तो किशोरी बोली...
"तू तो अपने वादे का बड़ा पक्का निकला रे! तू तो सच में आ गया अपनी बड़ी बहन से मिलने",
"और क्या? मुझे तुमने समझ क्या रखा है?"मैने किशोरी से कहा....
"किशोरी! अब उसे छेड़ना बंद करेगी,हम बहन भाई को जरा दो घड़ी बैठकर बातें कर लेने दे ना!", तुलसीलता जीजी बोली....
"हाँ...हाँ...मैं क्या मना कर रही हूँ तुझे उससे बात करने को,बड़ी आई भाई वाली",किशोरी बोली....
किशोरी की बात सुनकर तुलसीलता जीजी हँसी और फिर बोली....
"तू जल मत! जैसे ये मेरा भाई है, वैसें ही ये तेरा भाई भी तो है",
"तू सच कहती है",किशोरी ने खुश होकर पूछा...
"हाँ! और क्या",तुलसीलता जीजी बोली...
हम सभी बाते ही कर ही रहे थे कि तभी हम सभी के बीच में चाची आकर बोली....
"तो ये है तुलसीलता! तुम्हारी बड़ी जीजी",
चाची की बात सुनकर तुलसीलता चकित हुई और उन्हें ध्यान से देखने लगी लेकिन बोली कुछ नहीं,तब चाची बोली....
"तुम सोच रही होगी कि मैं कौन हूँ,तो सुनो मैं इस नालायक की चाची हूँ",
"ओह....ठकुराइन! तुम और यहाँ", तुलसीलता ने चाची के चरण स्पर्श करते हुए कहा....
"हाँ! मेरा बहुत मन था तुमसे मिलने का सो चली आई इसके साथ",चाची बोली....
"लेकिन ठकुराइन! तुम मुझसे क्यों मिलना चाहती थी",तुलसीलता ने पूछा...
"बस ऐसे ही ,तुम्हारे भाई के मुँह से तुम्हारी तारीफ़ सुनी तो चली आई तुमसे मिलने",चाची बोली...
"जीजी! ये तुम्हारा बड़प्पन है,नहीं तो मुझ जैसी म्लेच्छ और जूठन से तुम जैसी इज्जतदार घराने की बहू मिलने आए,ये तो मेरे लिए वैसा ही है जैसे धरती की धूल माथे पर लगाना",तुलसीलता बोली....
"एक बात कहूँ तुलसीलता! मुझ जैसी और अम्मा जैसी बहूओं की वजह से ही उस घराने की इज्जत बची हुई है नहीं तो उस घर के पुरुषों ने उस घराने में कलंक लगाने के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं है",चाची बोली...
"जीजी! तुम शायद अपने पति और ससुर की बात कर रही हो",तुलसीलता बोली...
"उन सबकी बात छोड़ो,मैं तो केवल तुम्हें देखने आई थी,तुमसे मिलने आई थी,सच! ईश्वर ने तुम्हें बड़ी फुरसत से गढ़ा है,कितनी सुन्दर हो तुम",चाची बोली....
"ऐसी सुन्दरता किस काम की जीजी! जो हर रात परपुरुष की आँखें ठण्डी करती हो",तुलसीलता बोली...
"ऐसा ना कहो बहन! तुम जैसी नारियों की वजह से ही ये समाज सम्भला हुआ है,नहीं तो हर रोज किसी ना किसी की बेटी,बहन और बहू उनकी हवस का शिकार बनती,अपनेआप को तुम कमतर मत समझो,तुम भी उसी देवी का रूप हो जिसने दुष्टो का संघार किया था",चाची बोली...
"अब तुम मेरी तुलना देवी से मत करो जीजी! नहीं तो तुम्हें पाप पड़ेगा",तुलसीलता बोली....
"ऐसा पाप मैं हमेशा करना चाहूँगी",चाची मुस्कुराते हुए बोली....
तब तुलसीलता चाची से बोली....
"ठकुराइन! मुझे एक बात समझ नहीं आई,तुम तो इतनी सुन्दर हो,साक्षात लक्ष्मी का रुप लग रही हो,फिर भी तुम्हें छोड़कर तुम्हारा पति दूसरी स्त्रियों के पास जाता है",
"ये तो अपनी अपनी समझ की बात है तुलसी! कुछ पुरूषों की आदत कुत्तों की तरह होती है,जब तक दस घरों का जूठा ना खा ले तो उनका पेट ही नहीं भरता",चाची बोली...
"अपने पति को कुत्ते की संज्ञा देती हो ठकुराइन!", तुलसीलता बोली....
"जिस पुरुष को ना तो अपनी बेटियों की चिन्ता हो और ना ही पत्नी की तो ऐसे पुरूष को तुम क्या कहोगी तुलसीलता!",चाची ने पूछा....
"अब मैं क्या कहूँ ठकुराइन! मैं कौन होती हूँ किसी को कुछ अपशब्द कहने वाली,मैं तो खुद ऊपर से नीचे तक कीचड़ में डूबी हुई हूँ",तुलसीलता बोली....
"अच्छा! ये सब छोड़ो,चलो कुछ और बातें करते हैं",
ये कहकर चाची और तुलसीलता बातें करने लगी और मैं और किशोरी तालाब के किनारे घर लौट रहे पंक्षियों को देखने लगें,उन्हें अब आपस में बातें बातें करते साँझ ढ़ल चुकी थी,तब किशोरी तुलसीलता जीजी के पास जाकर बोली ....
"तुलसी! याद है ना कि आज मंदिर में नृत्य है,अभी हम दोनों को तैयार भी होना है,देख तो रात होने चली है,देर हो गई तो वो मंदिर का बूढ़ा पुजारी हम दोनों का खून पी जाएगा",
"हाँ! चल ,मुझे तो बातों बातों में ध्यान ही नहीं रहा",तुलसीलता बोली....
"जा रही हो "चाची ने पूछा....
"हाँ! ठकुराइन! जाना पड़ेगा",तुलसीलता बोली....
"ठीक है तो जाओ",
और ऐसा कहकर चाची ने अपने दोनों हाथों से सोने के कंगन उतारे और तुलसीलता को देते हुए बोली....
" ये मेरी तरफ से रख लो,एक बड़ी बहन की ओर से तोहफा समझकर",
"इसकी कोई जरूरत नहीं है ठकुराइन",तुलसीलता बोली....
"रख लो,मुझे अच्छा लगेगा",चाची बोली....
और फिर तुलसीलता ने वो कंगन अपनी साड़ी के पल्लू में बाँध लिए, फिर चाची और मुझे वहीं मंदिर में छोड़कर तुलसीलता और किशोरी मंदिर की ओर बढ़ गईं.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....