फादर्स डे - 37 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 37

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 37

शनिवार -13/12/1999

न शिरवळ वासियों को न ही स्वतः सूर्यकान्त को इस बात पर विश्वास हो रहा था कि अजीत दादा पवार जैसा वरिष्ठ और धुरंधर नेता इतनी तत्परता और सहजता से संकेत की खोज के लिए आगे आ सकता है। और तो और, खुद सातारा एसपी सुरेश खोपडे साई विहार को विजिट देंगे और आधा घंटा वहां रुकेंगे, यह भी कल्पना से बाहर की बात थी। भांडेपाटील परिवार का आत्मविश्वास अब मजबूत हो गया था कि संकेत अवश्य ही वापस आएगा। जल्द से जल्द वह मिल जाएगा।

कुछ लोग समय की नब्ज बखूबी पहचानते हैं। समय एक परमप्रिय मित्र की तरह होता है, सामान्य मित्र की तरह होता है, वह आपके साथ खड़ा होता है। उसकी झोली में अनमोल उपहार होते हैं। उन्हें हासिल करना और उनका उपयोग करना ये इंसान के हाथ में होता है। जिन लोगों को समय की कद्र नहीं होती, समय उनके बाजू से चुपचाप गुजर जाता है। जिस तरह उसके आने की कोई आहट नहीं होती, उसी तरह उसके गुजर जाने का भी कोई संकेत नहीं मिलता।

सूर्यकान्त के जीवन में समय एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। भूतकाल का प्रत्येक क्षण उसकी नजरों के सामने से गुजरता जा रहा था। अपना बचपन...बचपन में कुश्ती का शौक...पहलवान बनने का सपना...सूर्यकान्त और संजय को जिला स्तर पर कुश्तीबाज होने का सम्मान मिला...ये सम्मान जीत कर लौटने के बाद सूर्यकान्त और संजय के बीच बैठकर गर्व से सिर उठाए शामराव काका का ब्लैक एंड व्हाइट फोटो... ये सब कुछ सूर्यकान्त को दिन-दिनांक सहित याद था।

प्रत्येक क्षण जरूरी था। हर क्षण को नजरों के सामने रखकर परिस्थिति के साथ कुश्ती लड़नी थी। टक्कर देनी थी। अब समय गंवाना भारी पड़ने वाला था। समय का सम्मान न किया तो अब तक जो हाथ लगा है, वह सबकुछ गंवाने की बारी आने वाली थी। समय खोने का मतलब था क्षण-क्षण आत्महत्या की तरफ बढ़ते जाना। क्षण ही जीवन है, सर्वस्व है-ये सब सूर्यकान्त को याद आ गया, उसने कहीं पढ़ रखा था।

उसी क्षण उसे सौरभ दिखाई दिया। समय उसकी भी तो परीक्षा ले रहा था। डरा-सहमा सा सौरभ तो अपना बचपन ही भूल चुका था। कुछ दिन पहले तक खूब बड़बड़ करने वाला सौरभ मानो अब जोर से बात करना भूल गया था। और संकेत के अपहरण को लेकर जिस तरह की चर्चा चल रही थी, उससे वह चकरा गया था। उसे देखकर लगता ही नहीं था कि यह संकेत का भाई है।

समय की कीमियागिरी का अनुभव शिरवळ पुलिस चौकी वाले भी कर रहे थे। एसपी साहब का तूफानी दौरा देखकर इंसपेक्टर माने स्तब्ध थे। इस मामले में अजीत पवार के उच्चस्तरीय हस्तक्षेप की बात भी उनके कानों पर पड़ी थी।  इसके अलावा संकेत भांडेपाटील केस भी अब उनसे छीनकर सातारा स्थानीय अपराध शाखा को सौंप दिया गया था। सतीश माने पसीने से तरबतर हो रहे थे। उन्हें यह भी खबर मिली थी कि इस मामले में एक स्पेशल टीम बनाई गई है। बित्ते भर के बच्चे की किडनैपिंग इतना टेंशन दे देगी इसकी इंसपेक्टर माने को रत्ती भर भी कल्पना नहीं थी। इस सूर्यकान्त पाटील से अब सावधान रहना होगा, उसने पक्का निर्णय ले लिया था।

सतीश माने, शिरवळ निवासियों और साई विहार के समक्ष सुबह-सुबह दोपहिया वाहन पर एक आश्यर्य उपस्थित हो गया। शिरवळ में तूफानी गति से एक दोपहिया आई। पलक झपकते ही यह गाड़ी न जाने कहां से कहां पहुंच गई। इसपर से एक आदमी उतरा। हट्टा-कट्टा, सांवला, दुबला-पलता और कूची जैसी मूंछों वाला। रौबदार चाल, देहभाषा कड़क, पैरों के बूट शिष्टतापूर्वक खट्-खट् कर रहे थे। हाथों में मशीनगन थामे हुए वह व्यक्ति अपने कदम आगे-आगे बढ़ाता जा रहा था। उसे देखते साथ साई विहार में विस्मय की लहर दौड़ गई। सूर्यकान्त ने जब उससे पूछताछ की तो मालूम हुआ कि पुलिस विभाग की ओर से सूर्यकान्त और भांडेपाटील परिवार की सुरक्षा के लिए प्रशासन ने सिक्यूरिटी गार्ड का इंतजाम किया है। गार्ड का नाम-विष्णु केशव मर्डेकर।

सूर्यकान्त को यह इंतजाम पसंद तो नहीं आया, लेकिन उसे स्वीकार के अलावा उसके पास कोई चारा ही नहीं था। उस समय सूर्यकान्त को इस बात का जरा भी एहसास नहीं था कि यही विष्णु केशव मर्डेकर आगे उसके जीवन में बहुत बड़े काम को अंजाम देने वाला है।

दिन-ब-दिन शिरवळ में सूर्यकान्त भांडेपाटील और उनके धाक की चर्चा जोर पकड़ने लगी थी। अजीत पवार के साथ उनके संबंध, सातारा एसपी सुरेश खोपडे की धमाकेदार उपस्थिति, मशीनगनधारी अंगरक्षक ने तो जैसे शिरवळवासियों पर जादू ही फेर दिया था। कुछ लोग इसे सौभाग्य समझ रहे थे तो कुछ लोग ईर्ष्यावश जल-भुन भी रहे थे।

“इतनी कोशिश की, अच्छा किया, लेकिन फिर भी संकेत का अता-पता क्यों नहीं लग रहा?”

“क्या वाकई अपहरण हुआ है?”

“या फिर सोच-समझकर, जानबूझकर संकेत को कहीं दूर छुपा कर रखा गया है?”

कॉंस्टेबल विष्णु मर्डेकर के आ जाने भांडेपाटील परिवार की सुरक्षा में कितना इजाफा हो पाया, यह तो भगवान ही जाने, पर उसके दिन-रात उनके घर में ही रहने से सभी को परेशानी जरूर हो रही थी। एक अपरिचित व्यक्ति घर में घूमता रहता था। इस वजह से परिवार वालों का दैनंदिन बात-व्यवहार असामान्य हो चला था। विष्णु मर्डेकर की सहज उपस्थिति भी परिवार पर एक अलग दबाव बनाती जा रही थी।

विष्णु मर्डेकर शांत स्वभाव का, सीधा अभिमानरहित इंसान था। उसका व्यवहार भी बहुत सीधा और सरल था।

अंधेरी रात में सूर्यकान्त और रफीक़ मुजावार किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। मर्डेकर कान देकर उनकी बातों को सुन रहा था। यह बात सूर्यकान्त को बिलकुल पसंद नहीं आई। सूर्यकान्त ने इशारे से उसे दूर बैठने का इशारा किया लेकिन उसने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। तब, सूर्यकान्त ने मर्डेकर को हाथ पकड़कर जबर्दस्ती बिठा दिया। सूर्यकान्त और रफीक़ मुजावार संकेत के अपहरण और उस पर पुलिस की जांच पर चर्चा कर रहे थे। ये सब मर्डेकर सुन रहा था, समझने की कोशिश कर रहा था।

सूर्यकान्त के मोबाइल फोन की घंटी ने बातचीत में व्यवधान पैदा किया। कॉल रिसीव करके जैसे ही उसने फोन को कान से लगाया और उधर से आने वाली हात को सुनकर फटाक से अपनी जगह पर ही खड़ा हो गया।

“संजय, तुरंत मेरे साथ चलो।” दोनों भाई सपाटे से साई विहार से बाहर की ओर भागे। उनके पीछे-पीछे विष्णु मर्डेकर भी निकल चला।

अपने कमरे की खिड़की से प्रतिभा ने सूर्यकान्त को बाइक शुरू करके जेट की स्पीड से भगाते हुए देखा। किसी बुरे ख्याल से उसके रोंगटे खड़े हो गए। 1996 की वह घटना उसे याद हो आई। अमावस्या की घनघोर काली रात थी। सूर्यकान्त किसी से मिलने के लिए वाई गया हुआ था। साथ में दो दोस्त भी थे। ठंड जोरदार थी। चारों ओर नीरव शांति और दिनभर की थकान पसरी हुई थी। सूर्यकान्त और उसके दोस्त चुपचाप गाड़ी में बैठे हुए थे। गाड़ी तेजी से रास्ते पर भागी जा रही थी। रात बारह बजे के करीब दोस्तों को छोड़कर वाई से लौटते समय स्टीयरिंग व्हील संभाले हुए सूर्यकान्त को पल-भर के लिए झपकी आई और सुरुळ चौक पर गाड़ी 35 फीट गहरे नाले में जा गिरी। अपघात इतना भयंकर था कि किसी के भी बचने की उम्मीद नहीं थी। लेकिन कुछ ही देर में खून से सना हुआ सूर्यकान्त जैसे-तैसे गाड़ी का दरवाजा खोलकर बाहर निकलने में सफल हुआ। बहुत कोशिश करने के बाद उस 35 फीट गहरे नाले से ऊपर आकर रास्ते में खड़ा हो गया। अचानक सामने से सुरुळ गांव के उनके दोस्त चंद्रकांत चव्हाण की गाड़ी आ गई। सूर्यकान्त ने चव्हाण को इस दुर्घटना की जानकारी जैसे-तैसे दी और मदद की गुहार लगाई और फिर वहीं बेहोश होकर गिर पड़ा। दोस्त ने सूर्यकान्त को वाई के अस्पताल में भरती करने का इंतजाम किया और उसके परिवार को इस दुर्घटना की सूचना दी।

“ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद कि इतनी भीषण दुर्घटना में सूर्यकान्त की जान बच गई वरना....”

इस ख्याल मात्र से प्रतिभा के भीतर एक डर दौड़ गया। प्रतिभा ने मन ही मन तय किया कि पहले ही सूर्यकान्त को इतना टेंशन है, अब मैं ऐसी कोशिश करूंगी कि कम से कम उसे मेरी चिंता करने की जरूरत न पड़े। मैं कल ही से स्कूल जाना प्रारंभ कर दूंगी। आखिर मैं सूर्यकान्त भांडेपाटील की अर्धांगिनी हूं। सूर्यकान्त संकेत की खोज करेंगे और मैं शांतचित्त से संकेत की प्रतीक्षा करूंगी। अब मैं रोते-कुढ़ते नहीं बैठूंगी।

सूर्यकान्त और संजय के दोपहिया ने पुणे की राह पकड़ी थी। उनकी तूफानी गति देखकर ऐसा लग रहा था कि उनके शेर लग गया है या पुलिस उनका पीछा कर रही है। बाइक अनियंत्रित गति से भागती ही जा रही थी। उनकी गाड़ी के साथ-साथ मर्डेकर भी अपनी बाइक की स्पीड बढ़ाते जा रहा था। रात के इस अंधकार ने अपने गर्भ में भला ऐसा कौन सी चीज अपने भीतर छुपा रखी थी, जिसे पाने के लिए दोनों गाड़ियों के सवार अंधेरे का पेट चीरते हुए इतनी तेज गति से भागे जा रहे थे?

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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