फादर्स डे - 20 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 20

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 20

रविवार, 05/12/1999

“अरे वाह, बहुत बढ़िया...इसका मतलब है एक दिन में बड़ी कमाई हो जाती है...याद करने की कोशिश करो, और मुझे बताओ कि क्या पिछले सोमवार, 29 नवंबर को, कोई आदमी तुम्हारे बूथ पर एक तीन साल के बच्चे के साथ आया था?”

“सोमवार...सोमवार...हां एक आदमी एक छोटे बच्चे के साथ आया था।”

“वो कैसे आया था? पैदल चलकर? कार से?साइकिल से? या...”

“जहां तक स्कूटर या बाइक पर।”

“क्या तुम बादाम खरीदकर खा सकती हो?”

“सर, मेरे सामान्य रहन-सहन का मजाक मत उड़ाइए। मुझे बड़ी मुश्किल से दो वक्त का खाना मिल पाता है और आप मुझसे बादाम खाने की बात पूछ रहे हैं... ”

“तुमने उस आदमी को चार-पांच दिन पहले देखा। यदि तुम्हारे यहां 200 से 300 लोग रोजाना आते हैं, तो तुम उस आदमी को कैसे याद रख सकती हो।”

“सर, मुझे इसलिए याद है क्योंकि उसके साथ जो बच्चा आया था वह रो रहा था।”

सिपाही ने वह सभी जानकारी लिख ली जो उस बूथ वाली महिला ने फोन करने आए आदमी और बच्चे के बारे में दी। उसने बूथ का लैंडलाइन नंबर भी नोट कर लिया।

“सर, मेरे पास एक महत्वपूर्ण जानकारी है,” उसने इंसपेक्टर माने को फोन लगाया।

ऐसा मालूम पड़ता है कि संकेत सूर्यकान्त पाटील को हवा में गायब हो गया। उसे गायब हुए एक सप्ताह होने को आया और पुलिस को एक भी सुराग नहीं मिल पाया।

साई विहार में, परिवार वालों की आशा धीरे-धीरे डर में बदलती जा रही थी। सूर्यकान्त, प्रतिभा, सौरभी, विष्णु, जनाबाई, विवेक, पायल और पराग पूरी तरह टूट चुके थे लेकिन अपनी बातचीत में उम्मीद को जगाए रखे हुए थे। वास्तव में, वे एकदूसरे की मदद भी नहीं कर पा रहे थे, वे बस अपन आपको दिलासा दे रहे थे कि संकेत को कुछ नहीं होने वाला और वह घर जल्दी वापस आ जाएगा।

प्रतिभा जब भी सोती उसे बुरे सपने घेर लेते थे। और जब वह जागती थी, उसे लगातार डर सताता रहता था कि कुछ अप्रिय घट चुका है।

जनाबाई प्रतिभा का खास ख्याल रखती थीं। वह अपने तीनों पोतों की जरूरतों को पूरा करने में भी वक्त बिताती थीं। अपने कामकाज निपटाते हुए, अपनी मौन प्रार्थनाओं में चौथे की सुरक्षा को दोहराती रहती थीं।

विष्णु इस घटना को समझ ही नहीं पा रहे थे। ‘आखिर एक तीन साल का बच्चे किसी का क्या बिगाड़ा होगा जो उसके साथ इतना बुरा घट रहा है।’ उन्होंने बड़े प्रेम से याद किया कि किस तरह संकेत उनके साथ जुड़ा रहता था।‘वह मेरे प्रति अपना स्नेह तब भी जता दिया करता था, जब उसे बोलना भी नहीं आता था।’

सूर्यकान्त तो भौंचक्का हो गया था। उसके भीतर एक ज्वालामुखी धधक रहा था। ‘इतनी निराशा? इतनी विवशता?’ उसे अपने आप पर ही गुस्सा आ रहा था। वह किताबों, डायरी और एलबम के पन्ने उलट रहा था...जीवन में कोई मार्ग तलाशने का विफल प्रयास।

उसे अपनी 1997 की गई मैसूर ट्रिप की तस्वीरें मिल गईं। संकेत तब सात-आठ महीनों का ही था। ‘संकेत उस समय बोल नहीं पाता था लेकिन वह अपने मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ सबके पास चला जाता था, यहां तक कि अजनबियों के पास भी। इतनी छोटी उम्र में भी वह आसानी से लोगों का दिल जीत लिया करता था।’

कहते हैं न डूबते हुए को तिनके का सहारा। इसी तरह, भांडेपाटील परिवार, लोगों द्वारा संकेत के सुरक्षित वापस लौट आने के लिए बताए जा रहे सभी उपायों का स्वागत कर रहा था। ऐसा कहा जाता है कि मुश्किल समय में लोग अपने तर्कों को बाजू में रखकर वे सभी प्रकार के प्रयत्न करने लगते हैं जिनसे समस्या का समाधान निकल सके। यहां तक कि वे पत्थर को भी भगवान मानकर पूजने लगते हैं। भांडेपाटील परिवार की भी इस समय कुछ ऐसी ही स्थित थी। वे संकेत को वापस लाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। वे संतों की शरण में गए, ज्योतिषियों से मिले और यहां तक कि जादू-टोना जानने वालों के पास भी गए।

एक दिन वे पुणे में एक जाने-माने ज्योतिषी से मिले। ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति, परिवार के सद्स्यों की जन्मकुंडली देखकर और कुछ गणना करने के बाद ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि संकेत फलां व्यक्ति के साथ हो सकता है, फलां जगह में है और फलां व्यक्ति उसे वापस घर लेकर आएगा। इस भविष्यवाणी से भांडेपाटील ने अंदाज लगाया कि सांगली-मिरज पट्टे में कुछ सुराग मिल सकता है। वे उसी दिशा की ओर दौड़ पड़े।

महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में छोटे बच्चों की नाखूनों में आंजन(काजल) लगाने की परंपरा है। ये विश्वास किया जाता है कि इन बच्चों को इस शक्ति का वरदान प्राप्त होता है कि वे इस आंजन की सहायता से वर्तमान में कितनी भी दूर का हालचाल देख सकते हैं। उन्हें यह वरदान इसलिए प्राप्त होता है क्योंकि वे अबोध होते हैं। एक बच्चे ने, जो संकेत को किसी दूरवर्ती स्थान पर देख पा रहा था, भांडेपाटील परिवार को बताया कि बच्चा किसी दुकान के सामने खड़ा है। उसने यह भी बताया कि संकेत ने क्या पहन रखा है, लेकिन स्थान के बारे में स्पष्टता से बहुत कुछ नहीं बता पाया।

अच्छी बात थी कि भविष्यवक्ता भांडेपाटील परिवार की उम्मीदों को जिंदा रखे हुए थे और सकारात्मक बातें कर रहे थे। इससे समस्या का समाधान भले ही न हो पा रहा हो लेकिन वे इस बात का भरोसा जगाए हुए थे कि संकेत जिंदा, सुरक्षित और स्वस्थ था। और वह जल्दी लौट कर वापस भी आएगा। उनके इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था, ‘वह कब आएगा।’

इंसपेक्टर माने के पास तीन आधिकारिक वक्तव्य थे, एक स्कूल टीचर का, दूसरा पान दुकान मालिक का और तीसरा टेलीफोन बूथ वाली महिला का। इन जानकारियों के आधार पर उसने अपहरणकर्ता का स्केच बनवाया था। स्केच शिरवळ पुलिस चौकी में पहुंचने ही वाला था। हर कोई खोज अभियान में स्केच की उपयोगिता को लेकर आशावादी था।

उनके पास आशावादी बने रहने के अलावा कोई विकल्प भी कहां था?

सूर्यकान्त के दोस्तों के हाथ भी कोई ठोस सबूत नहीं लग पाए थे। उनका अनुमान था कि संकेत का अपहरण हुआ है इसलिए उन्होंने बच्चे को खोजने से ज्यादा ध्यान अपराधी को खोजने में लगाया।

संकेत किसी दुर्घटना का शिकार तो नहीं हो गया? कहीं दूर खेलते हुए रास्ता तो नहीं भटक गया?

दोस्तों की टीम इस निष्कर्ष पर पहुंची कि इन आशंकाओं को ध्यान में रखकर खोज की जाए। उन्होंने संकेत के रंगरूप, उसकी कद काठी और कपड़ों का विवरण तैयार किया। इस विवरण के साथ उन्होंने संकेत का एक फोटो भी लगाया और इसकी बहुत सारी फोटोकॉपी बना ली, ताकि इन्हें जगह-जगह बांटने में आसानी हो। इस विवरण को मुंबई, ठाणे. पुणे, कोल्हापुर, सातारा, बीड़ और जालना के चाइल्ड वेलफेयर सेंटरों में बांट दिया गया। सूर्यकान्त के मित्र इन सभी स्थानों पर स्वयं गए। ऐसा इस भरोसे के साथ किया गया...कि यदि संकेत अपनी जगह से कहीं दूर निकल गया हो, किसी ने उसे रोते हुए देख लिया हो, किसी ने उसे इनमें से किसी संरक्षण स्थान पर भेज दिया हो...

संकेत की वापसी की प्रतीक्षा करने के और भी कारण थे। किसी ने उस दुर्घटना के बारे बताया था जब उनके रिश्तेदार का बच्चा 11 दिन बाद वापस लौटा था। यदि पुलिस वाले और रहवासी संकेत को खोज नहीं पाए हैं, तो निश्चित ही वह इन संरक्षण गृहों में से किसी एक में होगा।

शिरवळ के लोगों को चर्चा के लिए हमेशा किसी नए विषय की तलाश रहती थी। उन्होंने इस तरह के संरक्षण गृहों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं, ऐसी संस्थाओं के पीछे चलने वाली राजनीति, इन सेंटरों में होने वाले भ्रष्टाचार, यहां चलने वाले घोटालों और निश्चित ही यहां किए जाने वाले परोपकारों पर भी बातें बनाना शुरू कर दिया।

प्रतिभा और जनाबाई को एक ताजा उम्मीद की किरण नजर आई। उन्होंने प्रार्थना की कि संकेत ऐसे ही किसी बाल कल्याण केंद्र में सुरक्षित हो और स्वस्थ और प्रसन्न अवस्था में घर वापस आ जाए।

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह