फादर्स डे - 49 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 49

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 49

बुधवार 09/02/2000

पुलिस विभाग के लंबे अनुभव के कारण सदानंद बेलसरे और बाकी लोगों को यह समझ में आ चुका था कि अमजद निर्दोष है...या फिर वह सबकुछ सहन कर सकता है। किया हुआ कुकर्म छुपा सकने लायक ढीठ होगा वह...लेकिन इसकी संभवना कम ही दिख रही थी...बहुत कम...लेकिन पुलिस कहां हार मानने वाली थी। अमजद शेख को छोड़ देना इतना आसान भी नहीं था। संकेत अपहरण कांड में पहले संदेदास्पद आरोपी को पकड़ा गया था। लोगों और समाचार पत्रों का उत्साह देखते हुए उस उत्साह की हवा निकाल देना ठीक नहीं था।

सूर्यकान्त और रफीक़ नहा-धोकर चौकी में पहुंच गए। सदानंद बेलसरे  सूर्यकान्त का चेहरा देखते साथ उसका मनोगत पूरी तरह समझ गया था। सूर्यकान्त ने बेलसरे से निवेदन किया,

“मुझे अमजद से मिलने दें एक बार ...अकेले में।”

सदानंद एक लाचार बाप का चेहरा देख रहे थे।

“ हम ये रिस्क नहीं उठा सकते। आप उससे अवश्य मिलिए लेकिन मेरे आदमी आपके साथ रहेंगे, क्योंकि यदि उसने आपको कोई नुकसान पहुंचाने की कोशिश की तो? गैरजिम्मेदारी का आरोप हमारे मत्थे मढ़ा जाएगा। आपको जो कुछ पूछना है, आप उससे पूछें..हम बीच में कुछ नहीं बोलेंगे...ऑल द बेस्ट...।”

सूर्यकान्त अमजद के कमरे में गया। अमजद कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। दयनीय, दुःखी आवाज में, रोते-रोते सूर्यकान्त को बताने लगा...

“सेठ, प्लीज...पुलिस वालों को समझाइए न..मैंने कुछ नहीं किया है सेठ...मं क्यूं ले जाऊंगा संकेत बाबा को? मैं कोई गुंडा आदमी नहीं हूं...सीधा-सादा मजदूर हूं...पसीने की कमाई खाता हूं सेठ...सादा आदमी हूं...कुछ कीजिए सेठ...”

सूर्यकान्त ने अमजद को तीखी नजरों से देखा।

“बोल...तुझे कितने पैसे चाहिए हैं? तू जितने पैसे और जो कुछ मांगेगा मैं देने को तैयार हूं लेकिन मुझे मेरा संकेत वापस कर दे...।”

इतना कहते-कहते सूर्यकान्त की आंखों में पानी आ गया। उसके चेहरे पर विरह की वेदना झलक उठी। गंभीर आवाज में आर्द्रता समा गई। उसके दर्द को अमजद समझ गया। आसमान की ओर दोनों हाथ और नजरें उठाकर अमजद बोला,

“खुदा कसम...अल्लाह रहम करे...मैंने कुछ नहीं किया...मैं कुछ भी नहीं जानता...मैं तो परवरदिगार अल्लाह से आपके बेटे के लिए दुआ मांगता हूं कि वो सही सलामत रहे...हंसता-खेलता घर वापस आ जाए...।”

अमजद ने दोनों हथेलियों की अंजुरि बनाकर खुदा की बंदगी की और अपने हाथ अपनी छाती पर रखे।

यह देखकर सूर्यकान्त एक भी शब्द न बोलते हुए कमरे से बाहर निकल गया। केवल सूर्यकान्त और प्रतिभा को ही नहीं, तो पूरे शिरवळ को इस बात की उत्सुकता लगी हुई थी कि अमजद शेख को तो पकड़ लिया पर संकेत कहां है। तथाकथित संदेहास्पद आरोपी नंबर वन से मिलने का बाद सूर्यकान्त ने अनुभव किया उससे उसका दिमाग सुन्न हो गया था। वह अन्यमनस्क स्थिति में सोफे पर बैठ गया। प्रतिभा उसके सामने आकर खड़ी हो गईय़।

“आज संकेत को घर वापस आना ही होगा। उसकी पसंद का क्या खाना पकाऊं?”

सूर्यकान्त को कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा। दिमाग में विचारों की उथल-पुथल मची हुई थी। इस उथल-पुथल ने अब भयंकर कोलाहल का रूप ले लिया था। इस कोलाहल के बीच बाहर की किसी भी आवाज का उसके दिमाग में प्रवेश कर पाना असंभव ही था। प्रतिभा, सूर्यकान्त की ओर से अपेक्षित प्रतिसाद न पाकर चिढ़ गई। चिड़िचिड़ाहट भरी आवाज में उसने सूर्यकान्त के कंधों को हिलाते हुए पूछा,

“अरे...सुन रहे हैं न?”

उसकी तंद्रा टूटी।

“क्या हुआ...बोलो ....।”

“मेरे सवाल का जवाब दें...।”

“कौन-सा सवाल?”

“अरे यही कि आज संकेत को घर आना ही चाहिए। उसके लिए क्या बनाऊँ?”

सूर्यकान्त फटाक से उठ खड़ा हुआ।

“तुमको जो कुछ भी बनाना है, बना लो, पर मेरा दिमाग मत खाओ. समझ गईं?”

गुस्से से भरा हुआ सूर्यकान्त बाहर निकल गया।

प्रतिभा दुःखी हो गई।

“मैंने ऐसा क्या पूछ लिया जो इनको इतना गुस्सा आ गया? संकेत के बारे में पूछ कर मैं उनका दिमाग खाती हूं? तो ठीक है...आज से इस बारे में पूछताछ बंद... ”

............................

गुरुवार 10/02/2000

“पूछताछ बंद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं।” सदानंद बेलसरे सूर्यकान्त को समझाइश देते हुए बोले।

बेलसरे जानते थे कि सूर्यकान्त दिन में चार से पांच बार चौकी का चक्कर लगाता है। उसके दो ही सवाल होते थे,

“अमजद ने मुंह खोला ?संकेत कहां है?”

लेकिन हर बार उसके हाथ निराशा ही लग रही थी।

शुरुआती जोश, उत्साह, उपलब्धियों का पहाड़ अब पिघलता जा रहा था। कानून के सीधे-सपाट और कठोर रास्ते पर ही सबको चलते रहना होगा। सदानंद बेलसरे और अन्य पुलिसकर्मियों को समझ में आ गया था कि अमजद शेख ने अपहरण नहीं किया है। उसे अब और अधिक देर तक चौकी में बंद रखना कानून की दृष्टि से गलत साबित हो सकता है। पुलिस द्वारा पूछताछ, जांच-पड़ताल के तौर-तरीके आजमाने के बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया था।

सदानंद, सूर्यकान्त को इस बात के लिए राजी करने का प्रयास कर रहा था कि अब अमजद को छोड़ना ही होगा। फिर भी हमारी कड़ी नजर उस पर रहेगी और यदि अमजद गुनाहगार होगा तो कोई न कोई गलती अवश्य करेगा। आज नहीं तो कल, उसे जेल में बंद करने में समय नहीं लगेगा।

“लेकिन, सर...संकेत की तो कोई जानकारी मिली ही नहीं।”

“यदि अमजद ने संकेत का अपहरण किया नहीं है तो वो उस बारे में क्या बता पाएगा?”

“और कुछ दिन जांच-पड़ताल करें तो शायद....”

“सूर्यकान्त ...प्लीज...ट्राय टू अंडरस्टैंड...”

सूर्यकान्त तुरंत चौकी से बाहर निकल गया। उसकी बाइक चौकी में ही रखी रह गई और वह क्रोध, हताशा, निराशा की गर्त में खुद को ढकेलते हुए पैदल ही घर की ओर निकल पड़ा।

रास्ते से गुजरने वाले राम-राम करने के बाद पूछते...

“संकेत के बारे में कुछ पता चला क्या? कहां छुपाकर रखा है?कोई जानकारी मिली क्या?”

इन सवालों के हथौड़े उसके सर पर चल रहे थे। लोग, इनका जवाब न सूझने वाले सूर्यकान्त के मौन प्रतिउत्तर का मनचाहा अर्थ निकाल रहे थे।

..............

शुक्रवार 12/02/2000

सदानंद बेलसरे विचारों की उलझन सुलझाते हुए बैठे थे। बेलसरे न जाने कितनी ही बार संकेत अपहरण कांड की फाइलें, एफआईआर, अलग-अलग टिप्पणियां, जांच रिपोर्ट्स और अमजद शेख की जांच-पड़ताल के दौरान लिखे गए पॉइन्ट्स को बार-बार पढ़ रहे थे। जब ऊब गए तो घंटी बजाई। हवलदार सामने आकर खड़ा हो गया।

“जा रे...उस अमजद को लेकर आ जा...”

आधी-अधूरी नींद, खाली पेट, भूख, दिमाग पर तनाव, मारपीट का दर्द, तुड़े-मुड़े कपड़े, बिखरे हुए बालों के कारण अमजद की हालत खराब थी। वह वैसी ही हालत में बेलसरे के सामने आकर खड़ा हो गया।

“अपने आपको डेढ़ होशियार समझता है न ?”

“नहीं....साब मैं तो....”

“चुप साले....हरामखोर...बकवास बंद कर तेरी....तेरी मॉं का....मैं बराबर जानता हूं कि किडनैपिंग में तेरा कुछ न कुछ हाथ तो जरूर है....मगर तू बोलना नहीं चाहता है...देख अब भी वक्त है...बता दे...ज्यादा शाणा मत बन...समझा.... बरना ये डंडा तेरा सगा नहीं होगा...इधर से उधर निकाल दूंगा....बोल किसने किया है ये सब?”

“साब...अल्लाह कसम, मैं कुछ नहीं जानता।”

“जो जितनी कसमें खाता है न, वो उतना ही झूठा निकलताहै। देख अगर सच बता देगा, तो मैं तेरे को बचा लूंगा...।”

ठीक उसी समय अमजद की बहन और बहनोई चौकी में दाखिल हुए। सदानंद ने उन्हें इशारे से अपनी ओर बुलाया।

“अब तो इसको छोड़ रहा हूं...मगर कुछ भी शानपट्टी किया तो ऐसा हाल बनाऊंगा कि वो खुद को पहचान नहीं पाएगा....जाओ...हवलदार के पास सभी रिश्तेदारों के नाम, पते और फोन नंबर लिखवा दो...अभी निकलो....”

“शुक्रिया साब....”

इतना कहकर अमजद तुरंत पीठ फेर ली, तभी पीछे से आवाज आई,

“ओए ...हीरो...सुन...अपने अल्लाह से मन्नत करना कि फिर कभी मेरे हाथ न आए...वरना हाथ तो क्या पैर भी तोड़ दूंगा...समझा क्या? चल निकल अब...”

इतनी धमकी देने के बाद बेलसरे ने टेबल पर रखे कागज पर बॉलपेन से गोलाकार बनाया। जांच जहां से शुरू हुई थी, वहीं आकर ठहर गई थी। जैसे थे, जहां थे। इतनी भागदौड़ का नतीजा...बिग जीरो... उसका वह गोलाकार बढ़ते-बढ़ते बहुत बड़ा हो गया...पर केवल कागज पर ही...

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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