फादर्स डे - 41 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 41

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 41

रविवार -02/01/2000

तरह-तरह की कोशिशें, ईश्वर के समक्ष की गई प्रार्थनाएं, कठिन मन्नतें, विनम्र निवेदन और सौहार्द्र अपीलें....मानसिक प्रताड़ना का कोई अंत नजर नहीं आ रहा था क्योंकि 1999 का साल खत्म होकर 2000 का नवप्रभात उदित हो चुका था परंतु संकेत सूर्यकान्त भांडेपाटील का कोई अता-पता नहीं था।

संकेत को आसमान खा गया या जमीन निगल गई? हवा के साथ किसी पंख की भांति कहीं उड़ गया या नीरा के जल के साथ प्रवाहित हो गया? जिस तरह चंद्रमा बादलों की ओट में छिप जाता है ठीक उसी तरह जानबूझकर कहीं छुपा हुआ तो नहीं या कि प्रभात की सूर्यकिरणों के साथ कहीं खेल तो नहीं रहा? संकेत था कहां?

सूर्यकान्त अपनी माता जनाबाई की बिगड़ती मानसिक अवस्था को देख नहीं पा रहा था। ऊपर से मजबूत होने का स्वांग रचने वाली जनाबाई अपने पोते की बहुत फिक्र करती थीं। भीतर ही भीतर दुःखी हो रहीं जनाबाई की तबीयत नरम-गरम रहने लगी थी। आंखों के नीचे संकेत की चिंता के गहरे काले घेरे साफ दिखाई दने लगे थे। झुर्रीदार गोरा चेहरा अब काला पड़ता जा रहा था। हमेशा हंसने-मुस्कुराने वाली जनाबाई अब हंसना ही भूल गई थीं। उनके बंद ओठों पर और ह्रदय के कोने-कोने से सिर्फ दो नाम निकल रहे थे...संकेत...विट्ठला...विट्ठला...जनाबाई दिन में कई बार ईश्वर का नाम लेती थीं। हे विट्ठल....भगवान...अब तुमको ही चिंता करनी है...हे विट्ठल...मेरे पोते को ...संकेत को ....सुरक्षित रखना भगवान...हे विट्ठल...भगवान....तुम्हारे दर्शन के लिए पंढरपुर आऊंगी...तुम्हारे चरणों पर माथा रखकर नाक रगडूंगी....हे विट्ठल....लेकिन मेरे संकेत को सुरक्षित घर वापस भेज दो।

जनाबाई अपने झुर्रियों वाले हाथ जोड़ उन पर माथा रखकर दिन में कितनी ही बार भगवान से बिनती करती रहती थीं। सूर्यकान्त को यह सब बहुत बेचैन करने लगा था।

18 दिसंबर को एक स्थानीय पत्रकार संकेत अपहरण मामले की फॉलोअप स्टोरी करने के लिए शिरवळ आया। विष्णु भांडेपाटील, जनाबाई और सौरभ से बातचीत करने के बाद एक इमोशनल स्टोरी बनाने वाला था। इस स्टोरी के माध्यम से विष्णु भांडेपाटील ने अपहरणकर्ता से निवेदन किया था कि तुम्हारी मांग हमने  पूरी कर दी है अब मेहरबानी करके संकेत को वापस कर दो।

सौरभ तो केवल इतना ही कह पाया कि मुझे संकेत से मिलना है।

जनाबाई ने पत्रकार के सामने हाथ जोड़कर आंसू भरी आंखों से अपहरणकर्ता से अनुरोध करते हुए संदेश दिया,

“मुझे सिर्फ एक बार संकेत से फोन पर बात करने दें...”

इतना कहते ही जनाबाई की भावनाओं का वह बांध फूट पड़ा जो उसने इतने दिनों तक उन्होंने बड़े धीरज के साथ रोक कर रखा था। गोरा-चिट्टा चेहरा आंसुओं की धार से भीगने लगा। आंसुओं की यह जलधारा वहां उपस्थित सभी लोगों को भिगोने लगी थी।

उस नौजवान रिपोर्टर की आंखें भी नम हो आईं। एक दादी का अपने पोते के लिए ऐसा गहन दुःख उसने अपने जीवन में पहली ही बार देखा होगा। स्टोरी कवर करते-करते पत्रकार स्वयं भी रो पड़ा। किसी स्टोर को कवर करते हुए भावनाओं के वशीभूत हो जाना, उसके लिए पहला ही अनुभव था। रिपोर्टर हुआ तो क्या, वह भी तो किसी दादी का पोता ही होगा ना?

उसने आश्वासन दिया कि अखबार के जरिए अपहरणकर्ता से यह अनुरोध प्रकाशित किया जाएगा। अखबार में खबर के साथ देने के लिए उसने सूर्यकान्त से उसका मोबाइल और लैंडलाइन नंबर भी ले लिया।

यह खबर केवल सिंगल कॉलम में छपकर आई। उस दिन घर में सबने राह देखी। सबको भरोसा था कि अखबार में छपे अनुरोध को पढ़कर अपहरणकर्ता निश्चित ही पिघलेगा, वह पत्थरदिल कम से कम एक फोन कॉल करके यह सूचना तो देगा कि आपका संकेत सुरक्षित है। जनाबाई को भीतर से लग रहा था कि आज संकेत से बात हो ही जाएगी। वह दिनभर लैंडलाइऩ फोन के पास बैठी रहीं। टेलीफोन की हर रिंग के साथ उनके भीतर  आशा की एक नई किरण दौड़ जाती थी। लेकिन दिन भर इधर-उधर के बिना काम के फोन आते रहे। सूर्यकान्त का जब मोबाइल फोन बजता तो जनाबाई सोचतीं कि कहीं उसी व्यक्ति का फोन तो नहीं? वह तुरंत सूर्यकान्त के पास जाकर खड़ी हो जाती थीं और भौहें उठाकर पूछ लेती थीं,

“सूर्या कोण हाय रं (सूर्या कौन है?)

“सूर्या....त्येचा फोन आला का?” (सूर्या उसका फोन आया क्या?)

जनाबाई की खूब समझा-बुझा कर खाना खाने के लिए भेजा गया। उन्होंने फटाफट जैसे-तैसे खाना खत्म किया और फिर टेलीफोन के पास आकर बैठ गईं। उस टेलीफोन के निर्जीव डब्बे को किसी जागृत देवता की तरह मानकर उसके सामने बैठकर नामस्मरण कर रही थीं। शालन उनके पास आकर चुपचाप बैठ जातीं। जिस कॉल की सब लोग प्रतीक्षा कर रहे थे वो ईश्वर नामस्मरण और लंबी प्रतीक्षा के बाद आया ही नहीं।

जनाबाई की फोन पर त्राटक क्रिया और शालन का उन पर न हटने वाली नजरें प्रतीक्षा करते-करते थक गईं थीं,लेकिन सारे उपाय विफल साबित हुए, अपहरणकर्ता का फोन नहीं आना था, नहीं आया। जनाबाई बीच-बीच में टेलीफोन रिसीवर को उठाकर कान से लगा लेती थीं यह जांचने के लिए लाइन ठीक तो है?

सूर्यकान्त यह सब चुपचाप देख रहा था। इस असहायता और निराशा को बोझ उससे उठाया नहीं जा रहा था। इस भार को सहन करना उसकी सहनशक्ति के पार हो रहा था। उसने पैरों में चप्पल सरकाई और बाहर निकल गया।

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सोमवार 03/01/2000

बाकी दिनों के मुकाबले आज सूर्यकान्त और प्रतिभा की गतिविधियों में स्फूर्ति जान पड़ रही थी। दोनों ही अपने दैनिक कार्यों को निपटा कर बाहर निकलने की तैयारी कर रहे थे। आज दोनों की मंजिल तो एक ही थी,लेकिन रास्ते अलग-अलग।

प्रतिभा तैयार होकर स्कूल की ओर निकल गई। सूर्यकान्त थोड़ी देर से संजय और रफीक़ को लेकर निकला। शिरवळ चौक पर गांव के बहुत सारे अग्रणी लोग उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। काफिला एक साथ आगे बढ़ा। पांच किलोमीटर का फासला देखते-देखते तय हो गया। बातें करते-करते ही वे नायगाव पहुंच गए।

नायगाव स्त्री शिक्षा की मशाल जलाने वाले और महान क्रांतिकारी नेता ज्योतिबा फुले की धर्मपत्नी सावित्रीबाई फुले का जन्मस्थान है। 3 दिसंबर को सावित्रीबाई का जन्म दिन होता है। यह दिन उनके जन्मस्थान नायगाव में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। सभी प्रमुख नेतागण यहां अपनी हाजिरी देते हैं।

3 दिसंबर को तत्कालीन डिप्टी मिनिस्टर छगन भुजबल इस कार्यक्रम में उपस्थित रहने के लिए नायगाव पहुंचने वाले थे। सूर्यकान्त और उसकी मित्रमंडली का विचार था कि डिप्टी मिनिस्टर इतने नजदीक आ रहे हैं तो इस चांस को गंवाया न जाए। उनसे मिलने के लिए ही शिरवळ का यह समूह नायगाव पर धावा बोल रहा था।

सावित्री बाई फुले की जन्मतिथि के भीड़भाड़ भरे कार्यक्रम में सूर्यकान्त भांडेपाटील और प्रतिभा भांडेपाटील ने डिप्टी मिनिस्टर छगन भुजबल को अपने बेटे संकेत के अपहरण की घटना के बारे में संक्षिप्त में बताया। पुलिस तंत्र त्वरित रूप से कामकाज में जुटकर घटना का पता लगाए इसके लिए लिखित आवेदनपत्र छगन भुजबल को सौंप दिया। भुजबल ने तत्काल अपनी ओर से जितना संभव हो, उतना सहयोग देने का वचन दे दिया।

सूर्यकान्त ने छगन भुजबल को आवेदन पत्र देने के अलावा जब भी संभव हुआ तब सातार जिला पालक मंत्री अजीतदादा पवार, विधायक रामराजे निंबालकर, बालासाहेब पाटील, विक्रम सिंह पाटणकर और विलास काका थंडालकर को भी आवेदन देकर निवेदन किया था कि ....कृपया मेरा पुत्र संकेत मुझे वापस दिलवा दें।

किसी भी राजनेता के लिए आवदेन पत्र स्वीकारना, अधिक से अधिक प्रयत्न करने की गारंटी देना और अपने पीए की ओर से आवेदन स्वीकार करने की पावती पर सील-सिक्का लगा देना कोई नई बात नहीं है। उनके लिए तो यह रोजमर्रा के कामकाज का एक हिस्सा होता है लेकिन ये अपीलें, आवेदन पत्र नेताओं को सौंपने के बाद उस व्यक्ति की मरणासन्न आशा-आकांक्षाओं को नई प्राणवायु अवश्य मिल जाती है।

अपने मित्रों के साथ नायगाव पहुंचे सूर्यकान्त और अपनी स्कूल की प्रतिनिधि बनकर वहां पहुंची प्रतिभा की आस बढ़ गई थी कि इतनी बढ़ी हस्ती तक बात पहुंचने के बाद तो घटना की जांच होकर रहेगी। पुलिस दल निश्चित ही नई फूर्ति के साथ संकेत को खोजने का काम करेंगे। संकेत के घर लौटने की प्रबल आशा से नायगाव पहुंचे सूर्यकान्त और प्रतिभा का आत्मविश्वास बढ़ गया था।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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