फादर्स डे - 8 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 8

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण 8

सोमवार, 29/11/1999

स्कूल टीचर अंजली वाळिंबे के ‘न’ के जवाब से उस ग्रुप के बहुतों ने राहत की सांस ली, जिन्हें पुलिस उनके घर पर शिनाख्त के लिए ले गई थी। दूसरी ओर, उनके जवाब ने सिपाहियों के मनोबल को गिराकर रख दिया। इस रात की सुबह नहीं...अब, वे जानते थे कि जांच एक लंबा समय लेगी।

साई विहार में सूर्यकान्त और उनकी टीम माथापच्ची में जुटी हुई थी कि वे ऐसे कितने लोगों को जानते हैं जिनका हुलिया टीचर अंजली के उस विवरण से मिलता-जुलता है, जो संकेत को स्कूल से अपने साथ ले गया था। यह ग्रुप भूख-प्यास नींद-थकान या फिर घर लौटने की तलब से परे मालूम पड़ता था। “भाऊ, यह हुलिया तो आपके साले शेखर देशमुख से मिलता-जुलता है,” उनमें से एक मुंह से अनायास ही निकल पड़ा। सूर्यकान्त ने उसकी ओर तीखी नज़रों से देखा। तब उसने अपनी गलती को यह कहकर सुधार लिया, “वो मेरी जुबान फिसल गई थी। शेखर तो संकेत का मामा है।”

सूर्यकान्त ने विचार किया शेखर इस मुश्किल की घड़ी में उसके लिए बड़ा मददगार साबित हो सकता था। लेकिन वह था कहां? उसने शेखर के बारे में अपने विचारों को दरकिनार कर दिया और अपने टीम के सदस्यों को सौंपे जाने वाले कामों की लंबी सूची तैयार की। उन सभी ने अपने-अपने काम को करना तत्काल शुरू भी कर दिया। कुछ साइकिल पर, कुछ स्कूटर पर, कुछ बाइक पर तो कुछ कार पर निकल पड़े। किसी को भी मालूम नहीं था कि अपराधी को पकड़ने में सफलता किसके हाथ लगने वाली है, लेकिन वे सभी शिरवळ की सड़कों पर उतर चुके थे। इस कस्बे के लोगों ने इसके पहले कभी-भी आधी रात को इस तरह की चहल-पहल नहीं देखी थी।

साई विहार के अंदर प्रतिभा की हालत अत्यंत दयनीय थी। वह न तो बोल रही थी, न चलफिर रही थी, यहां तक कि अपनी जगह से हिलडुल भी नहीं रही थी। उसका चेहरा भावहीन था और रोते-रोते उसकी आंखें सूज गई थीं। उसके पड़ोसियों को उसका दर्द देखते नहीं बन रहा था। इतना तो तय था कि इस हालत में वे उसे अकेला छोड़कर जाने वाले नहीं थे और इस समय उसके गुम हुए बेटे के बारे में और बात करना भी उन्हें ठीक नहीं लग रहा था। इससे उसके दुःख में बढ़ोतरी ही होनी थी। “यदि तुम चाहती हो कि तुम्हारा बेटा संकेत जल्दी वापस घर आ जाए तो तुमको इस तरह चुपचाप बैठने के बजाय प्रार्थना करना शुरू कर देना चाहिए” तरु आई ने जरा कठोरता से ही कहा, मानो वह प्रतिभा को डपट रही हों। उनकी ये बात काम कर गई। तुरंत ही प्रतिभा के विचारों ने कुछ बेहतर करने का रास्ता पकड़ा। उसने भगवान की तस्वीर की ओर देखा और वह अपने गुम हुए बेटे की जगह उनका ध्यान करने लगी।

शिरवळ पुलिस चौकी में गतिविधियां तेज थीं। एक के बाद एक कई रहवासियों को एक जैसे सवालों के जवाब देने पड़ रहे थेः आप दोपहर 12 से 1 के बीच कहां थे? संकेत को आपने आखिरी बार कब देखा था? आपने संकेत के बारे में किसी से कुछ सुना क्या? क्या आपको लगता है कि सूर्यकान्त की किसी से दुश्मनी है?

तमाम कोशिशों के बावजूद पुलिस बल कोई ठोस सबूत हासिल नहीं कर पाई थी। बच्चे को खोए हुए करीब 12 घंटे बीत चुके थे, लेकिन इस मामले में अभी तक कोई जानकारी नहीं मिल पाई थी।

कस्बे के कुछ मवालियों को चौकी के भीतर ही रोक कर रखा गया जबकि कुछ को घर जाने के लिए कहा गया। जिनका हुलिया ‘मिलता-जुलता’ था उन्हें अगली सुबह 10 बजे दोबारा आने के लिए कहा गया।

अपने दुःख को छिपाने की कोशिश में प्रतिभा ने एक डायरी के पन्ने उलटने शुरू कर दिए। अचानक, उसकी निगाहें उस फोटो पर पड़ी जिसमें संकेत एक महीने का था। उसके बाद उसने एक फोटो और देखा जिसमें उसके दोनों बेटे उसके साथ थे। ‘क्या मैं अपनी जिंदगी में दोबारा इस तरह का फोटो खिंचवा पाऊंगी’ इस विचार ने उसे अत्यंत दुखी कर दिया और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। तरु आई उसके दर्द को महसूस कर रही थी। उन्होंने महाडिक काकू से एक गहरी थाली में पानी लाने का इशारा किया। प्रतिभा को प्रेम से थपथपाते हुए कहा, “रड़ून काय होणार, बोला?(रोने से भला क्या भला होने वाला है)’ गणपति की प्रतिमा को इस पानी में रखो और उनसे प्रार्थना करो कि तुम्हारी सारी विपत्तियों को दूर करें।”

प्रतिभा को इस सलाह से धीरज मिला। उसने भगवान गणेश की एक छोटी प्रतिमा को पानी भरी थाली में रखा, अपनी आंखें मूंदीं, दोनों हाथ जोड़े और प्रार्थना शुरू की। ‘ओम गणेशाय नमः....ओम गणेशाय नमः...ओम गणेशाय नमः...’ वह दोहराती जा रही थी।

ऐसा लग रहा था मानो भगवान गणेश उनकी समस्या को सुलझाने में सहायता कर रहे थे। सूर्यकान्त इस विचार से साथ उठ खड़ा हुआ, ‘मुझे प्रतिभा से मालूम करना चाहिए कि शेखर कहां है?’ लेकिन अगले ही क्षण दूसरे विचार ने व्यवधान डाला, ‘इस स्थिति में ऐसा करना बुद्धिमानी नहीं होगी।’ इससे पहले कि वह कुछ और सोच पाता, उसका मोबाइल फोन बज उठा। ‘सुबह 3 बजे कौन फोन कर सकता है भला? क्या कोई बुरी खबर तो नहीं?’

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह