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फादर्स डे - 38

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 38

रात के गहरे अंधकार में जब सोमवार, मंगलवार में बदल चुका, तब सूर्यकान्त और मर्डेकर के दोपहिया ने पुणे में प्रवेश किया। आगे लंबा रास्ता और अपने गंतव्य के बारे में पूरी तरह से परिचित सूर्यकान्त सहजता से आगे बढ़ता ही चला जा रहा था। पुणे के धनकवडी में पहुंच कर वह मकानों पर लिखे नाम पढ़ने लगा। चार-पांच मकानों के बाद ही उसने एक नाम पढ़ा- ‘भाऊ पारांडे’।

पढ़ते ही उसने अपनी गाड़ी को ब्रेक मारा। इस कर्कश आवाज से दूर सो रहे कुत्ते हड़बड़ाकर जाग गए और भौंकने लगे। सूर्यकान्त ने भाऊ पारांडे के घर की कॉल बेल बजाने के लिए हाथ बढ़ाया जरूर, लेकिन फिर पल-भर के लिए रुक गया। उसके मन में विचार आया कि इतनी रात गए घंटी बजाना ठीक होगा क्या? लेकिन इसके अलावा कोई विकल्प भी कहां था-तो उसने स्विच दबा दिया।

दरवाजा भाऊ पारांडे ने खोला। एक दोस्त ने सूर्यकान्त को बताया कि संकेत के बारे में एक बार भाऊ पारांडे से भी पूछताछ कर लें, जानकार व्यक्ति हैं, लेकिन जरा जल्दी मिलना क्योंकि वह कहीं बाहर निकलने वाले हैं। उस दोस्त के कहे मुताबिक ही सूर्यकान्त भाऊ पारांडे से मिलने के लिए इतनी रात गए उनके घर पहुंचा था।

भाऊ ने उन्हें इशारे से सामने रखी कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और खुद जमीन पर पद्मासन लगाकर बैठ गए। आंखें बंद करके ध्यान में खो गए।

सूर्यकान्त ने संकेत के बारे में विस्तार से जानकारी देना शुरू किया। जिस दिन अपहरण हुआ, उस दिन के बारे में बताया। आज तक सभी लोगों ने कौन-कौन से प्रयास किए, इसकी जानकारी दी। वह बोलता जा रहा था, लेकिन भाऊ बीच में एक शब्द भी नहीं बोले। भाऊ तो ध्यान मुद्रा में बैठे थे। एकाग्रचित्त थे। बीच-बीच में पास रखे हुए कागज पर अपनी टिप्पणी लिख लेते थे। सूर्यकान्त ने अपनी बात पूरी कर ली और फिर संजय की ओर देखा। घर में चारों ओर शांति पसरी थी, पिनड्रॉप साइलेंस... अब भाऊ बोले, “ध्यान देकर सुनें” ऐसा लग रहा था मानो उनकी आवाज किसी गहरी गुफा से निकल कर आ रही है

“ध्यान देकर सुनें. बीच में कुछ बोलना नहीं है, पूछना नहीं है।”

भाऊ ने आंखें खोलीं। कागज पर लिखी हुई टिप्पणियां पढ़ने लगे।

“संकेत मुझे अमुक-अमुक दिशा की ओर दिखाई दे रहा है। नीरा और लोणंद की ओर जाने वाला रास्ता है। इस समय संकेत नीरा रेलवे स्टेशन के नजदीक है। आठ दिनों के बाद संकेत घर वापस आएगा।”

इतना कहकर भाऊ उठ गए। सूर्यकान्त और संजय भी उठे। आभारी सूर्यकान्त ने हाथ जोड़े। आशीर्वाद की मुद्रा में भाऊ ने अपना दाहिना हाथ उठाया। दरवाजे की ओर नजर घुमाई। भाऊ को दक्षिणा दिए बिना ही सूर्यकान्त और संजय को बाहर निकलना उचित नहीं लग रहा था। दरवाजे तक पहुंच कर भाऊ ने कुंडी खोल दी। बाहर निकलकर दोनों ने पीछे मुड़कर देखा तो भाऊ ने दरवाजा बंद कर दिया था।

सूर्यकान्त और संजय ने सपने में भी सोचा नहीं था कि भाऊ पारांडे द्वारा बताई गई कुछ बातें खरी उतरने वाली हैं और इसकी गारंटी इन दोनों को कुछ दिनों बाद देनी पड़ेगी। उन्हें इस बात का आश्वासन मिल गया था कि संकेत आठ दिनों के बाद घर वापस आने वाला है। आठ दिन तो आठ ही सही, लेकिन संकेत तो सुरक्षित है- उनकी बातों से तो यही अर्थ निकल रहा था।

सूर्यकान्त और संजय अपनी बाइक के पास पहुंचे तो उनके पीछे-पीछे मर्डेकर भी अपनी गाड़ी लेकर वहां पहुंच गया। दोनों का पीछा करते हुए मर्डेकर धनकवडी तक पहुंचा तो था लेकिन फिर वह मुख्य रास्ते पर आकर रुक गया था, क्योंकि सूर्यकान्त की गाड़ी किस गली में मुड़ी, उसे वह देख नहीं पाया। सूर्यकान्त के पास जब वह पहुंचा तो उसने देखा इतनी ठंड में भी उसे पसीना छूट रहा था।

“सूर्यकान्त भाऊ ऐसा मत करें।”

एक पुलिस वाला होने के कारण संजय, मर्डेकर की हालत को अच्छी तरह से समझ रहा था। संजय ने उसकी ओर सहानुभूति से देखा.

“सही है सूर्या....हमारे इस तरह के व्यवहार से इसकी नौकरी चली जाएगी।”

दोनों ही अपने सामने खड़े मर्डेकर की ओर देखते रहे। सूर्यकान्त ने थोड़ा सा मुस्कुराकर अपने दोनों कान पकड़ लिए।

“माफ करें, मुझसे गलती हो गई। अब मेरे साथ-साथ चलें और मर्डेकर आप ही बताएं कि इस समय मस्त चाय पीने के लिए कहां मिलेगी?”

गरमागरम चाय को कप से प्लेट में ढालते हुए सुबह सूर्यकान्त ने अपने घर में खबर दी कि संकेत सुरक्षित है और आठ दिनों के बाद घर वापस आएगा। आठ दिन सुनते साथ ही प्रतिभा को एक बार फिर रोना आ गया।

“और आठ दिन?”

“अरे...आठ दिन नहीं महत्वपूर्ण बात यह है कि संकेत सुरक्षित है।”

दोपहर को शालन और जनाबाई आराम कर रही थीं। प्रतिभा को तो रात-भर नींद नहीं आई तो दोपहर को सोने का तो कोई सवाल ही नहीं था। मन बहलाने के लिए उसने एक किताब हाथ में ले ली। संकेत के गुम होने के बाद यह पहली किताब थी जो उसने पकड़ी थी। उसे पढ़ने का शौक था, लेकिन बीते कुछ दिनों से प्रतिभा का मन कहीं भी लग नहीं रहा था। उसने किताब खोली।

अचानक उसका ध्यान सौरभ की ओर गया, जो कोने में बैठकर कुछ लिख रहा था। सौरभ तो जैसे घर-भर दौड़ना-भागना, खेलना, जोर-जोर से हंसना, झगड़ना सबकुछ भूल गया था।

सौरभ की तरफ देखकर प्रतिभा का जी भर आया।

‘देखो तो मेरे दोनों सुकुमार बेटों की हालत कैसी हो गई है? मेरे ही नसीब में ऐसा दुःख आना था? मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था, जो मुझे इतनी कठोर सजा मिल रही है ?’

प्रतिभा ने सौरभ के नजदीक जाकर देखा, उसके हाथ में पेंसिल थी जो कागज पर रखी हुई तो थी, लेकिन वह लिख कुछ भी नहीं रहा था। सौरभ विचारों में खोया हुआ था। वह शांत था, लेकिन उसके चेहरे पर दर्द साफ झलक रहा था। हंसता-खिलखिलाता चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। प्रतिभा ने बड़े प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेरा।

“क्या हुआ...बेटा...सौरभ ...ए सौरभ...”

“सौरभ ने अपनी कॉपी में गड़ी नजर उठाई और प्रतिभा से मिला ली। एक ही क्षण में भावनाओं का आदान-प्रदान हो गया। स्वयं दुःखों से भीगी हुई माता अपने बेटे सौरभ का दुःख पढ़ने की कोशिश कर रही थी। वह तो कुछ भी बोल नहीं रहा था।”

“क्या हुआ राजा बेटा....बोलो न...मुझे बताओगे नहीं?”

“आई, अब मेरा अपहरण होने वाला है।”

इतना कहकर वह बुक्का फाड़कर रोने लगा। प्रतिभा सुन्न पड़ गई। आंखें फाड़कर सौरभ की ओर देखती ही रह गई। झट से नीचे बैठी और उसके दोनों कंधों को कसकर पकड़कर वह लगभग चीखी।

“ऐसा तुमसे किसने कहा?”

सौरभ रोते ही जा रहा था। उत्तर देने के बजाय उसने और ऊंचे सुर में रोना शुरू रखा।

“पहले मुझे बताओ सौरभ ...तुमसे....ये किसने कहा?”

“स्कूल में सभी बच्चे यही कहते रहते हैं। अब मेरा भी अपहरण होने वाला है इसलिए पुलिस वालों ने बंदूक वाले चाचाजी को हमारे घर में भेजा है।”

वो रोता ही जा रहा था।

प्रतिभा बेचैन हो उठी।

“नहीं, नहीं बेटा... ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला। बंदूकवाले चाचा इसीलिए तो हमारे घर आए हैं। और हमने तो किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा तो कोई हमारा क्यों बुरा करेगा, बोलो? और तुमने भी किसी का क्या बिगाड़ा?”

“आई ...संकेत ने भी किसी का बुरा नहीं किया....”

प्रतिभा ने सौरभ के मुंह पर हाथ रख दिया, सिर हिलाकर इशारे से नहीं-नहीं कहते हुए बोली, “संकेत वापस आने वाला है, ज्यादा से ज्यादा आठ दिन लगेंगे। आठ दिनों के भीतर संकेत निश्चित ही घर वापस आ जाएगा।”

इतना सुनते साथ सौरभ की मासूम आंखें आशा से चमक उठीं।

“क्या सच में आई...संकेत आने वाला है? तो मैं सबको बताकर आता हूं...”

उत्साह से भरा हुआ सौरभ छलांग मारते हुए घर से बाहर की ओर भागा। सौरभ की हालत देखकर प्रतिभा मन ही मन बहुत दुःखी हो रही थी। ‘सौरभ दिन ब दिन मायूस होता जा रहा है। संकेत के लिए उसका दिल अंदर ही अंदर टूट रहा है। वह डरा हुआ तो है ही पर दुःखी भी बहुत है। अकेला पड़ गया है। इस बारे में कुछ विचार करना चाहिए। सौरभ को अकेलापन खाए जा रहा है।’

“मैं अकेली नहीं जाने वाली, तुम भी मेरे साथ चलो।” जनाबाई, शालन से अनुरोध कर रही थी।

“अरे पर तुम जा कहां रही हो? ”

“संकेत की सुरक्षित घर वापसी के लिए देवी के पास धागा बांधना है। मन्नत मांगनी है। अंबिका देवी के मंदिर में जा रही हूं। तुम भी साथ चलो।”

जनाबाई का यह विचार शालन को अच्छा लगा।

“हां, हां चलो, दोनों साथ चलते हैं। मैं भी देवी के पास मन्नत मांगूंगी। अब तो उसी का आसरा है। भगवान जाने संकेत अकेला क्या कर रहा होगा?”

सूर्यकान्त को इस बात का बड़ा संतोष था कि संघर्ष के इस कठिन समय में वह अकेला नहीं है, प्रतिभा तो उसके साथ है ही परंतु माता, पिता, चाचा, चाची, शेखर और संजय का भी बड़ा सहारा है। इसके अलावा कुसुम भी रह-रह के प्रतिभा को धीरज बंधाती ही रहती है। घर के कामकाज में भी वह बड़ी सहायता करती है। मां और चाची बच्चों को संभाल लेती हैं, साथ-साथ वे प्रतिभा की मानसिक स्थिति को भी संभालती रहती हैं, ये सबसे महत्वपूर्ण बात है। संजय तो जैसे छाया की तरह उसके साथ रहता है। कामकाज का टेंशन विवेक और शेखर ले रहे हैं। सारी मित्र मंडली कंधे से कंधा लगाकर दौड़धूप कर रही है। इस जीवन में रफीक़ मुजावार जैसा नया निष्कपट और सह्रदय दोस्त मिला है। अब तो सुरक्षा कर्मी विष्णु मर्डेकर भी अपनी नौकरी की फिक्र न करते हुए साथ दे रहा है।

विचारों श्रृंखला को तोड़ते हुए सूर्यकान्त कुर्सी से उठा और अखबारों के गट्ठे के पास गया। अखबारों में निशान लगाकर रखे हुई खबरों को चिंतापूर्वक काटकर एक बाजू में रखी हुई कॉपी में तिथि, वार, अखबार का नाम और पृष्ठ क्रमांक सहित चिपकाते चला गया। सूर्यकान्त का समाप्त होते-होते सूर्यनारायण अस्ताचल को निकल पड़े थे।

रफीक़ मुजावार दरवाजे पर खड़े होकर सूर्यकान्त की एकाग्रता को देख रहे थे। रफीक़ के आने की आहट तक सूर्यकान्त ने महसूस नहीं की थी। हाथ में लिया हुआ कोई भी काम एकाग्रचित्त होकर अच्छी तरह से पूरा करना सूर्यकान्त का जन्मजात स्वभाव था। घर के मुख्य दरवाजे की चौखट पर हाथ बांधकर खड़े रफीक की ओर अब तक सूर्यकान्त का ध्यान नहीं गया था। लेकिन बरामदे में मशीनगन संभाले शान से खड़े विष्णु मर्डेकर की पैनी नजर रफीक मुजावार और सूर्यकान्त भांडेपाटील पर टिकी हुई थी। उनकी हर हलचल का प्रत्येक क्षण मर्डेकर की भूरी पुतलियों के कैमरे में दर्ज होता जा रहा था। रफीक का ध्यान मर्डेकर की तरफ गया और वह तुरंत दरवाजे से भीतर आकर सूर्यकान्त के पास ठहर गया। सूर्यकान्त ने उसे बैठने का इशारा किया। मर्डेकर दरवाजे के सामने आकर दोनों के पास खड़ा हो गया। सूर्यकान्त ने जो कॉपी तैयार की थी उस पर हाथ फेरते हुए अपने विचार व्यक्त किए... “पुलिस अपने तरीके से काम कर रही है। उसे उसका काम करने दिया जाए लेकिन मैं भी अब कोई काम करना चाहता हूं, अपने तरीके से।”

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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