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फादर्स डे - 31

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 31

शनिवार, 10/12/1999

शिरवळ के होटल के अलावा, गोलांडे उसी तरह का एक होटल चौफाळे में भी चलाता था। ये शिरवळ वाले होटल से करीब दो किलोमीटर दूर था। यह होटल भी मजदूरों और ठेकेदारों के मिलने-बैठने का पसंदीदा स्थान था। इन दिनों जो बातें पहले होटल में गरमागरम बहस का विषय बनी हुई थीं, वही दूसरे में चल रही थीं, अमजद शेख़, सूर्यकान्त के मिक्सर ड्राइवर ताजुद्दीन खान की बेटी का दोस्त की गुमशुदगी की चर्चा।

एक गुप्त भेदिये के जरिये इस छोटी-सी जानकारी को शिरवळ पुलिस चौकी तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगा। पुलिस वालों ने तुरंत सूर्यकान्त के मजदूरों से संपर्क साधा और अमजद के बारे में पूछताछ की। उन्होंने सूर्यकान्त और उसके परिवार से भी जानना चाहा कि क्या वे उसके बारे में कुछ जानते हैं? वे फातिमा से लगातार उसके मित्र के बारे में जानकारी लेने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उसने कुछ भी नहीं बताया। आखिरकार, पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि फातिमा का अमजद के साथ संबंध था और अब वह गायब है।

यह विडंबना ही थी। जब तक पुलिस वाले कुछ सुराग इकट्ठा कर पाते और अपराधी का नाम जान पाते, वह हवा में गायब हो जाता। संकेत अपहरण जांच मामले में यह एक पैटर्न ही बन गया था।

अमजद ने महाराष्ट्र छोड़ दिया था और कोई भी उसके बारे में नहीं जानता था। उसे केवल अपने काम से मतलब था, बाकी दुनियादारी से उसे कोई लेना-देना नहीं था। वह इस बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ था कि शिरवळ से उसका अचानक गायब हो जाना चर्चा का विषय बन गया था, न केवल साई विहार में, बल्कि शिरवळ पुलिस चौकी और पूरे शिरवळ कस्बे में उसी की बात हो रही थी।

संकेत के मामले में जिस गति और जिस तरीके से पुलिस वाले काम कर रहे थे, उसे लेकर भांडेपाटील परिवार के सदस्यों को चिढ़ होने लगी थी। वे व्याकुल थे और बहुत सारी बातें पुलिस की ओर से जानना चाहते थे। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?

विष्णु और शामराव की आपस में किसी विषय पर लंबी बातचीत हुई। अंततः, उन्होंने साहस जुटाया और सूर्यकान्त को बुला भेजा। बिना कोई लाग-लपेट किए उन्होंने उसकी नजरों से नजरें मिलाईं और एक सवाल पूछा, “तुमने वही नोट बैंक में कैसे जमा कर दिए जिन्हें तुमने पहले बैंक से निकाला था? सारा गांव इस षडयंत्र के बारे में बात कर रहा है। हम सच जानना चाहते हैं। इस तरह के आरोप हमारे दिलों को छलनी कर रहे हैं। ”

सूर्यकान्त ने आग्रह किया कि जब वह इस मामले में सफाई दे तो परिवार के सभी सदस्य यहां मौजूद रहें। सभी इकट्ठा हो गए। इस बातचीत से कोई अप्रिय सत्य सामने आ गया तो क्या होगा; वे सभी घबरा रहे थे। सूर्यकान्त ने सभी की ओर देखा। जनाबाई, शालन और प्रतिभा एक ओर बैठ गए। अजय, संजय, शेखर और विवेक दूसरी ओर। विष्णु और शामराव सोफे पर बैठ गए।

सूर्यकान्त को ऐसा लग रहा था मानो वह इस मामले में अपराधी है और उसे कोर्ट के सामने अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए कहा गया है। जिन लोगों ने उस पर आरोप लगाए हैं, उनके पास इसका न कोई आधार है, न कोई सबूत। उन्होंने अफवाह फैलाने वालों की बातों पर विश्वास करके उस पर संदेह किया है। लेकिन उसे अपनी बेगुनाही का सबूत सामने रखना था, और सबूत इस तरह के हों जिसे उसके परिवार समझ सकें और उस पर विश्वास भी कर सकें। अचानक ही सूर्यकान्त अपने ही परिवार के बीच खुद को नितांत अकेला महसूस करने लगा। अपने सभी जानने-पहचानने वालों के बीच वह पराया सा खड़ा था। वैसे भी इस समय वह अपने बेटे को खोकर बहुत भावनात्मक उथल-पुथल से गुजर रहा था। वह खुद को असहाय महसूस कर रहा था कि वह बेटे को खोजने के लिए कुछ नहीं कर पा रहा। और अब उस पर इतना बड़ा आरोप....

सूर्यकान्त ने अपना गला साफ किया। वह सबसे नजरें मिलाने की कोशिश कर रहा पर, वैसा हो नहीं पाया। उसने नजरें नीची कर ली, जमीन की ओर देखते हुए बोला, “मुझे मालूम है कि आप सभी को बहुत दर्द हो रहा है, सभी आहत हैं और घुटन भी हो रही है। संकेत का पिता होने के नाते मैं भी इन सभी अनुभवों से गुजर रहा हूं, मुझे इसके अलावा भी कष्ट हैं। मैं परिवार का मुखिया और इस घर का आदमी होने के बावजूद अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाया। मैं लगातार भागते-दौड़ते हुए थक गया हूं। कभी मुझे कुछ खोजना पड़ता है, कभी पुलिस से कुछ सवाल पूछने पड़ते हैं, कभी मुझे उनको जवाब देना पड़ता है। मुझे घर के सभी लोगों की पीड़ा भी देखनी पड़ती है। मुझे बेचैनी लग रही है। मैं इस मामले में असहाय हो गया हूं...”

विष्णु ने उसकी बात बीच में काटी। “वह सब तो ठीक है, लेकिन उन एक लाख रुपयों का क्या?”

“इस मुश्किल की घड़ी में मेरे कई मित्र मदद के लिए सामने आए। मेरे मित्र और ईंट सप्लायर सुरेश कुंभार, आप सभी उनको जानते हैं, संकेत के अपहरण के तीसरे या चौथे दिन मुझसे मिलने के लिए आए थे। मैं अपने कमरे में था, इसलिए किसी ने उन्हें अंदर ही भेज दिया था। उसने मुझे इस स्थिति से निपटने के लिए तकात दी। उसने मुझे भरोसा भी दिया कि संकेत ठीकठाक वापस आ जाएगा। उसने मुझे एक लाख रुपयों की मदद भी दी, पांचसौ रुपये के नोटों के दो बंडल। उसने आग्रह किया कि मैं उन रुपयों को रख लूं, कभी काम पड़ सकता है। मैंने उन्हें लेने से मना कर दिया लेकिन वह नहीं माना। मैं उसकी भावनाएं आहत नहीं करना चाहता था इसलिए उन पैसों को लेकर अपनी आलमारी में उसी प्लास्टिक बैग में रख दिया जिसमें पहले से ही पांचसौ रुपए के वे नोट रखे हुए थे, जिन्हें मैं पहले ही बैंक से निकालकर लाया था। फिरौती के लिए जो रकम दी गई वे बंडल सुरेश कुंभार द्वारा दिए गए नोट थे, क्योंकि बैग में वही ऊपर रखे हुए थे और अगले दिन मैंने बाकी दो बंडल को जमा कर दिया।” सूर्यकान्त ने नीचे देखते-देखते ही अपनी बात पूरी कर दी।

साई विहार में शांति छाई हुई थी। प्रतिभा ने रोना शुरू कर दिया। उसके रुदन से हॉल की शांति टूटी। संजय और शेखर खड़े हो गए। वे सूर्यकान्त के पास गए और उसकी बाजू में खड़े हो गए। एक इधर, एक उधर। वे कुछ कहना चाहते थे, पर कह नहीं पा रहे थे। प्रतिभा अंदर कमरे की ओर दौड़ पड़ी। विष्णु ने जनाबाई और शालन को उसके पीछे जाने की हिदायत दी।

नजरें झुकाकर खड़े सूर्यकान्त के कंधे पर विष्णु ने अपना हाथ रखा। विष्णु ने अपने बेटे के हाथों को कसकर पकड़ा। सूर्यकान्त ने अपना सिर उठाया। विष्णु उसकी ओर देखकर स्वीकृति में मुस्कुराना चाहते थे, पर मुस्कुरा नहीं पाए। उन्होंने बेटे की पीठ थपथपाई। सूर्यकान्त जानता था कि वह किसी भी समय रो पड़ेगा, इसलिए उसने शीघ्रता से कमरा छोड़ दिया।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

 

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