मैं तो ओढ चुनरिया - 47 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 47

 

मैं तो ओढ चुनरिया

 

47

 

इस तरह मेरी एम ए की पढाई का श्रीगणेश हो गया । इस बीच फूफाजी का खत आया कि स्नेह को एम ए में दाखिला दिला कर आपने अच्छा किया . मेरे भानजे ने भी कालेज में इवनिंग क्लास में एम ए इतिहास में दाखिला ले लिया है । पांच बजे दफ्तर से छूटता है तो साढे पांच बजे से कालेज जाता है । चलो दोनों की एम ए हो जाएगी । बाकी घर का काम अभी चल रहा है । तीन चार महीने अभी लगेंगे ।

पिताजी ने सुख की सांस ली थी इस बहाने शादी चार पांच महीने आगे जा पङी थी । सब ठीक ठाक चल रहा था पर एक बङी समस्या अभी बाकी थी । माँ और बङी मामी में नाराजगी चल रही थी । घर की सबसे बङी बेटी की शादी सिर पर थी । मामा की मौजूदगी के बिना कैसे होगी । न माँ झुकने को तैयार थी न मामी और लङाई की जङ मैं ।

चार साल पहले की बात है । शरद नवरात्र चल रहे थे । शहर में जगह जगह रामलीला शुरु हो चुकी थी । मंगलवार का दिन था । केवटलीला होनी थी । पासपङौस की औरतें रामलीला देखने के लिए सुबह से उतावली हो रही थी । शाम होते ही सब लोग खुमरानपुल पर चल दिए । वहाँ पांवधोई के तट पर दोनों ओर लोगों की भीङ लग गई । मां भी पङोसनों के साथ केवटलीला देखने गई । बनवास लीला  के बाद रामलीला भवन में रामलला की आरती होती है फिर राम , सीता और लक्ष्मण रथ पर सवार होते हैं । बैंडबाजों के साथ शहर के मुख्य बाजारों से होता हुआ रथ पाँवधोई के घाट  भूतेश्वर  मंदिर पर पहुँचता है । वहाँ साफ सुथरी पाँवधोई में सजी सँवरी नाव खङी होती है । रथ से उतर कर राम, लक्ष्मण और सीता नाव की ओर बढते हैं ।  सङक के दोनों ओर खङी भीङ जयकार कर उठती है , सियापति रामचंद्र की जय । राम के हाथ में माईक थमा दिया गया है । राम करुण स्वर में गुहार लगाते हैं – सुनो हो केवट भइया जल्दी लगा दो गंगा पार । केवट जल्दी जल्दी से अपने डायलाग बोलता है । भीङ साँस रोके खङी सुन रही है । अब केवट परात में पानी ले आया है । पैर धोये जा रहे हैं । केवट के बाद मैनेजमैंट के सदस्य बारी बारी से चरण पखार रहै हैं । आरती होती है ।  केवट कंधे पर उठा कर राम और सीता को नौका में रखी मैरेज पैलेस वाली कुरंसियों पर पधरा देता है । लक्ष्मण खुद चल कर आता है और राम सीता की कुर्सियाँ पकङ उन के पीछे खङा हो गया है । कीर्तनिए अभी  गा रहे हैं – सुनो मेरे रघुराई लिए बिना  उतराई कैसे ..। तब तक  नाव में लगी रस्सी पकङ शहर के धनी मानी घुटनों घुटनों पानी में उतर गये हैं । रस्सी के सहारे नौका धीरे धीरे आगे बढती है । कुछ कदम  दूर आगे रथ फिर खङा है । राम लक्ष्मण और सीता जयजयकार के बीच दोबारा रथ पर बैठ गये हैं । रथ कुछ देर बाद आँखों से ओझल हो जाता है तो भीङ आगे बढती है , जल से अपने ऊपर छीटा देती है ,आचमन कर मुक्ति के सपने देखती है । और प्रसन्नचित्त घर लौट जाती है । भीङ वापिस जल्दी लौटने की हङबङी में एक दूसरे को धकियाती हुई बढी जा रही थी कि अचानक एक जोर का धक्का लगा और मेरा हाथ माँ के हाथ से छूट गया । मैं रेले के साथ कई कदम आगे चली गई । काफी दूर जाकर मेरी सांस में सांस आई तो मैंने माँ को ढूढने की कोशिश की पर अथाह जनसैलाब में माँ का कोई अतापता नहीं था । बदहवास सी मैं काफी देर तक भीङ को देखती रही फिर घबरा कर रोने लगी । अचानक भीङ में से एक हाथ आगे बढा और मेरी कलाई पकङ ली । आँसुओं से सजल आँखों से मैंने हाथ थामने वाले को देखा । अरे यह तो बङी मामी थी । मेरी तो जान में जान आ गई । मामी ने पूछा – बहनजी कहाँ है ? तू किसके साथ आई है ?

मैंने सुबकते हुए हाथ छूट जाने की बात बताई । मामी ने मंच से अनांउस कराया । करीब पांच सात मिनट हम वहां खङे रहे पर माँ तो हमें दिखी ही नहीं । मामी ने किसी से समय पूछा – पौने आठ ।

मामा के घर लौटने का समय हो चुका था । मामी मुझे साथ लेकर सहेलियों के साथ घर लौट आई । नानी ने मुझे देखा । सारी बात सुनी तो नाराज हो गई । भला इतनी भीङ में जाने की क्या जरूरत थी ? मामी चुपचाप खाना बनाने लगी ।

उधर माँ उस भीङ में मुझे ढूढती रही । धीरे धीरे भीङ छंट गई । पर माँ को मैं मिली ही नहीं । माँ बुरी तरह से घबरा गई थी । फूट फूट कर रोने लगी । वे कभी आगे जाती कभी पीछे । पङोसनों को घर लौटना था । खाने का समय हो रहा था । रात घिर आई थी । उन्होने माँ को तसल्ली दी और लौटने के लिए कहा । माँ लौटना नहीं चाहती थी । इसी चक्कर में साढे आठ हो गये । अब उन्होने माँ को समझाया कि घर चल कर डाक्टर साहब को बताते हैं । वे पुलिस में थाने में खबर करेंगे तो रानी मिल जाएगी । माँ लौटी पर नानी के घर कि भाइयों में से कोई तो घर होगा जिसे लेकर वह दोबारा ढूंढने जाएगी । अब जो वह घर आई तो मैं मामी के बच्चों के साथ दाल चावल खा रही थी । मुझे देख कर माँ डर चिंता और घबराहट गुस्से में बदल गए । उन्होंने मेरे एक चांटा लगाया और थाली पर से खींचती हुई बाहर ले गयी । मामी तो सन्न रह गई । नानी ने माँ को रोकने के लिए पुकारा पर माँ तो कहने सुनने को लिए रुकी ही नहीं । उस दिन वे अकेली ही मुझे लगभग घसीटती हुई घर पहुँची । घर पहुँच कर भी उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ । मुझे उस दिन बहुत डांट पङी । मुझे समझ ही नहीं आया कि मामी तो अपनी है ष उसके साथ आकर मैंने गलत क्या कर दिया । बोल बोल कर वे थक गई तो रोना शुरु हो गई । उनके रोने की आवाज सुन कर पङोसने आ गई – भई तेरी भाभी को वहीं रुरना चाहिए था । बच्ची को ले गई ये भी नहीं सोचा कि ननद कितना परेशान होगी । खैर माँ किसी तरह से शांत हुई ।

उधर मामी नानी से उलझ रही थी – एक तो बच्ची सम्हाली नहीं गई । भीङ में अकेली छोङ दिया । कोई उठा कर ले जाता तो पता चल जाता । मुझे मिल गई । हमने वहाँ दस पंद्रह मिनट इंतजार भी किया । अब खुद गायब हो गई तो मैं क्या करती । बच्ची को घर ही तो लेकर आई थी । लङकी सिर्फ उन्हीं की है । हमारी तो कुछ लगती नहीं । खाना भी नहीं खाने दिया । मारती पीटती ले गई । पूछा तक नहीं । नानी चुप बैठी सुनती रही ।

इसके बाद जबभी मैं नानी के घर जाती । मामी गले से लगा कर प्यार करती पर खाने को न देती – न भाई तेरी माँ तो खाने देगी नहीं । मार पीट कर घसीटती हुई ले जाएगी । हम कौन सा कुछ लगते हैं । मैं क्या कहती । इस बात को तीन चार साल हो चुके थे पर दोनों अपनी जिद पर थी । कोई भी झुकने को तैयार नहीं । तीज त्योहार आए और आकर जाते रहे पर दोनों के बीच का अबोला खत्म नहीं हुआ ।

 

बाकी फिर...